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बादल फटना: प्रकृति की चेतावनी या मानव की भूल?
बादल केवल पहाड़ों की गोद में ही नहीं, बल्कि राजस्थान के तपते रेगिस्तान और मैदानी इलाकों में भी फट रहे हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली गांव में हाल ही में बादल फटने की दिल दहला देने वाली घटना ने एक बार फिर हमें प्रकृति के क्रोध और मानव की लापरवाही के बीच के नाजुक संतुलन पर सोचने को मजबूर कर दिया है। हम अक्सर ऐसी घटनाओं को “प्राकृतिक आपदा” का नाम देकर अपनी जिम्मेदारियों से पलायन कर लेते हैं। कुछ राहत सामग्री बांटकर, मुआवजा देकर, और फिर अगली त्रासदी के इंतजार में चुप बैठ जाते हैं। यह हमारी सबसे बड़ी त्रासदी है।
उत्तरकाशी की इस ताजा घटना ने हमें कठोर सबक सिखाया है। पहाड़ों के संवेदनशील और खतरनाक क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण को तत्काल रोकना होगा। यह निर्विवाद सत्य है कि प्रकृति से कोई जीत नहीं सकता, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हम अपने विवेक और दूरदर्शिता से नुकसान को कम कर सकते हैं। बादल फटने की घटनाओं के विश्लेषण से एक कड़वा सच सामने आता है—हमारी सरकारों ने 2002 की वन एवं वन्य जीव संरक्षण नीति को न केवल नजरअंदाज किया, बल्कि 2022 में इसमें संशोधन कर वन कानूनों को और कमजोर कर दिया। इस नीति के तहत नदियों और वन्य जीव अभयारण्यों के 10 किलोमीटर के दायरे को पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र (ईको-सेंसिटिव जोन) घोषित किया जाना था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी, सरकारों के दबाव में, इन क्षेत्रों की सीमाओं को कम करने का अधिकार उन लोगों को सौंप दिया, जो पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने में जुटे हैं।
आज हमारी वन संपदा और प्राकृतिक संसाधनों पर नियोजित विकास के नाम पर खतरा मंडरा रहा है। पहाड़ों के साथ-साथ मैदानी इलाकों और रेगिस्तानों में भी बादल फट रहे हैं, पहाड़ दरक रहे हैं, और हमारी धरती कराह रही है। सवाल यह है कि आखिर बादल फटते क्यों हैं? मौसम विज्ञानियों के अनुसार, नमी से भरी हवाओं का क्यूमिलोनिंबस बादलों में सीमित क्षेत्र में इकट्ठा होना और गर्म हवाओं के साथ उनका टकराव इसका प्रमुख कारण है। जब बादल भारी मात्रा में जलवाष्प लेकर चलते हैं, तो उनका घनत्व बढ़ता है, और तेजी से संघनन होने पर भयंकर बारिश होती है। वैज्ञानिक विश्लेषण तो चलते रहेंगे, लेकिन असल सवाल यह है कि इन मानवीय त्रासदियों और भारी नुकसान को रोकने की जिम्मेदारी किसकी है?
प्रख्यात पर्यावरणविदों ने बार-बार चेतावनी दी है कि पहाड़ी क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण और तथाकथित विकास की गतिविधियों को रोका जाए। उनकी चेतावनियां भविष्यवाणियों से कम नहीं हैं। माननीय न्यायालयों ने भी इन चेतावनियों पर अपनी मुहर लगाई है, फिर भी हम सुनने को तैयार नहीं। विकास का लालच और पर्यावरण के प्रति उदासीनता इन त्रासदियों का मूल कारण बन रही है। राजस्थान के बारां जिले में शाहाबाद के जंगल कंजर्वेशन रिजर्व को काटने की योजना पुरानी सरकार ने बनाई थी, और अब नई सरकार इसे लागू करने को आतुर है। अरावली के सरिस्का में, जहां बाघों के शावक किलकारी मारते थे, वहां उन्हें खदेड़ा जा रहा है। जयपुर के बीचों-बीच “डोल का बाढ़” के जंगल को उजाड़ दिया गया, जबकि सरकार नगर वन बनाने की बात करती है। यह कैसा विरोधाभास है?
हमारी सनातन संस्कृति में हिमालय को भारत का उन्नत भाल कहा गया है, लेकिन आज वहां विस्फोटकों के धमाके हो रहे हैं। पहाड़ों का दरकना और नदियों का रौद्र रूप धारण करना अब स्वाभाविक हो गया है। गंगा और भागीरथी के किनारों को 10 किलोमीटर तक ईको-सेंसिटिव जोन घोषित करने की मांग लंबे समय से उठ रही है। पर्यटन विकास और हाइड्रो पावर प्लांट के नाम पर चल रही अनर्थकारी योजनाओं को तत्काल बंद करना होगा। अवैध खनन और पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ को विकास का मानक मानने की मानसिकता को बदलना होगा।
यदि हम अब भी नहीं चेते, तो भविष्य में ऐसी आपदाएं और अधिक भयावह रूप में सामने आएंगी। यह समय है कि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलें, न कि उसके खिलाफ। पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी केवल नीतियों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह हमारी जीवनशैली और सोच का हिस्सा बनना चाहिए।
*स्वतंत्र पत्रकार

