नए रोगों का खतरा और वैश्विक तैयारी
दुनियाभर में सेहत को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं, क्योंकि ब्लैक फंगस और जूनोसिस यानि जूनोटिक रोग जैसे नए खतरे उभर रहे हैं। ब्लैक फंगस, जिसे वैज्ञानिक भाषा में एस्परजिलस फ्यूमिगेटस कहते हैं, एक घातक कवक है जो हर साल करीब 100 करोड़ लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है। यह गर्म और नम वातावरण में तेजी से पनपता है और 37 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी जीवित रह सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के एक अध्ययन ने चेतावनी दी है कि अगर समय पर कदम नहीं उठाए गए, तो यह फंगस लाखों लोगों की जान ले सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसे गंभीर खतरा मानते हुए 2022 में अपनी पहली फंगल प्रायोरिटी पैथोजन्स लिस्ट में शामिल किया, जिसमें इस फंगस की दवा-प्रतिरोधी प्रजातियों पर ध्यान देने की जरूरत बताई गई है।
यह खतरा उन लोगों के लिए सबसे ज्यादा है जिनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर है। अस्थमा, कैंसर, एचआईवी, अंग प्रत्यारोपण वाले मरीज, बुजुर्ग और लंबे समय से बीमार लोग इसके आसान शिकार हैं। धूल भरे इलाकों में रहने वाले भी जोखिम में हैं। यूरोप में ही 90 लाख लोग इससे संक्रमित हो सकते हैं। इस फंगस की ताकत का अंदाजा इस बात से लगता है कि यह चेर्नोबिल जैसे रेडिएशन प्रभावित क्षेत्रों में भी जीवित रह सकता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, स्वास्थ्य प्रणालियों को इससे निपटने के लिए प्रयोगशाला क्षमताओं को बढ़ाना होगा, ताकि तेजी से निदान और दवा-प्रतिरोध का पता लगाया जा सके। साथ ही, नए एंटीफंगल दवाओं और निदान उपकरणों के लिए शोध में निवेश जरूरी है। बढ़ता तापमान और जीवाश्म ईंधनों का उपयोग इसे और खतरनाक बना रहा है, जिससे यह 2100 तक दुनिया के 77 प्रतिशत नए इलाकों में फैल सकता है।
इस पर्यावरणीय बदलाव का असर सिर्फ ब्लैक फंगस तक सीमित नहीं है। दुनिया की 44 प्रतिशत आबादी, यानी करीब 3.5 अरब लोग, जूनोटिक रोगों के खतरे में हैं। ये रोग जानवरों से इंसानों में फैलते हैं, जैसे कि चमगादड़ से फैला एम्पॉक्स वायरस, जो हाल ही में दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और कांगो में देखा गया। डब्ल्यूएचओ की वन हेल्थ पहल इस खतरे से निपटने के लिए मानव, पशु और पर्यावरण के बीच सहयोग को बढ़ावा देती है। ये रोग जानवरों की लार, खून, मूत्र या अन्य शारीरिक तरल पदार्थों से फैल सकते हैं। खाद्य, जल या वेक्टर जनित रास्तों से भी इनका प्रसार होता है। भारत, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया की 10 प्रतिशत आबादी पर यह खतरा सबसे ज्यादा मंडरा रहा है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि एकीकृत निगरानी प्रणाली विकसित की जा रही है, जो जोखिमों की जल्दी पहचान के लिए मानव, पशु और पर्यावरण डेटा को साझा करता है।
इन रोगों का बढ़ना मानवीय गतिविधियों से जुड़ा है। शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में अतिक्रमण ने इस संकट को गहरा किया है। येल स्कूल ऑफ दि एनवायरनमेंट की एक रिपोर्ट बताती है कि जहां इंसान और वन्य जीवों का संपर्क ज्यादा है, वहां जूनोटिक रोग तेजी से फैलते हैं। गाय, भैंस, बकरी और कुत्तों जैसे पालतू जानवरों से इंसेफेलाइटिस जैसी गंभीर बीमारियां हो सकती हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अध्ययन में 2018 से 2023 के बीच 6,948 संक्रामक मामलों में से 583 जूनोटिक पाए गए, खासकर जून, जुलाई और अगस्त में। डब्ल्यूएचओ की सलाह है कि खेती, पशुपालन और वन्य जीव व्यापार जैसे कारणों पर ध्यान देकर रोकथाम की जाए। इसके लिए स्थानीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर प्रशिक्षण और आपातकालीन समन्वय को बढ़ावा दिया जा रहा है।
इन खतरों का एक और चिंताजनक पहलू है एंटीबायोटिक्स का घटता असर। 2022 में, 30 लाख बच्चे केवल इसलिए मृत्यु के शिकार हुए क्योंकि एंटीबायोटिक्स ने काम नहीं किया। ऑस्ट्रिया के एक अध्ययन ने इसकी पुष्टि की। जलवायु परिवर्तन से बढ़ते तापमान, बारिश और पानी की कमी जैसे कारक इन रोगों को और बढ़ावा दे रहे हैं। एशिया में सात प्रतिशत और अफ्रीका में पांच प्रतिशत इलाके उच्च जोखिम में हैं। डब्ल्यूएचओ और क्वाड्रिपार्टाइट संगठन (एफएओ, यूएनईपी, डब्ल्यूओएएच) मिलकर एक संयुक्त कार्य योजना लागू कर रहे हैं, जिसमें देशों को बुनियादी ढांचा, धन और मजबूत स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए सहायता दी जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु अनुकूलन और निगरानी को सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाओं में शामिल करना जरूरी है। अगर अभी कदम नहीं उठाए गए, तो ये खतरे और भयावह हो सकते हैं।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
