क्रेडिट: किआरा वर्थ | यू एन क्लाइमेट चेंज
– डॉ राजेंद्र सिंह*
प्रकृति-संस्कृति योग ही सनातन सस्टेनेबिलिटी है
कोप30, बेलेम से 4ः30 घंटे की हवाई यात्रा करके मैं साओपाउलो पहुँचा। साओ पाउलो, ब्राजील का सबसे बड़ा औद्योगिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शहर है। यहाँ के सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार ऐलन एयरपोर्ट पर मुझे मिलने आए। यहाँ डिनर पर संवाद हुआ। इस दौरान ऐलन ने सवाल पूछा कि प्रकृति, सस्टेनेबिलिटी और संस्कृति का योग क्या है? कैसे प्रकृति को जानने वाले लोग संस्कृति को समझ सकते हैं और संस्कृति वाले लोग प्रकृति को समझ सकते हैं? और इन दोनों का योग सस्टेनेबिलिटी कैसे बनाता है?
मैंने कहा कि जब व्यक्ति को अपनी प्रकृति-वृत्ति की पहचान होती है, तब वह जिस प्रकृति ने उसे बनाया है, उस प्रकृति को जानने की कोशिश करने लगता है। वह प्रकृति तो पंचमहाभूत है, जिससे सृष्टि का निर्माण हुआ है। इसका निर्माण करने वाले को ही भगवान कहते हैं। भगवान शब्द भारतीय भाषाओं में पंचमहाभूतों के प्रथम अक्षर के योग से बना है। इसी को विज्ञान में बहुत टुकड़ों में तोड़कर देखा जाता है। अणु, परमाणु, साइंस और नैनो टेक्नोलॉजी से भी नीचे जाकर विखंडित करके ही इसको देखने-समझने की कोशिश की गई है, लेकिन जो प्रकृति के योग को संस्कृति के साथ जोड़कर देखते हैं, उन्हें अपने ज्ञान की गहराई में अपनी प्रकृति से पूरी मानवीय संस्कृति के संदर्भ में उसको जानने हेतु विखंडित करके देखने की इच्छा नहीं होती। तभी वह अपनी प्रकृति में संस्कृति को जानने लगता है, तब उसे जीवन-विद्या प्राप्त होती है। इसलिए जीवन की विद्या प्रकृति और संस्कृति के योग से ही समझ में आती है। यह विद्या ही हम भारतीयों को सनातनता के रास्ते पर लेकर जाती है। इसी प्रक्रिया को हम अपनी सस्टेनेबिलिटी कह सकते हैं। यह प्राकृतिक अनुकूलन द्वारा ही जानी व बनाई जाती है।
सनातन का अर्थ होता है – सदैव, नित्य, नूतन निर्माण। हमारे शास्त्रों में इसे “चरैवेति-चरैवेति आदि अनंतः” कहा गया है – जो सदैव चलता रहता है, न उसका आदि है और न ही अंत, वही सनातन है। सनातन में वो लोग विश्वास रखते हैं जो अपने स्वयं के पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। भारतवासियों का पुनर्जन्म में गहन और गहरा विश्वास है, इसलिए ये सब सनातनी हैं। सनातन को आजकल की भाषा में यदि समझना हो तो सस्टेनेबिलिटी शब्द में उसका पर्याय देखा जा सकता है। सस्टेनेबिलिटी जो सदैव स्थायी रहती है, जो नष्ट नहीं होती। इस सस्टेनेबिलिटी को संस्कृति के योग में पहले “शुभ कर्म” कहते थे। वह कर्म कभी मरता नहीं। वह जो सदैव पुण्यकर्म की तरह चमकता रहता है। इसलिए हमारी संस्कृति में शुभ कर्म को ही पुण्य कर्म कहते हैं। यही संस्कृति और प्रकृति अनुकूलन का मूल आधार है।
शुभ कर्मों से सनातनता बनी रहती है और दुष्कर्मों के कारण सनातनता टिकी नहीं रहती। क्योंकि दुष्कर्म भौतिक लालच पर आधारित होते हैं और लालची कामों को हम विकास कहते हैं। भारतीय संस्कृति में विकास का अर्थ होता था कि एक स्थिति से अगली स्थिति में जाना। पहले यह चरण विनाशक, बिगाड़, विस्थापन वाले नहीं होते थे। इनसे मुक्त जो प्रक्रिया चलती थी, उसे भारतीय संस्कृति में विकास मानते थे। लेकिन दुनिया की संस्कृति में, खासकर पश्चिम की संस्कृति में, सुविधाओं, मानवीय लालच और भौतिक साधनों की बहु-वृद्धि को विकसित मान लिया गया। जैसे-जैसे मानव का लालच बढ़ा और जब लालच पूर्ति होने लगी तो उसी लालच पूर्ति को विकास मान लिया गया। यह सुख-सुविधाओं, शारीरिक भोग के लालच को पूरा करने वाला विकास बन गया। यह सांस्कृतिक विकास नहीं, केवल आर्थिक विकास है; जो बहुत विनाशक होता है। सांस्कृतिक-प्राकृतिक योग का विकास शुभ-सनातन ही होता है। इसलिए विकास की परिभाषा में जो अंतर है, वही हमारी प्रकृति और संस्कृति के योग की प्रक्रिया की शुरुआत का बिंदु है।
पश्चिम और उत्तर के देशों में विकास की परिभाषा को भौतिक और आर्थिक ढांचे के बढ़ने को विकास कहा गया है, जबकि भारतीय संस्कृति में प्रकृति और संस्कृति की समृद्धि को शुभ समृद्धि कहा है। यह शुभ की समृद्धि विकास से अलग होती है। समृद्धि में हमारी आत्मिक ज्ञान की भी समृद्धि होती है। जीवन को चलाने वाले सभी साधन समृद्ध होते रहते हैं। यह समृद्धि स्थायी आनंद प्राप्ति कराती है।
भौतिक और आर्थिक ढांचे का बढ़ना समृद्धि नहीं है, वह आज का विकास है। विकास और समृद्धि का अंतर यदि समझ लेंगे तो हमें संस्कृति और प्रकृति भी समझ में आ जाएगी। इनकी समझ का व्यवहार ही तो सस्टेनेबिलिटी की राह बनाता है।
प्रकृति-संस्कृति का योग शुभ सनातन है। यह बात उत्तर-पश्चिम के देशों को कभी समझ में नहीं आती, लेकिन पूर्व के देश, खासकर भारत, इसी बात का पक्षधर रहा है। इसी विश्वास के साथ भारत की सांस्कृतिक पल्लवित-पोषित होती रही है। लेकिन जैसे-जैसे भारत में उत्तर-पश्चिम के देशों की शिक्षा का व्यवहार बढ़ा, वैसे-वैसे ही यहाँ भी भारतीय जीवन-विद्या समाप्त होने लगी, इसकी समाप्ति प्रकृति-संस्कृति में विभेद होने के कारण शुरू हुई। इन दूरियों ने भारत की सनातनता को वैचारिक तौर पर ही कमजोर नहीं किया बल्कि व्यावहारिक और सांस्कृतिक तौर पर कमजोर बना दिया। यही प्राकृतिक अनुकूलन को समाप्त करने वाला बनकर जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक संकट का आधार बन गया है।
अब हम पुनः यह प्रयास कर रहे हैं कि प्रकृति-संस्कृति के ज्ञान की गहराई हमारे संस्कार और व्यवहार अनुकूलन बन जाए। इसलिए 15 और 16 नवंबर 2025 को इंसा, दिल्ली में दो दिन का गहन चिंतन-मंथन भी प्रकृति-संस्कृति योग से समृद्धि का डिज़ाइन बनाने हेतु आयोजित हुआ है। इसका उद्देश्य संस्कृति-प्रकृति के योग को पुनः स्थापित करने वाले मानचित्र को प्रमाणित किया जाए। भारत में इस प्रकार के तरुण भारत संघ के साथ-साथ और कई प्राकृतिक अनुकूलन के केंद्र हैं।
पिछले 50 वर्षों में इसी रास्ते पर काम किया है, लेकिन इस काम को भारत की भू-सांस्कृतिक विविधता में भारत की भौगोलिक इकाई की विभिन्नताओं, कृषि और जलवायु के बृहद क्षेत्रों में यह काम कैसे आगे बढ़े। इसके लिए देश के विद्वानों ने आगे बढ़ने का रास्ता खोजना शुरू किया है। इस हेतु ही कोप को बीच में छोड़कर भारत मुझे आना पड़ा है। यहाँ भी जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कई क्षेत्रों में शुरू होगा।
ब्राजील के ऐलन एवं और कई साथियों ने कहा कि हम भारत के इस प्रयास में जुड़ना चाहेंगे। वे स्वयं ब्राजील में 450 संगठनों के साथ काम करने के प्रयास कर रहे हैं। संस्कृति-प्रकृति की सस्टेनेबिलिटी को कायम करने की कोशिश कर रहे हैं।
मैंने भी अपने भारत के अनुभवों को इस कोप में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन-उन्मूलन का विषय रखा है। उसके अंदर भी सस्टेनेबिलिटी को ब्राजील के व्यवहार में लाना रहा लक्ष्य है। ब्राजील जब किसी चीज़ को उठा लेता है तो फिर गहराई से आगे बढ़ता है। जैसे भारत और ब्राजील ने मिलकर वर्ल्ड सोशल फोरम का काम शुरू किया था, अब उसी लेवल पर संस्कृति और सस्टेनेबिलिटी के लिए एक अभियान का विचार कर रहे हैं। यह एक बड़ा जन आंदोलन बनने की संभावना है।
हमने यह काम भारत में शुरू कर दिया है। इस वर्ष कोप30 में कोरिया, ब्राजील और भारत संस्कृति और प्रकृति को एक मुख्य मुद्दे बतौर आगे ला रहे हैं। इसके लिए सरकारें और समाज अपने-अपने रास्ते पर इसे आगे बढ़ा रहे हैं। आशा है कि यह कोप-30 का मुख्य एजेंडा बने और दुनिया प्रकृति-संस्कृति अनुकूलन को समझ कर इस काम को करे तो सस्टेनेबिलिटी का रास्ता मिल जाए। फिर जलवायु परिवर्तन अनुकूलन-उन्मूलन की प्रक्रिया स्वतः ही तेज हो जाए।
इस वर्ष के कोप30 का थीम जलवायु परिवर्तन अनुकूलन है। अनुकूलन तो व्यवहार में बदलाव से ही संभव है। यह व्यवहार हमारी संस्कृति और प्रकृति के योग से ही जीवन-विद्या बनकर बदलेगा। यही अनुकूलन की एकमात्र युक्ति है। इसी को साकार रूप दिखाने-समझाने हेतु तरुण भारत संघ के 50 वर्षों के अनुभव कोप-30 में 5 स्थानों पर साझा किए हैं। यह यात्रा भारत-ब्राजील संबंधों को गहरे और प्रकृति-संस्कृति योग में साथ-साथ चलाने हेतु तैयार करने वाली सिद्ध होगी।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक
