6 और 12 नवंबर 2022 को आये भूकंप के पांच झटकों ने संकेत दे दिया है कि हिमालय के संवेदनशील पर्वत बाढ़ और भूस्खलन के लिए बहुत ही संवेदनशील हैं। भविष्य में यहां फिर तबाही भयावह रूप धारण कर सकती है।
पिछले 32 वर्षों के दौरान उत्तराखंड और नेपाल में आए भूकंपों ने हजारों लोगों की जान ले ली है। उसके बाद देखा गया है कि पर्वतीय क्षेत्रों में बाढ़ एवं भूस्खलन ने बहुत तबाही मचाई है, कह सकते हैं कि पूरा हिमालय क्षेत्र आपदाओं का घर बन गया है। हर वर्ष अपार जनधन की हानि हो रही है।
इसके बावजूद भी कोई सबक न लेकर हिमालय के विकास के स्थिर मॉडल के विषय पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया है। सर्वविदित है कि भूकंप आते रहते हैं। यह ऐसी प्रक्रिया नहीं कि एक बार भूकंप आ गया तो उसके बाद शायद वह कभी नहीं आयेंगे। इसलिए कोई भी भूकंप अंतिम नहीं है और न ही वह अंतिम हो सकता है। यह प्रक्रिया तो निरंतर जारी रह सकती है। इसको समझने के लिए हमें ढालदार व ऊंचे पर्वतों वाले हिमालय के दो ढाल उत्तरी और दक्षिणी को समझना होगा।
दक्षिणी ढाल में नेपाल, भूटान और भारत हैं जबकि मध्य हिमालय (उत्तराखंड) दक्षिण ढाल पर है। हिमालय की 3 पर्वत शृंखलाएं हैं जिसमें शिवालिक, लघु हिमालय और ग्रेट हिमालय हैं जो भूकंप के लिए अति संवेदनशील क्षेत्र में आती हैं।
उत्तराखंड में आए 1991 के भूकंप के बाद वैज्ञानिकों के सर्वेक्षणों से पता चला है कि यमुना के उद्गम स्थल बंदरपूंछ से लेकर गंगोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ से पिथौरागढ़ और नेपाल तक की पहाड़ियों पर दरारें पड़ी हुई हैं जो लगातार आ रहे भूकंप के कारण चौड़ी होती जा रही हैं।
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बार-बार भूकंप आने से कुछ दरारें आपस में पट जाती है और कुछ अधिक चौड़ी हो जाती है जिसमें बरसात के समय पानी भरने से जगह-जगह भूस्खलन पैदा होता है। इसके कारण हिमालय के लोग हर साल अपनी आजीविका के संसाधनों की लगातार कमी महसूस कर रहे हैं और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है और उत्तराखंड वासी मानवीय त्रासदी झेल रहे हैं। ऐसा लगता है कि वह उनकी नियति बन चुकी है।
बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के बाद लोग गरीब हो जाते हैं। उनके आय के साधन आपदा में बह जाते हैं। मुआवजे के नाम पर उन्हें पर्याप्त सहायता तक नहीं मिलती है जिससे कि वह दोबारा अपने को पूर्व की स्थिति में खड़ा नहीं कर पाते हैं। अतः इस बात पर ध्यान देना बेहद आवश्यक है कि भूकंप से कांप रही हिमालय की धरती में लगातार दरारें चौड़ी होती जा रही हैं। इससे बरसात में भूस्खलन का खतरा बहुत अधिक बढ़ जाता है। जहां तक बाढ़, भूकंप और भूस्खलन का सवाल है इसके लिए भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पूरे हिमालय क्षेत्र को जोन 4 और 5 में रखा है। इसके बावजूद भी चिंता है कि ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में कहीं भी भूकंप का सामना करने और बाढ़ नियंत्रण के ऐसे उपाय निर्माण कार्यों के दौरान नहीं देखे जाते हैं जिससे आपदा के समय बचा जा सके।
भूकंप का खतरा हिमालय में इसलिए भी अधिक है क्योंकि शेष भू-भाग हिमालय को 5 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से उत्तर की तरफ धकेल रहा है। इसका अर्थ है कि हिमालय क्षेत्र गतिमान है और यहां भूगर्भिक हलचल होती रहेगी। इसलिए भूकंप के बाद भूस्खलन स्वाभाविक घटना बन जाती है। लेकिन भूकंप की लगातार बढ़ती तीव्रता को ध्यान में नहीं रखेंगे तो हिमालय की खूबसूरती बिगड़ सकती है। क्योंकि हिमालयी राज्यों में अधिकतर निर्माण कार्य इन्हीं दरारों के आसपास हो रहे हैं और यहां की धरती में लगभग 15 किमी नीचे अनेकों भ्रंश सक्रिय हैं जो भूकंप की गतिशीलता को बढ़ाते रहते हैं।
हिमालय की छोटी एवं संकरी भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज करके सुरंग आधारित परियोजनाएं, बहुत चौड़ी सड़कें, बहुमंजिला इमारतों का निर्माण, वनों का व्यावसायिक कटान करने से बाढ़ एवं भूस्खलन के खतरे और अधिक बढ़ रहे हैं। इस तरह के निर्माण कार्य भूकंप की दरार वाले इलाकों में अधिक हो रहे हैं। यह विकास नहीं विनाश का परिचायक है। लंबी-लंबी सुरंगों को बनाने के लिए विस्फोटों का इस्तेमाल हो रहा है। नदियों के किनारे अधिकतर घर, होटल और शहर बन रहे हैं। इसलिए बरसात के समय नदियों में आने वाली बाढ़ के लिए पर्याप्त स्थान न मिलने के कारण यहां पर बेतरतीब ढंग से खड़े किए गए घरों को ही अधिक नुकसान पहुंचता है। अतः दरार वाले इलाकों में बड़े निर्माण कार्य करना एक तरह से भूस्खलन को न्योता देने जैसा ही है।
हर निर्माण कार्य में जल निकासी का रास्ता अवरुद्ध नहीं किया जाना चाहिए। जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी जगह-जगह भूकंप की दरारें हैं लेकिन वहां सड़क मार्ग की ऐसी तकनीक है कि निर्माण के दौरान जल निकासी का पूरा ध्यान रखा जाता है जिसके कारण वहां बरसात के समय सड़कें स्थिर रहती हैं। जबकि हिमालय क्षेत्र में निर्माण कार्यों के कारण ही जल निकासी अवरुद्ध हो रही है और जो मलवा निर्माण कार्यों से निकल रहा है वह सारा का सारा जल संरचनाओं के ऊपर उड़ेला जा रहा है। नदियों के अविरल बहाव को जगह-जगह रोकने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं स्वीकृत की जा रही हैं।
हमारे सामने उदाहरण है कि एशिया का सबसे बड़ा टिहरी बांध भी भूकंप की दरारों के ऊपर खड़ा है। भारत और नेपाल के बीच में प्रस्तावित पंचेश्वर बांध भी भूकंपीय क्षेत्र में बन रहा है। उत्तर भारत की सभी नदियों के उद्गम भूकंप से प्रभावित हैं। इसके निकट जितनी भी सुरंग आधारित परियोजनाएं निर्मित एवं निर्माणाधीन हैं वह सभी भविष्य में बड़ी आपदा को न्योता दे रही हैं। जबकि छोटी-छोटी सिंचाई नहरों से लघु पन बिजली बनाई जा सकती हैं।
इन महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान न देकर हिमालय सरंक्षण के लिए हर रोज प्रतिज्ञा करने वाले योजनाकारों ने ऐसे विकास कार्यों को तवज्जो दे दी है, जिसमें विनाश के रास्ते साफ तौर पर देखे जा रहे हैं।
भारत के 18 राज्य हिमालय की नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में पड़ते हैं। यहां 64 प्रतिशत खेती हिमालयी नदियों से सिंचित होती है। हिमालय के जलस्रोत न हों तो भारत की आधी आबादी के समक्ष पीने के पानी का संकट खड़ा हो जाएगा।
पर्वतराज कहे जाने वाले हिमालय को केवल शब्दों में महिमा मंडित करने की इतनी जरूरत नहीं है, जितनी कि हिमालय में भूकंप के कारण जो स्थिति पैदा हो रही है, उसके अनुकूल विकास योजनाओं पर ध्यान देने की अधिक जरूरत है। ऐसी गतिविधि को अनुमति न दी जाए जिससे हिमालय की सेहत पर गलत प्रभाव पड़ता हो।
इस विषय को जलवायु परिवर्तन के हिसाब से नहीं देख सकते हैं। इसका संबंध सीधे धरती के अंदर हजारों वर्षों से पैदा हो रही हलचल के कारण हैं। जिससे बचने का एक ही उपाय है कि मनुष्य अपनी दिनचर्या की चीजों को इतनी मजबूती से विकसित करे कि वह भूकंप के झटकों के बाद भी जिस जगह पर वह रहता है वहां पर अपने को बचा सके। पहले लोग भूकंप से बचने के लिए अपने घरों का निर्माण करते समय दीवारों को चारों ओर बांधने के लिए लकड़ी के स्लीपरों से जोड़ देते थे। अब भवन निर्माण की इस पारंपरिक शैली को ध्वस्त करके सीमेंट और आरसीसी की दीवारों को महत्व दिया गया है जो पूरी तरह भूकंप रोधी नहीं बन सकी हैं। इसलिए समय रहते हिमालय की कांपती धरती के संदेश को सुनकर लापरवाही नहीं बरती जा सकती है।इस ओर ध्यान दिया जाना समय की मांग है।
*लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं हिमालयी अध्ययन शिक्षण संस्थान, उत्तरकाशी, उत्तराखंड के अध्यक्ष हैं।