गांधी जयंती पर विशेष: बापू ने हालात सुधार हेतु हिन्द स्वराज्य में चेतावनी दी थी
हिंद स्वराज्य: सभ्यता, जलवायु और सत्य की पुकार
महात्मा गांधी, जिन्हें हम बापू के नाम से जानते हैं, ने अपनी दूरदर्शिता से सवा सौ वर्ष पूर्व हिंद स्वराज्य में आधुनिक सभ्यता के खतरों की चेतावनी दी थी। उन्होंने हालात को सभ्यता कहा, जिसका अर्थ है वह जीवनशैली जो बाहरी खोजों, भौतिक सुखों और उपभोगवादी संस्कृति पर आधारित है। बापू ने लिखा, “सभ्यता की सही पहचान यह है कि लोग बाहरी दुनिया की खोजों और शारीरिक सुखों में धन्यता, सार्थकता और पुरुषार्थ मानते हैं।” इस कथन में उन्होंने उस सभ्यता की आलोचना की जो प्रकृति से कटकर केवल भौतिक प्रगति को ही सर्वोपरि मानती है। इसका तात्पर्य है कि 1909 में, जब बापू ने यह पुस्तक लिखी, तब उन्होंने सभ्यता के बदलते स्वरूप को गहराई से समझ लिया था। यह बदलाव एकाएक नहीं था, बल्कि इसके बीज 200 वर्ष पहले औद्योगिक क्रांति के साथ ही पड़ चुके थे। बापू ने टॉल्स्टॉय, रस्किन, थोरो, शराड, गारपेंटर, प्लेटो, मैक्स, नार्डो, नौरोजी और दत्त जैसे विचारकों के दर्शन को गहन अध्ययन के बाद हिंद स्वराज्य की रचना की। यह पुस्तक उनके अपने विचारों का सार है, जो इन विचारकों की मान्यताओं से प्रेरित होकर और भी समृद्ध हुआ। उन्होंने स्वयं कहा कि यह पुस्तक उनके विचारों के साथ-साथ इन दार्शनिकों की शिक्षाओं का समन्वय है, जो मानवता को प्रकृति और सादगी के साथ जोड़ने की प्रेरणा देता है।
बापू ने उस समय देख लिया था कि हमारी सभ्यता तेजी से बदल रही है। यह बदलाव केवल सामाजिक, सांस्कृतिक या आर्थिक नहीं था, बल्कि यह प्रकृति और पर्यावरण से हमारे रिश्ते को भी गहराई से प्रभावित कर रहा था। उन्होंने यूरोप और भारत की जीवन पद्धति में स्पष्ट अंतर देखा। यूरोप में औद्योगीकरण और मशीनीकरण ने प्रकृति का दोहन बढ़ा दिया था, जबकि भारत में अभी भी ग्रामीण जीवन और प्रकृति के साथ सामंजस्य बरकरार था। बापू ने भारत को यूरोप-अमेरिका के रास्ते पर चलने से बार-बार मना किया। उनकी चेतावनी थी कि यदि दुनिया इस उपभोगवादी रास्ते पर चली, तो प्राकृतिक संसाधनों की मांग आज की तुलना में आठ गुना बढ़ जाएगी। उदाहरण के लिए, आज हम देखते हैं कि औद्योगिक विकास और शहरीकरण ने जंगलों, नदियों और खनिजों का अंधाधुंध दोहन किया है, जिसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक असंतुलन बढ़ा है। बापू का मानना था कि ऐसी सभ्यता में सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर जीवित रहना असंभव हो जाएगा। उन्होंने कहा कि प्रकृति संपूर्ण जीव-जगत की आवश्यकताएं पूरी कर सकती है, परंतु एक भी लालची इंसान की लालच को पूरा नहीं कर सकती। यह चेतावनी उन्होंने हिंद स्वराज्य के माध्यम से पूरी दुनिया को दी थी, जो आज भी प्रासंगिक है।
आज हम वैश्विक चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी-सर्दी, बाढ़, सूखा, जंगलों में आग और प्रदूषण के रूप में बापू की चेतावनी को साकार होते देख रहे हैं। हिंद स्वराज्य में उन्होंने बदलती जीवनशैली के परिणामस्वरूप जलवायु, नदियों और पर्यावरण के स्वभाव में बदलाव की भविष्यवाणी की थी। उदाहरण के लिए, आज गंगा, यमुना और अन्य नदियों का प्रदूषण, हिमालय में ग्लेशियर्स का पिघलना और अनियमित मानसून इस बात का प्रमाण हैं कि हमारी जीवनशैली ने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ दिया है। यह पुस्तक केवल सभ्यता और संस्कृति की बात नहीं करती, बल्कि यह कालचक्र के मौसम, जलवायु और पर्यावरण की दिशा-दशा को भी दर्शाती है। आज बढ़ता प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, सामाजिक शोषण, बेरोजगारी और बीमारियां उसी हालात का परिणाम हैं, जिनका जिक्र बापू ने किया था। उन्होंने यह भी चेताया कि यदि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं बनाएंगे, तो मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
बापू ने अपने सपनों के भारत की कल्पना करते हुए कहा था, “सत्य और अहिंसा के बिना मानव जाति का विनाश निश्चित है। सत्य और अहिंसा को हम ग्रामीण जीवन की सादगी में ही प्राप्त कर सकते हैं।” उन्होंने यह भी चेताया कि यदि भारत भी यूरोप-अमेरिका के रास्ते पर चला, तो वह पतंगे की तरह दीपक के चारों ओर नाचकर अंत में नष्ट हो जाएगा। बापू का मानना था कि मनुष्य को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं में संतोष करना चाहिए और स्वावलंबी बनना चाहिए। वे आधुनिक विज्ञान के प्रशंसक थे, परंतु उनका कहना था कि विज्ञान को पुरानी और सनातन जीवन पद्धतियों के साथ संतुलित करना होगा। उदाहरण के लिए, बापू ने स्वदेशी और ग्राम स्वराज्य के सिद्धांतों पर जोर दिया, जिसके तहत स्थानीय संसाधनों का उपयोग और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया गया। यह दृष्टिकोण आज भी सतत विकास के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि यह हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने की प्रेरणा देता है।
पिछले 50 वर्षों में हमने बापू के हिंद स्वराज्य और उनके सपनों के भारत को अपने कार्यों का आधार बनाया। बापू की प्रेरणा से हमने पंचमहाभूतों—जल, जंगल, जमीन, जीव और हवा—को संरक्षित करने का कार्य किया। इस दिशा में दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में अरावली पर्वतमाला की 28,000 खदानों को बंद करने के लिए सत्याग्रह किया, जिससे पर्यावरण संरक्षण को बल मिला। हमने 15,800 छोटे बांध और जोहड़ बनाकर 23 नदियों को पुनर्जनन किया, जिससे 12 लाख 50 हजार लोगों को खेती और प्राकृतिक पुनर्जनन के कार्यों में रोजगार मिला। इसके अतिरिक्त, 6,632 बंदूकधारियों को हिंसा छोड़कर जल संरक्षण और खेती के कार्य में लगाया गया। चंबल जैसे हिंसाग्रस्त क्षेत्र में महिलाओं ने अपने परिवारों को अहिंसक बनाया, जिससे वहां एक नई, शांतिपूर्ण और समृद्ध सभ्यता का जन्म हुआ। इन प्रयासों ने न केवल पर्यावरण को पुनर्जनन किया, बल्कि सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन भी लाया। उदाहरण के लिए, चंबल में जो लोग कभी डकैती में लिप्त थे, वे आज खेती और जल संरक्षण के कार्य में योगदान दे रहे हैं।
ये बदलाव तब शुरू हुए, जब हमने स्वयं को बदला। समाज ने छोटे-छोटे प्रयासों से अपने उजड़े जीवन को पुनर्जनन करना शुरू किया। जब प्रकृति हमें सिखाती है, तब सत्य का बोध होता है। सत्य को समझकर ही जीवन अहिंसामय, सहज और समता की ओर बढ़ता है। हालात सुधार का अर्थ केवल सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक सुधार नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक और आध्यात्मिक पुनर्जनन की प्रक्रिया है। बापू के प्राकृतिक-अध्यात्मिक दर्शन को अपनाकर हमने बाढ़, सूखा और आग जैसी वैश्विक चुनौतियों से लड़ने के लिए प्रयोग किए हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के अलवर जिले में जल संरक्षण के कार्यों ने न केवल नदियों को पुनर्जनन किया, बल्कि स्थानीय समुदायों को आत्मनिर्भर बनाया। यह दर्शन हमें सनातन विकास और प्रकृति के साथ सामंजस्य की ओर ले जाता है। हमारा यह प्रयास पूरी दुनिया के लिए एक मॉडल बन सकता है, जो बापू के दर्शन को अपनाकर पर्यावरण और मानवता के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। </span
