1942 की गूंज: करेंगे या मरेंगे
9 अगस्त 1942 की वह सुबह, जब मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान, जिसे अब अगस्त क्रांति मैदान कहते हैं, में एक आंधी उठी। अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन की हुंकार ने देश को झकझोर दिया। महात्मा गांधी ने 8 अगस्त को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिवेशन में “करो या मरो” का नारा दिया था। अगले ही दिन, 9 अगस्त को, गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे नेताओं को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया, और सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया। फिर भी, देश ठहरा नहीं। लाखों भारतीय सड़कों पर उतर आए। बिहार में सात युवकों ने पटना में तिरंगा फहराने की कोशिश में अपनी जान गंवाई। बंगाल के तमलुक और कंटाई में जनता ने समानांतर सरकारें स्थापित कीं। रेलवे स्टेशनों, डाकघरों, और पुलिस थानों पर हमले हुए, क्योंकि जनता ने ब्रिटिश शासन के प्रतीकों को निशाना बनाया। यह दिन, 9 अगस्त, भारत के इतिहास में अगस्त क्रांति के रूप में अमर हो गया, जब हर वर्ग ने एक स्वर में कहा—अब आजादी चाहिए।
उस दिन की आग अभी भी ठंडी नहीं हुई। अरुणा आसफ अली, जिन्हें ‘आजादी की ग्रैंड ओल्ड लेडी’ कहा जाता है, ने गोवालिया टैंक मैदान पर तिरंगा फहराकर इतिहास रच दिया। उषा मेहता, एक युवा छात्रा, ने ‘कांग्रेस रेडियो’ शुरू किया, जो गुप्त रूप से स्वतंत्रता की खबरें और संदेश प्रसारित करता था। जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं ने भूमिगत रहकर आंदोलन को जीवित रखा। बंगाल की मातंगिनी हाजरा ने अपनी जान देकर दिखाया कि आजादी की कीमत क्या होती है। मुंबई की गलियों से लेकर बिहार के गांवों तक, उड़ीसा के तालचेर और महाराष्ट्र के सतारा तक, हर कोने में जनता ने अपने साहस की कहानी लिखी। कुछ लोग, जैसे हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के समर्थक, ब्रिटिशों के साथ खड़े रहे, उनकी सत्ता की छांव में सुख तलाशा। पर भारत का दिल एकजुट था। 15 अगस्त 1947 को, जब तिरंगा लहराया, तो यह उन लाखों की जीत थी, जिन्होंने 1942 में अपने खून-पसीने से आजादी की नींव रखी।
आज, कई दशक बाद, उषा मेहता की तरह नई पीढ़ी के सामने चुनौतियां हैं। देश फिर से तनाव के दौर से गुजर रहा है। सामाजिक तनाव, नफरत, और विभाजनकारी विचार समाज को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों पर सवाल उठ रहे हैं। प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी चिंता बढ़ा रही है। महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे युवाओं को बेचैन कर रहे हैं। राजनीतिक बहसों में कटुता और अविश्वास बढ़ता दिख रहा है। संसद में सार्थक चर्चा कम हो रही है, और सड़कों पर नागरिकों की आवाज को सुना जाना जरूरी है। लेकिन क्या भारत चुप रहेगा? नहीं, जयप्रकाश नारायण की तरह आज का युवा कहता है—यह समय जागने का है।
9 से 15 अगस्त का यह सप्ताह देश के नाम हो। अरुणा आसफ अली की तरह हिम्मत दिखाएं, मातंगिनी हाजरा की तरह साहस जुटाएं। गली-मोहल्ले, गांव-शहर, घर-आंगन में शांति, सद्भाव, और भाईचारे की मशाल जलाएं। चर्चा करें, संवाद करें, लेख लिखें, कविताएं गाएं, नाटक रचें, नारे गूंजें। पर्चे बांटें, पोस्टर लगाएं, पत्र लिखें, प्रभात फेरी निकालें, प्रार्थना करें। नेताओं, सत्ताधारियों, और प्रशासन को एकता का संदेश भेजें। हर छोटा-बड़ा प्रयास देश को जोड़ेगा। ‘जदि तोरी डाक सुने कोई ना आसे तो एकला चलो रे।’
यह स्वतंत्रता दिवस केवल उत्सव नहीं, एक नई कहानी का आगाज है। 9 अगस्त 1942 की तरह, आज फिर से सत्य, प्रेम, और एकता की पुकार गूंजे। तिरंगे की शान, मां भारती का सम्मान, और अरुणा, उषा, मातंगिनी जैसे नायकों की विरासत को बुलंद करें। क्योंकि यह देश कहानियों का देश है—और हर कहानी में जीत हमारी होगी।‘हिम्मत से पतवार संभालो फिर क्या दूर किनारा।’

