– डॉ राजेन्द्र सिंह*
संस्कृति–प्रकृति के संगम से पुनर्जनन विकास की पहल
भारत की विकास दृष्टि को नए सिरे से परिभाषित करने की पहल शुरू हुई है, जो पारंपरिक विकास मॉडल से हटकर ‘पुनर्जनन विकास’ की अवधारणा को आगे बढ़ाती है। यह प्रयास कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं, चिंतकों और पर्यावरणविदों की पहल है, जो यह मानते हैं कि अब विकास को केवल आर्थिक वृद्धि या संरचनात्मक निर्माण से नहीं, बल्कि प्रकृति और संस्कृति के योग से जोड़कर देखा जाना चाहिए। यह ऐसा विकास मॉडल है जो विस्थापन, विनाश और असंतुलन से मुक्त होकर समरस, संतुलित और आत्मनिर्भर समाज की कल्पना करता है।
अब तक “विकास” का अर्थ केवल संरचनाओं के निर्माण और आर्थिक वृद्धि से जोड़ा गया था। इस पारंपरिक विकास ने भले ही भौतिक प्रगति दी हो, परंतु इसके कारण समाज, संस्कृति और प्रकृति में गंभीर असंतुलन और विस्थापन उत्पन्न हुआ। नदियाँ प्रदूषित हुईं, पहाड़ और जंगल दोहन की शिकार हुए, और मनुष्य का अपनी भूमि, जल और परिवेश से आत्मीय रिश्ता टूटता गया। इसलिए इस नई सोच का आग्रह है कि “विकास” को अब “पुनर्जनन प्रक्रिया” के रूप में देखा जाए — ऐसी प्रक्रिया जो प्रकृति की चक्रात्मकता, संतुलन और पुनर्जीवन क्षमता को केंद्र में रखे।
भारतीय सभ्यता का मूल दर्शन सदैव “प्रकृति और संस्कृति की एकात्मता” पर आधारित रहा है। प्राचीन भारत में यही समरसता देश की समृद्धि का आधार थी, जब भारत विश्व की 32 प्रतिशत वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हिस्से के साथ “सोने की चिड़िया” कहलाता था। यह सोच कहती है कि भारत को पुनः समृद्ध बनाने के लिए उसी संस्कृति–प्रकृति के योग पर आधारित विकास मानचित्र की आवश्यकता है।
वर्तमान प्रशासनिक ढाँचा केवल राजनीतिक सीमाओं पर आधारित है, जबकि भारत की असली पहचान उसकी “भू-सांस्कृतिक विविधता” में निहित है। इस विविधता को समझने के लिए “भारत का भू-सांस्कृतिक मानचित्र” तैयार किया गया है, जो देश को 50 भौतिक–प्राकृतिक क्षेत्रों और 86 भू-सांस्कृतिक क्षेत्रों में विभाजित करता है। यह मानचित्र केवल भौगोलिक दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह जलवायु, मिट्टी, जलस्रोत, खेती, आहार-विहार, व्यवहार और सांस्कृतिक परंपराओं को एक साथ जोड़ता है, ताकि प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट पहचान और पारिस्थितिकीय संतुलन संरक्षित रहे।
दिल्ली इसका एक जीवंत उदाहरण है। राजधानी दो भू-सांस्कृतिक क्षेत्रों से मिलकर बनी है — “इन्द्रप्रस्थ क्षेत्र (यमुना का मैदान)” और “खाण्डवप्रस्थ क्षेत्र (अरावली की पहाड़ियाँ)”। किंतु आज दिल्ली को केवल नौ प्रशासनिक जिलों में बाँटकर देखा जाता है। इस प्रशासनिक विभाजन के कारण नागरिकों और सरकार दोनों का अपनी भूमि से आत्मीय रिश्ता कमजोर हुआ है। यमुना का प्रदूषण और अरावली के अंधाधुंध दोहन का मूल कारण भी यही “भू-सांस्कृतिक विस्मरण” बताया जा रहा है।
भारत के 15 कृषि–जलवायु क्षेत्र भी इस सोच के केंद्र में रखे गए हैं —उत्तर–पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्र, उत्तर–पूर्वी पहाड़ी क्षेत्र, सतलुज–यमुना मैदान क्षेत्र, ऊपरी गंगा मैदानी क्षेत्र, मध्य गंगा मैदानी क्षेत्र, निचला गंगा मैदानी क्षेत्र, दक्षिण–पूर्वी पठारी क्षेत्र, अरावली–मालवा ऊपरी क्षेत्र, महाराष्ट्र पठारी क्षेत्र, डेक्कन आंतरिक क्षेत्र, पूर्वी समुद्री क्षेत्र, पश्चिमी समुद्री क्षेत्र, गुजरात क्षेत्र, पश्चिमी राजस्थान क्षेत्र, और अंडमान–निकोबार द्वीपसमूह क्षेत्र।
इन सभी क्षेत्रों में स्थानीय भौगोलिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विशेषताएँ हैं, जिन्हें यह मानचित्र दर्शाता है। यही वह आधार है जिस पर “पुनर्जनन विकास” की अवधारणा खड़ी की जा रही है — ऐसा विकास जो स्थानीयता, प्रकृति और संस्कृति के समन्वय से उत्पन्न हो।
अब यह मानचित्र जनसहभागिता के लिए जारी किया जा रहा है। प्रत्येक नागरिक से अनुरोध किया गया है कि वह यह पहचानें कि वह किस भू-सांस्कृतिक क्षेत्र में रहता है और उस क्षेत्र की प्रकृति, खेती, संस्कृति, आहार, जलवायु आदि पर अपने अनुभव साझा करे। इस नागरिक सहभागिता से उत्पन्न संवाद “भू-सांस्कृतिक क्रांति” का स्वरूप ले सकता है — ऐसी क्रांति जो भारत की संवैधानिक चेतना से जुड़कर “स्वदेशी और आत्मनिर्भर आज़ादी” की नई दिशा में कदम बढ़ाएगी।
यह पहल इस विचार को बल देती है कि जब भारत अपनी प्रकृति और संस्कृति के योग को समझेगा, तभी केवल “विकास” नहीं बल्कि “पुनर्जीवन” की प्रक्रिया आरंभ होगी। यही प्रक्रिया एक सतत्, संवेदनशील और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण करेगी — ऐसा भारत जहाँ हर नागरिक अपनी भूमि, जल, और संस्कृति से आत्मीय संबंध रखेगा।
“भारत का भू-सांस्कृतिक मानचित्र” न केवल एक भौगोलिक दस्तावेज़ है, बल्कि भारत की आत्मा — उसकी धरती, जल, संस्कृति और चेतना — का जीवंत प्रतिबिंब है। यही भारत की पुनर्जनन प्रक्रिया का आधार बनेगा।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक
