सारे अध्ययनों और शोधों के विपरीत केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण देश के 52 फीसदी हिस्से में सात हजार कुंओं के विश्लेषण के आधार पर भूजल स्तर के बढ़ने और देश की राजधानी दिल्ली में भूजल दोहन में सबसे अधिक कमी होने का दावा कर रहा है। यह विरोधाभास तब है जबकि जल शक्ति मंत्रालय द्वारा संसद में एक सवाल के जबाव में खुलासा किया गया है कि दिल्ली में भूजल निकासी की दर 99.13 फीसदी है जबकि बेंगलुरू की स्थिति और भी चिंताजनक है जहां भूजल निकासी की दर 150.84 फीसदी है। हरियाणा के 141 विकास खण्डों में से 85 भूजल के अत्याधिक दोहन के चलते गंभीर स्थिति में हैं। यह हिस्सा राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 60 फीसदी है। इससे राज्य की भूजल संकट की स्थिति का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। गौरतलब यह है कि देश में भूजल निकासी का औसत 63 फीसदी है जबकि हरियाणा में भूजल निकासी 137 फीसदी से भी अधिक है। देश के सबसे बडे़ राज्य उत्तर प्रदेश में भूगर्भ जल विभाग ने दस महानगरों को अति दोहित की श्रेणी में रखा है और जल के दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए नियमावली भी बनाई है। इसमें जुर्माना और कारावास दोनों का प्रावधान है। इसका पालन करने के लिए सख्ती जरूरी है लेकिन यह नियमावली मात्र खानापूरी की तरह ही रह गयी है। यहां के गाजियाबाद जिले को तो रैड जोन घोषित किया गया है।
असलियत में सिंचाई में उपयोग हेतु न माने जाने वाले भूजल का प्रतिशत एक साल में 7.69 से बढ़कर 8.07 तक बढ़ गया है। इससे साफ हो जाता है कि पानी मे लवणों की मौजूदगी लगातार बढ़ते जाने में नाकामी ही मिल रही है। यही नहीं जमीन पर सोडियम की परत जमना भी अच्छा संकेत नहीं है। इस हेतु प्रभावित क्षेत्रों में जहां सोडियम की मात्रा सीमा से अधिक है, वहां विशेष रूप से सोडियम की मौजूदगी के खात्मे के लिए अभियान चलाने की बेहद जरूरत है। इसके साथ उन क्षेत्रों की प्रभावी निगरानी भी जरूरी है। गौरतलब है कि देश में भूजल की गुणवत्ता में तेजी से आ रही गिरावट के लिए उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल के उपचार की व्यवस्था न हो पाना, खेती में ज्यादा से ज्यादा उपज पाने की चाहत के चलते अंधाधुंध उर्वरकों का इस्तेमाल, बेतहाशा बढ़ रहा शहरीकरण, सीवेज लीकेज, घरेलू कचरा और कूडे़-कचरे के पहाड़ मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। इन पर अंकुश लगाये बिना भूजल की गुणवत्ता हासिल कर पाना टेड़ी खीर है।
वर्तमान में भूजल स्तर में तेजी से बढ़ रही गिरावट और भूजल की गुणवत्ता जहां एक भयावह खतरे का संकेत है, वहीं पीने के साफ पानी की कमी के भीषण संकट की चेतावनी भी है। जाहिर है इससे भविष्य में काफी परेशानियों से देश की जनता को दो-चार होना पडे़गा।
1960 के बाद से पानी की मांग दोगुनी से भी अधिक हो गयी है जो 2050 तक 25 फीसदी और बढ़ जायेगी।भूजल दोहन के मामले में हमारा देश शीर्ष पर है। देश का उत्तरी गांगेय इलाका तो भूजल दोहन के मामले में देश के दूसरे इलाकों के मुकाबले कीर्तिमान बना चुका है। इसे यदि यूं कहें कि यहां भूजल खत्म होने के कगार पर है, तो कुछ भी गलत नहीं होगा।
भूजल का बढ़ता संकट उसके स्तर के भयावह स्तर तक गिरने का अहम कारण उसका बेतहाशा दोहन है जिसके चलते जमीन की भीतरी परत यानी नीचे जमीन में जहां पानी इकट्ठा होता है, वह दिनोंदिन तेजी से सिकुड़ रही है, नतीजतन जमीन के धंसने का खतरा भी तेजी से बढ़ रहा है। इससे जमीन की भीतरी परत जिसे एक्यूफायर कहते हैं, की जलधारण क्षमता खत्म हो जाती है।
देश की राजधानी सहित उसके समीपस्थ कई शहरों का डार्क जोन में आना और दिल्ली एनसीआर में गंभीर पानी का संकट इसका जीता जागता सबूत है। यही वह अहम कारण है कि इस इलाके की जमीन की सतह का आकार दिनोंदिन तेजी से बदल रहा है। यहां की जमीन भी तेजी से धंसने लगी है। दरअसल जमीन धंसने का सिलसिला केवल एनसीआर में ही जारी नहीं है बल्कि इसके चंगुल में उत्तर से पूर्व में पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक और पश्चिम में गुजरात तक का क्षेत्र है जहां आये-दिन जमीन धंसने के समाचार मिलते रहते हैं। पंजाब के 23 जिलों में भूजल की स्थिति सबसे ज्यादा गंभीर है। दर असल पंजाब की 94 फीसदी आबादी पीने के पानी के लिए भूजल पर ही निर्भर है। भूजल में बढ़ते प्रदूषण का परिणाम है जिसके कारण यहां के लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और वे गंभीर जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।
भारत में संभावित भूजल भंडार 432 लाख हैक्टर मीटर और दोहन योग्य सकल भूजल की मात्रा 396 लाख हैक्टर मीटर है। इस विशाल मात्रा का विकास , बरसाती पानी के, भूजल सहेजने वाली परतों यानी एक्वीफायर में रिसने के कारण होता है। यही पानी, प्राकृतिक जल चक्र का अभिन्न अंग है। यह नदियों के ढाल के सहारे मंदगति से चलकर नदियों को मिलता है। गर्मी के मौसम के आखिरी दिनों में उसके भंडार अपने न्यूनतम स्तर पर होते हैं। बारिश के दिनों में हर साल यह पुनर्जीवित होता है। वह साल भर धरती की उथली परतों में जमा घुलन शील रसायनों को हटाने का काम करता है। वह नदी की रेत की मदद से नदियों के प्रवाह को सहारा तथा बाढ़ को नियंत्रित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। अतः भूजल का दोहन, उसकी प्राकृतिक भूमिका यानी अविरल प्रवाह तथा अवांछित घटकों के सुरक्षित निष्पादन को समझकर करना बेहद जरूरी है। असलियत में यही उसका निरापद प्रबंध है। लेकिन विडम्बना है कि हमारे देश में इस बाबत ऐसा कुछ नहीं हो रहा जिस पर गर्व किया जा सके।
पिछले दो दशकों में अच्छे मानसून के अभाव में सिंचाई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूजल का अत्याधिक उपयोग हुआ है जिससे जहां भूजल की मांग बढी़, वहीं भूजल की गुणवत्ता लगातार खराब होती चली गयी। नतीजतन यहां के भूजल में भारी धातुओं और रेडियो एक्टिव पदार्थों की मौजूदगी में तेजी से इजाफा हुआ। अध्ययनों से साबित हो चुका है कि सूखे और भारी बारिश सहित चरम मौसम की घटनाओं से मिट्टी में उर्वरकों से नाइट्रेट के नीचे तक पहुँचने से भूजल के तेजी से प्रदूषित होने का खतरा बढ़ रहा है। कारण सब्जियों में इस्तेमाल किए जाने वाले नाइट्रोजन उर्वरकों का लगभग 40 फीसदी पौधों द्वारा अवशोषित नहीं किया जाता है बल्कि वह मिट्टी में ही रह जाता है। इस बारे में शोधकर्ता वैज्ञानिकों का कहना है कि सूखे के दौरान फसलें नाइट्रोजन का सफलतापूर्वक इस्तेमाल नहीं करती हैं। परिणाम स्वरूप मिट्टी में नाइट्रोजन की अधिकता हो जाती है। कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक और शोधकर्ता प्रोफेसर आसिया किसेका का कहना है कि हमारा पारंपरिक ज्ञान कहता है कि फसल की जड़ों से नाइट्रेट को भूजल तक पहुंचने में कई हफ्ते से लेकर कई साल लग जाते थे लेकिन मौसमी चरम घटनायें और कृषि में उर्वरकों के अत्याधिक उपयोग के कारण नाइट्रेट की वजह से भूजल के अधिकतम स्तर तक प्रदूषित होने का स्तर निर्धारित सीमा को पास कर गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार फसल की कटाई के बाद बचे हुए नाइट्रेट को सीमित करने के उपयोग के जरिये किसानों को भूजल के दूषित होने को कम करने में कामयाबी मिल सकती है। इस दिशा में किसानों को उर्वरकों के उपयोग को कुशलतापूर्वक नियंत्रित करने में किफायती उपकरण मदद कर सकते हैं।
आर्सेनिक, नाइट्रेट, सोडियम, यूरेनियम, फ्लोराइड आदि की अधिकता के कारण भूजल की खराब गुणवत्ता की चिंता केवल पीने के साफ पानी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ये सिंचाई के लिए भी नुकसानदेह साबित हो रही है। आंध्र, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और उत्तर प्रदेश के भूजल के 12.5 फीसदी नमूने उच्च सोडियम की मौजूदगी के कारण सिंचाई के लिए अनुकूल नहीं पाये गये हैं। सोडियम का यह स्तर पानी को सिंचाई के लिए अनुपयुक्त बना देता है। देश के 440 जिलों के भूजल में बढा़ नाइट्रेट का स्तर गंभीर स्वास्थ्य समस्या पैदा कर रहा है। सीजीडब्लयूबी की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है।
पानी में नाइट्रेट प्रदूषण मुख्यतः नाइट्रोजन आधारित उर्वरकों और पशु अपशिष्ट के अनुचित निपटान के कारण होता है। रिपोर्ट की मानें तो पानी के 9.04 फीसदी नमूनों में फ्लोराइड का स्तर सुरक्षित सीमा से अधिक और 3.55 फीसदी आर्सेनिक की मौजूदगी पायी गयी। राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु में 40 फीसदी से ज्यादा नमूने सुरक्षित सीमा से अधिक पाये गये। महाराष्ट्र में पानी में नाइट्रेट का स्तर 35.74 फीसदी, तेलंगाना में 27.48 फीसदी, आंध्र में 23.5 फीसदी और मध्य प्रदेश में 22.58 फीसदी से भी ज्यादा उच्च स्तर तक दर्ज किया गया है। जबकि उत्तर प्रदेश, केरल, झारखंड और बिहार में पानी में नाइट्रेट का स्तर कम पाया गया है। जबकि हरियाणा, तमिलनाडु, आंध्र में यह स्तर लगातार बढ़ रहा है।
यह प्रदूषण पर्यावरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य दोनों के लिए भयावह स्तर तक हानिकारक है। इससे कैंसर, किडनी, हड्डियों और त्वचा की बीमारियों का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। नवजात शिशुः के लिए तो यह जानलेवा बन गया है। पीने के पानी में उच्च नाइट्रेट का स्तर नवजात शिशुओं में बेबी सिंड्रोम की वजह बन रहा है जिससे शिशु के खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम हो जाती है। कारण नाइट्रेट युक्त यह पानी पीने की दृष्टि से असुरक्षित होता है। इस मामले में देश के 15 जिले जैसे राजस्थान के बाढ़मेर, जोधपुर, महाराष्ट्र के वर्धा, जलगांव, बुलढाणा, अमरावती, नांदेड़, बीड़, यवतमाल, तेलंगाना के रंगारेड्डी, आदिलाबाद, सिद्दीपेट, तमिलनाडु के विल्लुपुरम, आंध्र के पालनाडु और पंजाब में बंठिंडा सर्वाधिक प्रभावित जिले हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गयी है कि इन जिलों में भूजल में उच्च नाइट्रेट का स्तर सर्वाधिक सिंचाई का नतीजा हो सकता है जो उर्वरकों से नाइट्रेट को मिट्टी में गहराई तक धकेल सकता है।
बीते एक दशक में हुए अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि हिमालय की तलहटी से लेकर गंगा के मैदानों के पूरे विस्तार तक भूमि के व्यापक हिस्से में भूजल की बडे़ पैमाने पर कमी हुयी है। वर्तमान में भूजल की कमी देश में सर्वत्र दिखाई देती है। वैज्ञानिक जलवायु में आ रहे बदलाव में भूजल दोहन की बडी़ भूमिका मानते है। ऐसे में भूजल प्रबंधन और भूजल उपयोग सम्बंधी रणनीतियों में व्यापक ध्यान दिए जाने की जरूरत है। क्योंकि ऐसी स्थिति में आबादी में बढो़तरी, बढ़ता शहरीकरण और समीपस्थ क्षेत्रों में कृषि भूमिपर गहन खेती के साथ ही लगातार भूजल की गिरावट हालात को और भयावह बना देगी।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।