जड़ों से जुदाई: अपनापन गुमशुदा क्यों?
जीवन की धारा में बदलाव कभी चुपके से आते हैं, कभी तूफान बनकर सब कुछ उथल-पुथल कर देते हैं। कभी हम इन्हें महसूस करते हैं, तो कभी अनजाने में इन्हें भूल जाते हैं। वे कब हमारे जीवन में आए, कब चुपचाप निकल गए, पता ही नहीं चलता। लेकिन जब हम अपने अतीत की गलियों में झांकते हैं, तो धुंधली यादों में बहुत कुछ साफ नजर आता है। पहले पूजा-पाठ में पितरों, कुलदेवता, स्थानीय देवी-देवताओं और आसपास के प्रतीकों की अर्चना होती थी। घर, गांव, क्षेत्र और प्रांत की हर छोटी-बड़ी चीज को महत्व मिलता था। इसके पीछे कई कारण थे—सांस्कृतिक जड़ें, सामुदायिक एकता और प्रकृति से गहरा जुड़ाव।
खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, रहने-सहने, चलने-फिरने, लेने-देने, आने-जाने, मेले-ठेले और खेल-मैदान में स्थानीय और स्वदेशी वस्तुओं को तरजीह थी। एक बुजुर्ग कारीगर, रामलाल, अपनी झुर्रियों भरी आंखों में उदासी लिए कहते हैं, “पहले मेले में मेरे हाथ के बने मटके बिकते थे। लोग उनकी बनावट की तारीफ करते। अब प्लास्टिक की बोतलें ले आईं, और मेरी कला कोने में सिमट गई।” धीरे-धीरे समय ने करवट बदली। नीतियों, माहौल और वैश्विक हवाओं ने एक धांसू तूफान उठाया, जिसने सब कुछ झटके से बदल दिया।
पहले रिश्तों में परस्पर पूरकता, आपसी संवाद, अपनापन, मधुरता और लगाव का रंग गहरा था। दूर रहने पर भी नजदीकी का अहसास दिल के किसी कोने में बरकरार रहता था। छोटे-बड़े का लिहाज, शर्म और सम्मान था। आपसी कहा-सुनी, झगड़ा-झंझट, लड़ाई-झगड़े, तनाव और दबाव के बावजूद एक सामीप्य बना रहता था। एक गांव की बुजुर्ग महिला, शांति देवी, मुस्कुराते हुए कहती हैं, “पहले पड़ोस में झगड़ा होता, तो शाम तक सब एक साथ चाय पीते थे।” लेकिन अब? “तेरी मेरी बने ना, पर तेरे बिना चले ना” का भाव लुप्त होने लगा। हर इकाई अपने आपको पूर्ण मानने लगी। अब मोबाइल की स्क्रीन में सब खो गए। स्वकेंद्रित व्यवस्था बन गई, बनाई गई, और समाज ने इसे स्वीकार कर लिया। “घर का जोगी जोगड़ा, बाहर गांव का सिद्ध” वाली सोच ने जड़ें जमा लीं।
नतीजतन, हमारी जड़ें गायब हो रही हैं। धरती से दूरी बढ़ती जा रही है। मन, विचार, हृदय, दिलो-दिमाग और चिंतन-मनन में एकल भाव हावी हो गया। पहले “तू ही तू, तेरा ही तेरा” का जाप करने वाला समाज अब “मैं ही मैं, मेरा ही मेरा” की ओर बढ़ गया। इस पर गौर करना जैसे समाप्त हो गया। एक पर्यावरण प्रेमी, अनिल, गहरी सांस लेते हुए कहते हैं, “बचपन में हम नदी में तैरते थे, उसकी लहरों से बातें करते थे। अब वो नदी कचरे का ढेर बन गई।” मानवीय सरोकारों को तिलांजलि देने की जरूरत नहीं पड़ी; वे बिना सोचे-समझे गायब हो गए। “हाथ लगता है, सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ,” एक युवा उद्यमी, प्रिया, उदास स्वर में कहती हैं।
वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद, उदारीकरण और निजीकरण ने बाजारवाद का मकड़जाल फैलाया। विज्ञापन, दिखावा, प्रचार-प्रसार, शोषण, दोहन और लूट ने समाज को गहरे अंधकार में धकेल दिया। सत्ता, नेता, उद्योगपति, व्यापारी और मीडिया इस आंधी में तब्दील हो गए। नतीजा सामने है: “ना खुदा मिला, ना विसाले सनम, ना इधर के रहे, ना उधर के हम।” झूठ, जुमले, बदजुबानी, वादाखिलाफी, हिंसा, नफरत, द्वेष, अलगाव, शोषण, दोहन, लूट, बदला, मनमानी और मनमर्जी की अंधी दौड़ में लगभग सभी बह गए। रोजगार, काम-धंधे, खेती-बाड़ी, छोटे उद्योग, हस्तकला, दस्तकारी, स्थानीय बाजार, जल, जंगल, जमीन—यहां तक कि व्यक्ति भी भयंकर भटकाव में फंस गए। एक किसान, हरि सिंह, गुस्से में कहते हैं, “खेत बेचकर मॉल बन गए, और हम मजदूर बन गए। अब पछताए क्या होत है।”
ऊपर से सरकारी नीतियों और नासमझी ने इस माहौल को और गहरा किया। नेताओं, दलालों, पूंजीपतियों और लूटेरों के गठजोड़ ने स्थिति को नाजुक बनाकर मजबूती दी। सत्ता, प्रशासन, पुलिस, नेता, उद्योगपति और धनकुबेरों की चांदी कटने लगी। देश, समाज और जनता की हालत जैसे भाड़ में चली गई। धन के भंडार बढ़े, लेकिन समता और ममता की खाई कई गुना चौड़ी हो गई। लोकतांत्रिक व्यवस्था में धन का खुला और मनमाना चलन बढ़ा। संसदीय प्रणाली चरमराई। मनमाने फैसले आने लगे। सत्ता निरंकुश दिखने लगी। संसद मौन, सड़कें सूनी, और जनता गफलत में डूबी।
मीडिया के बड़े हिस्से ने सत्ता और पूंजी के सामने घुटने टेक दिए। उसके स्वभाव, जिम्मेदारी, तार्किकता, निष्पक्षता और पारदर्शिता पर सवाल उठने लगे। भोंपू बनकर ढोल-नगाड़े बजाने की होड़ लग गई। झूठ और सच का अंतर गौण हो गया। एक गुमनाम पत्रकार कहते हैं, “हमसे सनसनीखेज खुलासे मांगे जाते हैं, चाहे वो पूरी तरह झूठ पर आधारित हों।” इस क्षेत्र में दबकर प्रतियोगिता होने लगी।
इन सबके बावजूद, सब कुछ चौपट नहीं हुआ। इधर-उधर, छोटी-बड़ी, लंबी-चौड़ी, कम-ज्यादा ही सही, सटीक और सार्थक आवाजें बुलंद हो रही हैं। एक छात्रा, राधा, गर्व से बताती हैं, “हमने गांव में जल संरक्षण का अभियान शुरू किया। पहले लोग हंसे, लेकिन अब पूरा गांव साथ है।” चाहे ये आवाजें बड़ा परिवर्तन न ला पाई हों, धरती सच, हिम्मत, ऊर्जा, दृढ़ता और सक्रियता से विहीन नहीं हुई। आज भी ऐसे जागरूक नागरिक मौजूद हैं, जो अपना सब कुछ दांव पर लगाकर आवाज उठाते हैं। ये आशा और उम्मीद की किरणें हैं, जो सच, नैतिकता, संविधान, न्याय, समता, शांति और सक्रियता के बल पर सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव की मशाल जलाए रखती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता, मोहन, कहते हैं, “हमारी आवाज छोटी हो सकती है, लेकिन वो चुप नहीं होगी।”
एक तरफ “हम नहीं सुधरेंगे” का राग अलापने वाले खड़े हैं, तो दूसरी तरफ “ना मारेंगे, ना मानेंगे” का नारा बुलंद करने वाले बेलगाम सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। ज़रुरत है हम सब मिलकर देश, समाज और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुट हों। शांति और सक्रियता के साथ अपनी आवाज बुलंद करें। परिवर्तन प्रकृति का सहज, सुलभ और साफ-सुथरा नियम है। बदला नहीं, सकारात्मक परिवर्तन चाहिए। जनता की सुनने वाली व्यवस्था चाहिए। आओ, मिलकर नई राह बनाएं, जहां जड़ों से जुड़ाव हो, रिश्तों में अपनापन हो, और समाज में समता का सूरज चमके।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।


प्रिय भाई, हार्दिक शुभकामनाओं सहित सादर जय जगत।
आपका हाथ लगता है तो दिलो-दिमाग से लगता ह। तीन एच मतलब 3 H HAND, HEART AND HEAD वाली बात हो जाती है।
सहजता-सरलता, मधुरता शांतिपूर्ण नदी के बहाव की तरह अपनी ओर आकर्षित करती है।
आभार धन्यवाद शुक्रिया।
रमेश चंद शर्मा