ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला दा सिल्वा का उद्घाटन भाषण आशा की नई किरण बना है। फोटो: रिकार्डो स्टुकेरत/सेकम
– डॉ राजेंद्र सिंह*
अमेजन से संस्कृति तक: कोप30 की नई उम्मीद
बेलेम, ब्राजील में चल रहा कोप30 अब तक के सभी कोप सम्मेलनों से अलग बन सकता है, बशर्ते उद्योगपतियों के लाभ-केंद्रित रुझान को शुभ-केंद्रित रुझान में बदल दिया जाए। ‘शुभ’ अर्थात् सस्टेनेबिलिटी शब्द को पहली बार विश्व स्तर पर मान्यता 1992 में इसी ब्राजील से मिली थी। अब समय आ गया है कि इसे केवल शब्द नहीं, कर्म बनाकर लागू किया जाए ताकि उद्योग भी सस्टेनेबिलिटी के लिए काम करने लगें।
खेती मूलतः संस्कृति है, इसे ब्राजील ने ही उद्योग बना दिया था। अब ब्राजील के पास अवसर है कि कोप30 में संस्कृति और सस्टेनेबिलिटी को जोड़ने की प्रक्रिया शुरू करके खेती को पुनः उद्योग नहीं, संस्कृति बनाए। यही रास्ता आरोग्य, रक्षण, आनंद और समृद्धि सब कुछ देने वाला है। यही परिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था दोनों का सुधार करेगा।
ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला दा सिल्वा का उद्घाटन भाषण आशा की नई किरण बना है। 19 नवंबर 2025 को बेलेम में दिए गए इस भाषण में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कोप30) की वार्ताओं का अवलोकन प्रस्तुत किया, जो 10 नवंबर से शुरू होकर 21 नवंबर तक चल रहा है। सम्मेलन अध्यक्ष आंद्रे कोर्रेया दो लागो और पर्यावरण मंत्री मरीना सिल्वा के साथ बोलते हुए लूला ने वैश्विक नेताओं से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी लेने का आह्वान किया। उन्होंने कहा, “सभी को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। इसी कारण हमने रोडमैप पेश किया है। हमें समाज को दिखाना होगा कि हम गंभीर हैं—बिना किसी पर कुछ थोपे, बिना समयसीमा तय किए। हर देश को अपनी संप्रभुता के साथ अपनी क्षमता और समय के अनुसार तय करने का अधिकार है, लेकिन गंभीरता दिखानी होगी। हमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करना होगा।” यह रोडमैप कोप-30 में ब्राजील की प्रस्तावित योजना है, जो जीवाश्म ईंधन के वैश्विक उपयोग को कम करने के लिए ठोस लक्ष्य और कार्ययोजनाएं निर्धारित करती है।
लूला ने अमेजन को सही रूप में प्रस्तुत करने पर जोर दिया: “दुनिया भर के लोगों के मन में अमेजन को जैसा वास्तविक रूप दिखाना बहुत महत्वपूर्ण था।” उन्होंने बेलेम शहर को सम्मेलन का मेजबान बनाने की चुनौती का भी जिक्र किया, जो वैश्विक आयोजनों के लिए अभ्यस्त नहीं है: “मैं निश्चित हूं कि अब लोग जान गए हैं कि केवल वह बेथलेहेम शहर नहीं है जहां जीसस का जन्म हुआ, बल्कि बेथलेहेम दो पारा भी है—ब्राजीलियाई लोगों का बेथलेहेम, जो असाधारण रूप से गर्मजोशी, स्वागत करने वाला और उदार है, जिनके साथ आपने निश्चित रूप से जुड़ाव महसूस किया होगा।”
लूला ने कोप30 को “लोगों का कोप” करार दिया, क्योंकि इसमें व्यापक सामाजिक भागीदारी रही: “समाज में हर किसी की भूमिका है। इस कोप ने इसे प्रतिबिंबित किया, इसलिए इसे बेथलेम में आयोजित किया गया। इसे दुनिया का पहला ‘लोगों का कोप’ कहा जा सकता है, क्योंकि दुनिया भर से लोग यहां अपनी अभिव्यक्ति के लिए आए।” उन्होंने बहुलवादी भागीदारी पर कहा: “लोगों की भागीदारी असाधारण रूप से सार्थक, व्यवस्थित रही और सभी समूहों ने अपने दस्तावेज हमें सौंपे। मुझे बहुत खुशी है क्योंकि कोप के इतिहास में पहली बार 3,500 आदिवासी प्रतिभागी शामिल हुए। और इस कोप में महिलाओं को कभी द्वितीयक नहीं माना गया। महिलाओं को लिंग मुद्दे के रूप में संबोधित करना होगा और उनकी पूर्ण भागीदारी के साथ सम्मान दिया जाना चाहिए, क्योंकि महिलाएं द्वितीयक नागरिक नहीं हैं। हमें, नेताओं को, यह सीखना होगा। हम जो न्यूनतम सहयोग दे सकते हैं, वह है नवाचार—हमारे व्यवहार में, नई समाज की दृष्टि में, और इस ग्रह पर मानव होने के अर्थ को समझने में।”
अब तक किसी भी कोप में कोई ठोस अच्छा समझौता होता नहीं दिखा। उम्मीद है कि यह कोप स्वयं एक सकारात्मक शुरुआत करेगा। ब्राजील लंबे समय से सामाजिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों का केंद्र रहा है। दुनिया के जलवायु संतुलन में निर्णायक भूमिका निभाने वाले अमेजन जंगल और उसकी नदियों को संरक्षित रखने की जिम्मेदारी भी ब्राजील की है। लूला ने जलवायु देखभाल के प्रति प्रतिबद्धता पर जोर देते हुए कहा: “दुनिया के सभी नेताओं को समझना होगा कि जलवायु की देखभाल करना पृथ्वी ग्रह के संरक्षण और निरंतर अस्तित्व की देखभाल है, क्योंकि हम अभी तक ऐसा कोई दूसरा स्थान नहीं पा सके जहां हम जीवित रह सकें। जलवायु की देखभाल का मतलब है यह मानना कि धनी देशों को गरीब देशों का समर्थन करना होगा, और वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने होंगे ताकि जो जंगल खड़े रखते हैं, वे उन्हें खड़े रख सकें, और लोग समझ सकें कि जंगल को काटने से संरक्षण अधिक लाभदायक है। स्वच्छ जल को बनाए रखना ग्रह को कार्यशील रखने की प्रतिबद्धता है। यह कोई अमूर्त अवधारणा नहीं है।”
उन्होंने विविध ऊर्जा मैट्रिक्स पर कहा: “यदि जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन का प्रमुख स्रोत हैं, तो हमें जीवाश्म ईंधन के बिना जीने और ऐसे भविष्य का निर्माण कैसे करें, इस पर विचार करना होगा। मैं यह विश्वास के साथ कह रहा हूं, क्योंकि मैं एक ऐसे देश से हूं जो तेल उत्पादित करता है। लेकिन मैं एक ऐसे देश से भी हूं जो गैसोलीन के साथ सबसे अधिक अनुपात में इथेनॉल का उपयोग करता है। मैं एक ऐसे देश से हूं जो महत्वपूर्ण मात्रा में बायोडीजल उत्पादित करता है, और हमारा बायोडीजल पहले से ही 15 प्रतिशत मिश्रण वाला है। मैं एक ऐसे देश से हूं जहां 87 प्रतिशत बिजली स्वच्छ है, और मैं चाहता हूं कि सभी देश इसे हासिल करें।” गरीब देशों के समर्थन पर उन्होंने कहा: “इसके लिए, गरीब देशों को धनी देशों से समर्थन मिलना होगा। धनी देश अफ्रीका के ऊर्जा संक्रमण का समर्थन कर सकते हैं, बायोफ्यूल उत्पादन, और पवन तथा सौर ऊर्जा का विस्तार। यह केवल सीमित वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की बात नहीं, बल्कि प्रौद्योगिकी और ज्ञान का हस्तांतरण है। यह देशों को गुणवत्ता में छलांग लगाने में मदद करने की बात है।”
लूला ने आम सहमति की खोज पर कहा: “मुझे विश्वास है कि मेरी वार्ता टीम सर्वोत्तम संभव परिणाम हासिल कर लेगी। हम समझ बना सकेंगे, क्योंकि कोप में कुछ भी थोपा नहीं जाता। सब कुछ आम सहमति से हासिल करना होता है; सब कुछ गहन चर्चा से। हम हर देश की राजनीतिक, वैचारिक, क्षेत्रीय और सांस्कृतिक संप्रभुता का सम्मान करते हैं। हम कुछ थोपना नहीं चाहते। हम केवल कहना चाहते हैं: यह संभव है। और यदि संभव है, तो आइए मिलकर इसे बनाएं। इसी कारण मैं संतुष्ट हूं।” मंत्री मरीना सिल्वा ने उष्णकटिबंधीय जंगलों के हमेशा फंड (टीएफएफएफ) पर प्रगति का उल्लेख किया, जिसमें जर्मनी ने लगभग 10 अरब यूरो का योगदान घोषित किया, जो संरक्षण पर आधारित नई अर्थव्यवस्था बनाता है जहां जंगलों को खड़ा रखना वित्तीय रूप से लाभदायक है।
यही वजह है कि अमेजन संरक्षण को कोप30 के समझौते में लाने की मांग को लेकर दुनिया भर के लोग बेलेम की सड़कों पर उतर आए हैं।
दुबई कोप में उद्योगपतियों की बात ही छाई रही थी, वहाँ जन-आवाज के लिए कोई स्थान नहीं था। ब्राजील में वह संभव हो सका। हमने दुबई में भी अत्यंत शांतिपूर्ण आंदोलन किया था, पर हमारी आवाज को भुला दिया गया था। उसके बाद जलवायु विनाश को रोकने वाला कोई प्रभावी समझौता किसी भी कोप में नहीं हो पाया।
लंबी कोप यात्रा के बाद इस बार फिर ब्राजील में ही राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला दा सिल्वा ने जलवायु संकट को प्रामाणिक रूप से स्वीकार किया है। पूंजीवादी सत्ता इसे माने या न माने, पहली बार कोई राष्ट्रपति अपने देश के विनाशकारी विकास मॉडल को खुलकर स्वीकार करते हुए लालची विकास को रोकने का संकल्प अपने उद्घाटन भाषण में व्यक्त कर रहा है। इसलिए उम्मीद है कि यह केवल भाषण नहीं, कर्म भी बनेगा। यदि अमेजन जंगल और उसकी नदियों को वास्तव में संरक्षित कर लिया गया तो दुनिया के बाकी देश विकास का लालच छोड़कर प्रकृति से प्रेमपूर्वक संरक्षण और पुनर्जनन का रास्ता अपनाना शुरू कर देंगे। कोप-30 आने वाले सभी कोप सम्मेलनों के लिए भी नया रास्ता दिखाएगा।
1972 के स्टॉकहोम पृथ्वी शिखर सम्मेलन में पर्यावरण संकट को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था और उसके बाद दुनिया ने अपने-अपने स्तर पर इस संकट को समझाने और समाधान खोजने का काम शुरू किया था। 1972 से 1992 तक उत्तर और दक्षिण के देशों ने प्रदूषण, अतिक्रमण और शोषण के मुद्दों को शिक्षा पाठ्यक्रमों में शामिल करना शुरू कर दिया था। लेकिन 1992 में रियो डी जनेरियो में उद्योगपतियों का संगठित लॉबी इतना मजबूत था कि उन्होंने पर्यावरण के स्थान पर ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ का दिखावा थोप दिया। विकास को जरूरी बताकर ‘शुभ’ को भुला दिया गया। पर्यावरण की शर्तें सस्टेनेबिलिटी के नाम पर लगा तो दी गईं, पर उद्योगों में उनकी पालना कभी गंभीरता से नहीं हुई। रिश्वत देकर प्रदूषण मापक यंत्रों को खरीद लिया जाता रहा और उद्योगपति मनमाने ढंग से उद्योग चलाते रहे। नतीजतन सस्टेनेबिलिटी केवल कागजी शब्द बनकर रह गई। भारत में तो प्राचीन काल से व्यापार में ‘शुभ’ पहले और लाभ बाद में आता था। अंग्रेजी राज के पहले शुभ-लाभ का यही क्रम था। रियो-1992 के बाद भारत में भी शुभ-लाभ का अर्थ उलट गया और केवल लाभ ही सर्वोपरि हो गया।
पर्यावरण वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं के सतत शोध व संघर्ष के बाद दुनिया को मानना पड़ा कि विकास के कारण ही जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जैव-विविधता घट रही है, रोग-बीमारियाँ बढ़ रही हैं, तापमान असंतुलित हो रहा है, प्राकृतिक उत्पादन घट रहा है, वर्षा चक्र बदल रहा है, समुद्री उफान, तूफान, बाढ़, सूखा पड़ रहा है और गरीब सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। कोपनहेगन तक आते-आते बिगाड़ करने वालों से हरजाना वसूलने की बात स्वीकार कर ली गई थी, पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इसे नकार दिया था।
जलवायु परिवर्तन के समाधान के लिए समिति बनी, सुझाव आए, कुछ माने गए, बहुत कुछ अनसुना रहा। हर साल नवंबर-दिसंबर में कोप होने लगे, पर मौलिक मुद्दे—भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर—कभी केंद्र में नहीं आए। बिगाड़ करने वाला हरजाना भरेगा—यह सर्वसम्मत समझौता आज तक नहीं बन सका।
2015 में पेरिस कोप-21 में पहली बार दुनिया की जनता ने जल को मुख्य मुद्दा बनाया। इसमें भारत के तरुण भारत संघ की निर्णायक भूमिका रही। उसी साल अगस्त में जल का नोबेल माना जाने वाला स्टॉकहोम वाटर प्राइज भी इसी काम को मिला था। मैंने स्वयं पेरिस में 20 दिन रहकर “जल ही जलवायु है, जलवायु ही जल है” का नारा बुलंद किया। परिणाम यह हुआ कि संयुक्त राष्ट्र ने दो दिन अतिरिक्त देकर जल को पहले समझौते में शामिल कर लिया।
2016 मोरक्को कोप में इस नारे के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना बनाने का फैसला हुआ और सभी देशों ने अपनी योजनाएं पेश कीं। तब तक एसडीजी भी आ चुके थे, जल से जुड़े एजेंडा 6, 13 आदि आगे आए, पर बहुत कम देशों ने समझौते के अनुरूप काम किया। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 17 प्रतिशत औसत सफलता ही मिली है और अब केवल 5 साल बाकी हैं। यह कैसे पूरे होंगे, इस पर बड़ा प्रश्न चिन्ह है। समझौते का असर तो है, पर समग्रता की ओर आगे नहीं बढ़ रहे हैं। हमें अभी बहुत कदम बढ़ाने हैं। इजिप्ट कोप में जल की बात फिर जोरों से उठाई गई।
अब भारत और कोरिया की ओर से संस्कृति और प्रकृति के बीच बढ़ती दूरी का नया सवाल भी प्रमुखता से उठ रहा है। 10 नवंबर 2025 को बेलेम की सड़कों पर हमने इसे पूरी ताकत से उठाया था। पूरी उम्मीद और विश्वास है कि 20 नवंबर 2025 तक कोप-30 अपने अंतिम समझौते में संस्कृति और सस्टेनेबिलिटी को जोड़कर घोषणा कर देगा। यही कोप-30 को अब तक के सभी कोप से अलग और ऐतिहासिक बनाएगा।
*लेखक विख्यात जल संरक्षक हैं।
