– ज्ञानेन्द्र रावत*
अरावली: दस्तावेज़, दावे और जमीनी हकीकत
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री किस आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि अरावली का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा संरक्षित रहेगा, यह समझ से परे है। यही प्रश्न इन दिनों अरावली पर्वत माला के अंतर्गत आने वाले राज्यों में हो रही चर्चाओं, बैठकों और जन-संवाद का केंद्र बना हुआ है।
राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात के शहरों-कस्बों से लेकर स्कूल-कॉलेजों तक, नागरिक समूहों, पर्यावरण संगठनों और स्थानीय समुदायों द्वारा जन-जागरूकता के माध्यम से छात्रों और आमजन को अरावली पर मंडराते खतरे के बारे में जानकारी दी जा रही है। यह गतिविधियां किसी सरकारी कार्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि उन आशंकाओं की अभिव्यक्ति हैं जो सुप्रीम कोर्ट के 20 नवम्बर के आदेश और उससे जुड़ी व्याख्याओं को लेकर सामने आई हैं। उत्तर भारत की सबसे पुरानी पर्वतमाला मानी जाने वाली अरावली आज अपने अस्तित्व से जुड़े सवालों के घेरे में है। जानकारों का कहना है कि लगभग 670 मिलियन वर्ष पुराने इस भू-आकृतिक इतिहास को प्रभावित करने वाली प्रक्रियाएं अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट के 20 नवम्बर के आदेश पर यदि ध्यान दिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि इसके क्रियान्वयन की प्रस्तावित दिशा अरावली के व्यापक पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर सकती है। इसमें केवल हरियाली या पहाड़ों की भौतिक संरचना ही नहीं, बल्कि भूजल क्षेत्र, भूजल भंडार, वन्यजीव, उनके आश्रय स्थल और इस पूरे अंचल में रहने वाले करोड़ों लोगों की खाद्य सुरक्षा तथा पर्यावरणीय सुरक्षा भी शामिल है। यह प्रभाव केवल राजस्थान और हरियाणा तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि अरावली परिक्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सीमावर्ती राज्य दिल्ली और गुजरात भी इससे अछूते नहीं रहेंगे। वन मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट में भी यह संकेत मिलता है कि अरावली के भविष्य को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े हो रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश और वन मंत्रालय की रिपोर्ट को साथ रखकर देखने पर अरावली की पहाड़ियों की एक नई परिभाषा सामने आती है। इस परिभाषा के अनुसार अरावली का लगभग 90 प्रतिशत क्षेत्र कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकता है। यदि इस व्याख्या को लागू किया गया, तो जिन जमीनों पर वर्तमान में पहाड़ और जंगल मौजूद हैं, वहां आगे चलकर निर्माण गतिविधियों और खनन के लिए रास्ता खुल सकता है। इसके परिणामस्वरूप पूरी अरावली खंड-खंड हो जाएगी और उसका निरंतर स्वरूप समाप्त हो जाएगा। यह स्थिति ऐसे समय में उभर रही है, जब बीते चार दशकों से खनन गतिविधियों के कारण अरावली की पहाड़ियों की ऊंचाई लगातार घटती गई है।
इसी संदर्भ में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री यह कहते रहे हैं कि अरावली क्षेत्र में खनन पूरी तरह प्रतिबंधित है और इस बारे में भ्रम फैलाया जा रहा है। लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला फरीदाबाद जिला इस दावे की व्यवहारिक तस्वीर सामने रखता है। खनन शुरू होने से पहले यहां अरावली की पहाड़ियों की ऊंचाई 100 मीटर से कहीं अधिक थी। जिले में अरावली का रकबा लगभग 10 हजार हेक्टेयर में फैला है, जो करीब 20 गांवों को समेटता है। पिछले लगभग 40 वर्षों से इस क्षेत्र में पत्थर और सिलिका सैंड के लिए लगातार खनन किया गया। पहले पहाड़ियों को समाप्त किया गया और उसके बाद लगभग 500 फीट गहरी खदानें विकसित की गईं। आज भी जिले में 300 से अधिक क्रशर सक्रिय बताए जाते हैं। यह स्थिति केवल फरीदाबाद तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे अरावली क्षेत्र में कमोबेश यही तस्वीर दिखाई देती है।
सरकारी स्तर पर एक ओर यह कहा जाता है कि अरावली में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और इसके संरक्षण के लिए सरकार प्रतिबद्ध है, वहीं दूसरी ओर खनन हेतु पट्टों का जारी रहना इस दावे पर प्रश्न खड़ा करता है। राजस्थान इसके स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। कोटपुतली, बहरोड़, सीकर और नीम का थाना केवल कुछ उदाहरण हैं; जानकारों का कहना है कि यह प्रक्रिया राज्य के अन्य हिस्सों में भी जारी है।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में अरावली क्षेत्र में कुल मिलाकर लगभग 19 हजार छोटी-बड़ी पहाड़ियां चिन्हित की गई हैं। लेकिन नई परिभाषा में पहाड़ी के मानक बदल दिए गए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि पहाड़ी की ऊंचाई का निर्धारण समुद्र तल से किया जाता है। जबकि व्यवहारिक स्थिति यह है कि अरावली की अधिकांश पहाड़ियों की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 300 मीटर के आसपास है। दूसरी ओर दिल्ली और गुरुग्राम जैसे क्षेत्रों का धरातल ही समुद्र तल से 240 से 260 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इस आधार पर अरावली की पहाड़ियों की प्रभावी ऊंचाई केवल 40 से 60 मीटर रह जाती है।
यदि 100 मीटर ऊंचाई का मानक लागू किया गया, तो इसके परिणामस्वरूप अरावली की लगभग 90 से 95 प्रतिशत पहाड़ियां इस परिभाषा से बाहर हो जाएंगी। इसका अर्थ यह होगा कि वानिकी क्षेत्र का बड़ा हिस्सा अरावली के दायरे से बाहर चला जाएगा और केवल लगभग एक प्रतिशत पहाड़ियां ही संरक्षित श्रेणी में बचेंगी। सुप्रीम कोर्ट से जुड़े दस्तावेज़ों के पैराग्राफ 30 और 31 में विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों ने इसी चिंता को दर्ज किया है। इसी संदर्भ में फिर वही प्रश्न सामने आता है—केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री किस आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि इस परिभाषा के तहत अरावली का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा संरक्षित रहेगा, यह समझ से परे है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में खनन गतिविधियों का प्रभाव पहले से ही दिखाई देता है। यहां लगभग 31 पहाड़ियां पूरी तरह समाप्त हो चुकी हैं और कई अन्य समाप्ति की कगार पर हैं। पहले से ही गंभीर वायु प्रदूषण झेल रहे इस क्षेत्र में नई परिभाषा के क्रियान्वयन से हालात और जटिल हो सकते हैं। जानकारों का कहना है कि इससे वायु गुणवत्ता, जल उपलब्धता और जन-स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ेगा।
अरावली पर्वत श्रृंखला केवल एक भौगोलिक संरचना नहीं है। यह दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के लिए प्राकृतिक सुरक्षा कवच की भूमिका निभाती रही है। पहाड़ गर्म हवाओं को रोकते हैं, बादलों को थामते हैं, भूजल को रिचार्ज करते हैं और वन्यजीवों के लिए आश्रय प्रदान करते हैं। विशेषज्ञों का आकलन है कि यदि मौजूदा प्रस्तावित मानक लागू होते हैं, तो इसका प्रभाव कृषि, वन्यजीवन, नदियों, वायु और जल की गुणवत्ता तथा तापमान संतुलन पर पड़ेगा और समूचा पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित होगा।
अरावली को लेकर आमजन और विशेषज्ञों के बीच यह धारणा स्पष्ट है कि इसे केवल 100 मीटर के मानक में सीमित कर नहीं देखा जा सकता। खनिज संसाधनों के दोहन के लिए अरावली क्षेत्र में हो रही गतिविधियों के संदर्भ में यह प्रश्न लगातार उठ रहा है कि दीर्घकालिक पर्यावरणीय संतुलन को कितनी प्राथमिकता दी जा रही है। यदि अरावली का संरक्षण नहीं हुआ, तो दिल्ली जैसे शहरों में रहने की परिस्थितियां और कठिन हो सकती हैं।
पर्यावरण विज्ञान यह दर्शाता है कि अरावली पर्वतमाला का प्रकृति और मानव जीवन के साथ गहरा अंतर्संबंध है। भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में भी इसे महत्वपूर्ण माना गया है। लेकिन आधुनिक नीतिगत दृष्टिकोण में इसे संसाधन के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है। विशेषज्ञों का कहना है कि विश्व की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में से एक अरावली से अल्पकालिक लाभ की अपेक्षा दीर्घकालिक परिणामों को समझना अधिक आवश्यक है।
विकास गतिविधियों के चलते पहले से ही पर्यावरण पर दबाव बढ़ा है। इसके परिणामस्वरूप प्रदूषण, जल संकट, वन्यजीवों के आवास में कमी, आर्द्र भूमि का नष्ट होना, तापमान में वृद्धि और मरुस्थलीकरण जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं। जानकारों का कहना है कि यदि अरावली की मौजूदा परिभाषा को बिना पुनर्विचार लागू किया गया, तो इन समस्याओं की तीव्रता और बढ़ सकती है। इसी कारण यह मांग सामने आ रही है कि अरावली पर्वतमाला की परिभाषा पर पुनर्विचार किया जाए और इसके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाए जाएं, ताकि पारिस्थितिक संतुलन और देश का प्राकृतिक संतुलन बना रह सके।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
