सेहत पर संकट: कैंसर, कुपोषण का कहर; 25% टीबी मरीज भारत में
वैश्विक स्तर पर इंसान की औसत आयु बढ़ रही है—इस सदी में छह साल की वृद्धि हुई है। लोग अब 73 साल से ज्यादा और भारत जैसे देशों में 67 साल तक जी रहे हैं। लेकिन भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा इतना कमजोर है कि यह उपलब्धि खतरे में है।
फिर भी, गृहमंत्री अमित शाह दावा करते हैं कि पिछले 11 सालों में स्वास्थ्य क्षेत्र की हर समस्या हल हो चुकी है। बेंगलुरु में अदिचुन्चनगिरी यूनिवर्सिटी के उद्घाटन पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने 60 करोड़ गरीबों को पांच लाख तक का मुफ्त इलाज देकर बीमारी और इलाज के खर्च की समस्या खत्म कर दी है। हकीकत इससे उलट है—सरकारी अस्पतालों की हालत बदहाल है। 2025 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य था, लेकिन दुनिया के 25 फीसदी टीबी मरीज आज भी भारत में हैं। डेंगू जैसे रोगों की रोकथाम के लिए कोई व्यापक योजना नहीं है। गंभीर बीमारियों के मरीजों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है, और इलाज का खर्च लोगों को कंगाल बना रहा है। कुपोषण की जड़ें गहरी हैं—पांच साल से कम उम्र के 35.5 फीसदी बच्चे अविकसित हैं, और 32.1 फीसदी कम वजन के। यह शारीरिक और मानसिक विकास को रोकता है, जिससे भविष्य की मानव पूंजी कमजोर होती है। सपा सांसद और पूर्व अभिनेत्री जया बच्चन ने बताया कि उनके पति अमिताभ बच्चन को ऑक्सीजन की जरूरत पड़ी, लेकिन सिलेंडर नहीं मिला—किसी तरह व्यवस्था होने पर उनकी जान बची।
गैर-संचारी बीमारियां देश में बेकाबू हो रही हैं, जो 66 फीसदी मौतों की वजह हैं, जैसा कि जिसे भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) बताता है। हृदय रोग, मधुमेह, और कैंसर 30 साल से ऊपर के लोगों में तेजी से फैल रहे हैं, जो एक गंभीर चुनौती है। 45 फीसदी मौतें सिर्फ हार्ट अटैक से होती हैं, जिसमें हाई ब्लड प्रेशर मुख्य कारण है। कम उम्र में ही लोग इससे जूझ रहे हैं।
कैंसर-मोटापे का बढ़ता बोझ: चेतावनी!
तंबाकू से मुंह का कैंसर, और महिलाओं में स्तन व सर्वाइकल कैंसर तेजी से बढ़ रहा है। हर साल 13 लाख से ज्यादा नए कैंसर केस सामने आते हैं, और 2040 तक यह संख्या दोगुनी हो सकती है। वायु प्रदूषण इस खतरे को और बढ़ा रहा है।
एशिया के 21 देशों के अध्ययन से पता चला कि भारत समेत कई देशों में कैंसर नियंत्रण की योजनाएं बेहद कमजोर हैं, जबकि सिंगापुर, जापान, और दक्षिण कोरिया ने पांच साल की योजनाओं से मृत्युदर घटाई है। आईसीएमआर के मुताबिक, सिर्फ 28.5 फीसदी कैंसर मरीजों को रेडियोथेरैपी मिलती है, जबकि 58.4 फीसदी को इसकी जरूरत है।
मोटापे का संकट भी भयावह है। दि लैंसेट की ग्लोबल बर्डन ऑफ डिसीज स्टडी के अनुसार, अगर अभी कदम नहीं उठाए गए, तो 2050 तक भारत में 45 करोड़ वयस्क मोटापे से पीड़ित होंगे। मिर्गी से 94 लाख लोग प्रभावित हैं—प्रति लाख 672 मामले। सेकेंडरी मिर्गी, जो दूसरी बीमारी या सिर की चोट से होती है, ज्यादा है।
इंडोनेशिया में पिछले दशक में मिर्गी के मामले सबसे तेज बढ़े, जबकि रूस में कमी आई। भारत में जागरूकता की कमी से मिर्गी का इलाज देर से मिलता है। एनीमिया का कहर भी कम नहीं—57 फीसदी महिलाएं और बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं, और 53 फीसदी 6-59 महीने के बच्चे प्रभावित हैं, जैसा कि राष्ट्रीय फैमिली हेल्थ सर्वे बताता है।
ग्रामीण अस्पतालों में मधुमेह और ब्लड प्रेशर की दवाओं की किल्लत है, जैसा कि आईसीएमआर और डब्ल्यूएचओ के सर्वे में सामने आया। सब-सेंटर और उप-जिला अस्पतालों में भी दवाएं कम हैं। 145 दवाएं जांच में फेल हुईं, और 181 दवाएं गुणवत्ता में खराब पाई गईं—ये सर्दी, खांसी, एलर्जी, और दर्द निवारण की दवाएं हैं। अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की कमी से देखभाल प्रभावित हो रही है। कर्मचारियों को तीन-तीन शिफ्ट में काम करना पड़ता है, क्योंकि नए विभाग और बेड बढ़ने के बावजूद स्टाफ की संख्या नहीं बढ़ी।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, शिशु मृत्युदर 97 प्रति एक लाख जीवित जन्म तक घटी है—यह सकारात्मक है। आयुष्मान भारत और पोषण अभियान सराहनीय हैं, लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र की गहरी असमानताओं और चुनौतियों के बीच 2025 की थीम ‘स्वस्थ शुरूआत, आशापूर्ण भविष्य’ तभी साकार होगी, जब समग्र स्वास्थ्य नीति, पर्याप्त बजट, और सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच सुनिश्चित हो।
सेहत पर संकट: फंगस और जूनोटिक रोगों का कहर
दरअसल सेहत का वैश्विक संकट एक ऐसी आंधी बनकर उभर रहा है, जो मानवता को निगल सकती है। सबसे भयावह खतरा यह है कि ब्लैक फंगस हर साल 100 करोड़ लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है। इससे भी डरावना, एक घातक फंगस—एस्परजिलस फ्यूमिगेटस—एशिया समेत पूरी दुनिया में फेफड़ों की बीमारियों को रफ्तार दे सकता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर का अध्ययन चेतावनी देता है कि अगर तुरंत सावधानी नहीं बरती गई, तो यह फंगस लाखों जिंदगियों को छीन सकता है। यह फंगस गर्म, नम माहौल में तेजी से पनपता है और 37 डिग्री सेल्सियस तक जीवित रहता है। कमजोर इम्यून सिस्टम वाले लोग—जैसे अस्थमा, कैंसर, एचआईवी, अंग प्रत्यारोपण वाले मरीज, बुजुर्ग, या लंबे समय से बीमार—विशेषकर धूल भरे वातावरण में इसके आसान शिकार हैं। अकेले यूरोप में 90 लाख लोग इससे संक्रमित हो सकते हैं।
इससे भी भयानक खतरा जूनोटिक रोगों का है, जो जानवरों से इंसानों में फैलता है और दुनिया की 44 फीसदी आबादी—यानी 3.5 अरब लोगों—को अपने जाल में फंसा सकता है। येल स्कूल ऑफ दि एनवायरनमेंट की ‘जूनोटिक होस्ट रिचनेस’ रिपोर्ट बताती है कि भारत, चीन, और दक्षिण पूर्व एशिया की 10 फीसदी आबादी पर सबसे ज्यादा जोखिम है, जहां लोग वन्यजीवों के ज्यादा संपर्क में हैं। गाय, भैंस, बकरी, कुत्तों जैसे पालतू जानवरों से इंसेफेलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी फैल सकती है।
आईसीएमआर के शोध ने खुलासा किया कि किलनी (अठई) के खून में मौजूद बैक्टीरिया एक्यूट फेब्राइल इलनेस जैसा रोग पैदा करते हैं। चमगादड़, वानर, और लीमर जैसे स्तनधारी, जो इंसानी बस्तियों के पास पाए जाते हैं, इस खतरे को और बढ़ाते हैं। दिल दहलाने वाली सच्चाई यह है कि 2022 में एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने से 30 लाख बच्चे मौत के मुंह में समा गए, जैसा कि ऑस्ट्रिया के एक अध्ययन ने उजागर किया।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

