फोटो: दीपक पर्वतियार
– डॉ राजेंद्र सिंह*
अरावली पर मंडराता खतरा
हमें जन्म देने वाली स्त्री और नदियों को जन्म देने वाली अरावली पर्वतमाला हमारी माँ है। दुनिया की प्राचीनतम आड़ी पर्वतमाला, 692 किलोमीटर लंबी भारत की रीढ़, को बचाने का प्रयास करें तो पूरी दुनिया उसे बचाने में हमारे साथ आ सकती है। इसे हरा-भरा बनाने में जापान ने भारत सरकार को बहुत मदद की थी। दुनिया के बहुत से देशों ने अपनी विरासत खोई है; भारत अपनी विरासत के प्रति जागरूक देश है। यही संस्कृति-प्रकृति का बहुत गहरा योग था। इसकी गहराई में केवल मानव और इसे बनाने वाले पंचमहाभूत—भ+ग+व+अ+न, भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर—के योग के सिद्धांत की पालन-प्रणाली थी।
सृष्टि को चलाने वाले भगवान ही प्रकृति हैं और मानवीय व्यवहार ही संस्कृति है। भगवान—प्रकृति और मानव व्यवहार—संस्कृति ही हैं। इसी मान्यता ने हमारी पर्वतमाला अरावली को अभी तक कुछ सीमा तक बचाए रखा है। यही भारतीय आस्था, भारत की प्रकृति-संस्कृति के योग से, पर्यावरण संरक्षण बनाए रखती आई है; जबकि दुनिया में ऐसी बहुत सी घटनाएँ हुई हैं जहाँ विकास के नाम पर भारत से अधिक विनाश हुआ है। अब भारत में लालची विकास की गति तेज हो गई है।
विकास के नाम पर ऐसे विनाश मैंने देखे हैं, जैसे अमेरिका, कैलिफ़ोर्निया की ओंस वैली की पहाड़ियाँ, अफ्रीका और मध्य एशिया। भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान में इस प्रकार के दुष्प्रभावों के शिकार बने बहुत से पहाड़ हमारे सामने हैं। अब अरावली भी ऐसा ही नया क्षेत्र बनेगा। अरावली का दर्द बड़ा है; इसे पहचानें। अरावली का दर्द हम अपना दर्द मानते हैं। अरावली का दर्द हमारे लिए रह गया दर्द है। लालची उद्यमियों द्वारा दिया गया अरावली का दर्द हमारे जीवन की साँसों का संकट बनेगा। पर्यावरण-प्रदूषण और खनन द्वारा हमारे स्वास्थ्य-सुरक्षा को नष्ट कर देगा। भूजल-भंडार बिगड़ेंगे तो हमारी नदियाँ मरेंगी, सूखेंगी।
तरुण भारत संघ ने अरावली को बचाने की आवाज सबसे पहले 1980 में जयपुर में बैठक करके झालना डूंगरी के खनन को रोकवाने हेतु उठाई थी। वर्ष 1988 में “नीलकंठेश्वर” सरिस्का के जंगल में बैठकर उच्चतम न्यायालय में जाकर खनन रोकवाने हेतु याचिका दायर करने की तैयारी हुई थी। वर्ष 1991 में अरावली में हो रहे खनन के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका निर्णय से खनन रुकना शुरू हुआ था। उस जमाने में पूर्व न्यायमूर्ति श्री वेंकटचलैया, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय भारत, ने इस केस की सुनवाई बहुत गंभीरता से ली थी। उन्होंने सरिस्का की 478 खदानों को बंद करने का आदेश दिया था।
धीरे-धीरे यह मांग अरावली के चारों राज्यों में फैल गई। 2 अक्टूबर 1993 को हिम्मतनगर, गुजरात से अरावली का सिंहनाद करते हुए यह यात्रा 22 नवम्बर को दिल्ली संसद पहुँची थी। वहाँ संसद अध्यक्ष श्री शिवराज पाटिल को ज्ञापन दिया गया था कि भारत सरकार के नोटिफिकेशन के बावजूद अवैध खदानें चल रही हैं।
अरावली सीधी दरारों वाली पर्वतमाला है। यह वर्षा-जल से भूजल-भंडार का पुनर्भरण करती है। इसी अरावली के गुण-स्वरूप, मैंने पिछले 50 वर्षों में 23 नदियों को शुद्ध, सदानीरा और पुनः जीवित कर पाया हूँ। खनन बंद होने पर मुझे यह सफलता मिली है कि अरवरी, भगाणी, सरसा, शेरनी, जहाजवाली, महेश्वरा जैसी नदियाँ पुनः पुनर्जीवित बन सकी हैं।
अब पूरी अरावली में खनन होगा तो इसकी सभी नदियाँ सूखेंगी। नदियाँ सूखना अर्थात सभ्यता का मरना। अरावली की सभ्यता को जिंदा रखने का दर्द अरावली को होगा। अरावली के लोगों को पेयजल संकट का सामना करना होगा। अरावली के चारे, ईंधन, अन्न का संकट बढ़ेगा। खनन के मलबे से खेती पर बहुत बुरा असर होगा। इस क्षेत्र को अनेक संकटों का सामना करना पड़ेगा।
खनन जंगली जीवों के आवास, उनके सहवास-स्थल तथा गलियारे (कॉरिडोर) को नष्ट कर देता है। जैव-विविधता का संकट बढ़ेगा। एक तरफ जिन जंगलों और जंगली जीवों को बढ़ाने पर हमारा करोड़ों खर्च हो रहा है, वहीं हम खनन द्वारा उन्हें नष्ट करने की तैयारी कर रहे हैं। अरावली की जड़ी-बूटियाँ खनन से समाप्त होंगी। अरावली का आरोग्य-रक्षण संकट में पड़ेगा। अरावली का नंगा होना तापमान बढ़ा देगा; जलवायु-परिवर्तन की आपदा आएगी। बेमौसम वर्षा से हमारा सब कुछ प्रभावित होगा। ये सभी संकट अरावली में खनन के कारण देखे जा सकते हैं।
खनन रुकने से 35 वर्ष में जलवायु-परिवर्तन अनुकूलन और उन्मूलन का यह उदाहरण केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में अकेला है।
सर्दियों की मंद रोशनी में अरावली की पहाड़ियाँ दूर तक फैली हुई दिखती हैं—चट्टानों की अनगढ़ परतें, कहीं विरल पेड़ों के धब्बे और कहीं ऐसे ढलान जिनकी सतह पर बीते वर्षों में खो चुकी हरियाली की स्मृति अब भी जमी हुई है। अरावली के गर्भ से सैकड़ों नदियों का जन्म हुआ है, जो खनन एवं जल-शोषण के कारण सूख गई थीं। तरुण भारत संघ ने पिछले 50 वर्षों में दर्जनों नदियों को पुनर्जीवित किया है। जब नदियाँ सूखती हैं, तभी सभ्यता और संस्कृति भी कमजोर पड़ने लगती है। हमारी सभ्यता, संस्कृति और सरिता का बहुत गहरा संबंध है। इसी संबंध के कारण नर से निर्मित नारी और नदी को एक ही माना गया है।
समुद्र के खारे जल को सूर्य वशीकृत करके भाप (गैस) बनाता है। बादल भी जल के गैस-रूप ही हैं। बादलों को पुनः जल में बदलने का काम भारत की रेतली अरावली करती है, जो कि एकमात्र आदि पर्वतश्रेणी है। यह बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से आने वाले बादलों के सामने आड़ी खड़ी होकर उन्हें वर्षा में परिवर्तित करती है। अरावली भारत के ब्रह्मा-रूपी भगवान मानी गई है, इसलिए भारत के ऋषियों ने अरावली के मध्य पुष्कर में ब्रह्मा सरोवर और ब्रह्मा मंदिर बनाया था। यह पूरे भारत में एकमात्र ब्रह्मा मंदिर है।
राजस्थान में जहाँ बादल उठते थे, वहीं अरावली के जंगल उन्हें बरसाते थे। खनन के कारण अरावली का तापमान 3 से 5 डिग्री तक बढ़ जाता है। पहले जयपुर की झालाना डूंगरी में खनन के कारण दोपहर बाद, जयपुर के अन्य हिस्सों की तुलना में, वहाँ का तापमान 1 से 3 डिग्री अधिक रहता था। सर्दियों में भी झालाना का तापमान जयपुर से अलग रहता था।
पर आज अब इन पहाड़ियों के बीच बसे गांवों में एक हलचल, एक सूक्ष्म-सी बेचैनी फैली हुई है। 20 नवंबर 2025 को उच्चतम न्यायालय की संपूर्ण पीठ का निर्णय आया है, जिससे अरावली के आँसू पोंछने की ज़िम्मेदारी अब केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को दी गई है। लेकिन इनके एफिडेविट और टिप्पणियों ने हमारी शंकाएँ बढ़ा दी हैं।
अरावली एक ही पर्वतमाला है। उसे ऊंच-नीच में बाँटकर नष्ट करने की स्पष्ट योजना दिख रही है। इसके पीछे शक्तिशाली खनन उद्योगपति ही हैं। अरावली विखंडित नहीं है। यह धरती माँ के गर्भ से निकली एक समग्र पर्वतमाला है। मां के गर्भ से निकला एक ही शरीर का आड़ा पहाड़ अरावली ही है। उसे बड़ा-छोटा कहकर परिभाषित नहीं किया जा सकता।
सर्वोच्च न्यायालय की ओर से लाई गई अरावली की नई परिभाषा को लोग केवल एक कानूनी परिवर्तन के रूप में नहीं देख रहे—उन्हें लगता है कि यह बदलाव उस प्राकृतिक ढांचे को छू रहा है, जिसे वे पीढ़ियों से अपनी जिंदगी, अपने जल-स्रोतों और अपनी धरती की सांसों की तरह जानते आए हैं।
अरावली को हमेशा अपने सम्पूर्ण, जैविक रूप में ही समझा जा सकता है। यह सिर्फ एक भूगोल या ऊँचाई-ढलान की रेखा नहीं है; यह उत्तर भारत के जल-चरित्र, जलवायु, वर्षा-चक्र और मिट्टी की स्थिरता का अनकहा ढांचा है। इसकी हर परत में भूगर्भीय इतिहास बसा है—कहीं जल के भूमिगत मार्ग, कहीं चट्टान की दरारों से सीपता हुआ नमी का संसार, कहीं सूक्ष्म जीवों का वह तंत्र जो मिट्टी को पकड़ कर रखता है और कहीं वे पत्थरीले विस्तार जो दिखने में बंजर लगते हैं मगर स्थानीय जलसंतुलन की रीढ़ होते हैं। जब किसी परिभाषा में इन सभी पहलुओं को शामिल नहीं किया जाता, तो वह प्राकृतिक सत्य को सीमित कर देती है और आगे आने वाली पीढ़ियों पर उसका बोझ पड़ता है।
कानूनी ढांचे में कई असंगतियाँ उभरती दिखाई देती हैं। नई परिभाषा यदि मौजूदा पर्यावरण संरक्षण अधिनियमों, वन कानूनों और संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्रों से जुड़े दिशा-निर्देशों से मेल नहीं खाती, तो आने वाले समय में न्यायालयों, प्रशासन और स्थानीय समुदायों के बीच नए विवाद पैदा होंगे। यह आवश्यक है कि किसी भी परिभाषा को लागू करने से पहले उसे वैज्ञानिक समुदाय, पर्यावरण विशेषज्ञों, स्थानीय समाज और जल-वैज्ञानिकों की सामूहिक समीक्षा से गुजारा जाए। ऐसे संक्रमणकाल में सबसे महत्त्वपूर्ण कदम एक ऐसी वैज्ञानिक और सामाजिक समिति का गठन है जिसमें भू-वैज्ञानिक, जल-विशेषज्ञ, पारिस्थितिकीविद, स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधि और नीति-निर्माता मिलकर अरावली की वास्तविक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक परिभाषा तय करें। केवल परिभाषा बदल देने से प्रकृति सुरक्षित नहीं होती; उसकी सुरक्षा उस दृष्टिकोण से आती है जिसमें प्रकृति को उसकी संपूर्णता में पहचाना जाए।
अरावली को परिभाषित करने के लिए वैज्ञानिक मानकीकरण, भूगर्भीय साक्ष्य, पारिस्थितिकी-आधारित वर्गीकरण और जलगतिकी का अध्ययन अनिवार्य था, लेकिन जो स्वरूप सामने आया, वह तकनीकी शब्दावली की एक संकुचित व्याख्या जैसा है। इसकी वजह से वे क्षेत्र, जो अरावली की पारिस्थितिकी का अनिवार्य हिस्सा हैं पर सतह पर चट्टानी ऊँचाई की तरह नहीं दिखते, संरक्षण के दायरे से बाहर किए जा सकते हैं। यह स्थिति अत्यंत खतरनाक है, क्योंकि प्रकृति को सिर्फ ऊपर से देखने भर से उसकी पूरी संरचना नहीं समझी जा सकती।
नई परिभाषा को लेकर चिंता की जड़ें इसी अधूरेपन में छिपी हैं। नई परिभाषा से खनन, रियल एस्टेट विस्तार और शहरी फैलाव को अनपेक्षित बढ़ावा मिलने की आशंका वास्तविक है। कई ऐसे क्षेत्र, जो अब तक पर्यावरणीय कानूनों के संरक्षण में थे, यदि अरावली की परिभाषा से बाहर कर दिए जाते हैं, तो वे न केवल ‘असुरक्षित क्षेत्र’ बनेंगे बल्कि कुछ मामलों में अवैध गतिविधियों को एक तरह की कानूनी वैधता भी मिल सकती है। इससे केवल स्थानीय पर्यावरण ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तरी भारत की जलसुरक्षा पर असर पड़ेगा। दक्षिण-पश्चिमी हवाओं से उत्पन्न गर्मी का दबाव बढ़ेगा, वर्षा चक्र प्रभावित होंगे और दिल्ली-एनसीआर जैसे क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता और गिर सकती है। यदि यह प्रवृत्ति अगले कुछ दशकों तक जारी रही, तो आने वाले 50 से 100 वर्षों में उत्तर भारत गंभीर पारिस्थितिक संकट का सामना कर सकता है। 20 नवंबर 2025 को उच्चतम न्यायालय की पीठ का निर्णय इस संकट को और गंभीर बना देता है।
अरावली को केवल पर्यावरण नहीं बल्कि सांस्कृतिक विरासत के रूप में भी समझना चाहिए। यहां के समुदायों ने सदियों से जल-प्रबंधन की पारंपरिक प्रणालियाँ, वन-आधारित आजीविका और पशुपालन की पद्धतियाँ विकसित की हैं। यह ज्ञान किसी किताब का नहीं बल्कि अनुभव का है—एक ऐसा अनुभव जो बताता है कि चट्टानों की खामोश परतें भी पानी को कैसे थामती हैं, और किस प्रकार सूखे मौसम में पहाड़ी की तरफ़ से आती हल्की हवा भी जीवन की निशानी होती है। जब परिभाषाएँ इस सांस्कृतिक-प्राकृतिक संबंध को संबोधित नहीं करतीं, तो वे अधूरी रह जाती हैं।
अरावली पर जब शाम उतरती है, तो पहाड़ियों के बीच बहती हवा में जीवन की मद्धिम-सी अनुभूति रहती है। यह हवा बताती है कि प्रकृति अब भी संकेत देती है—संकेत कि उसकी संरचना को समझा जाए, उसका सम्मान किया जाए और उसे उसके वास्तविक स्वरूप में पहचाना जाए। यही वह क्षण है जब निर्णय केवल कागज़ पर नहीं, बल्कि जमीन पर रहने वाली उन असंख्य ज़िंदगियों के साथ संवाद में लिया जाना चाहिए जिनकी दुनिया अरावली की सांसों से चलती है। प्रकृति की रक्षा किसी कानूनी शब्दावली से नहीं, बल्कि उसके भीतर बसे जीवन की समझ से होती है। अरावली इसी समझ की सबसे पुरानी, सबसे विवेकपूर्ण शिक्षक है—इसे संकुचित परिभाषाओं से नहीं, बल्कि उसके सम्पूर्ण सत्य के साथ सुरक्षित रखना ही भविष्य की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
अरावली का खनन अरावली की उपजाऊ भूमि को रेगिस्तान में बदलेगा। दिल्ली, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश तथा पंजाब में भी रेगिस्तान का विस्तार होगा। इस विषय में प्रोफेसर डाबरिया की बहुत विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार अरावली में 22 गैप हैं। हमने 1992 में उच्चतम न्यायालय को यह रिपोर्ट दी थी। तभी उच्चतम न्यायालय ने भारत सरकार को अरावली पर्वतमाला को संवेदनशील पर्वतमाला घोषित कराया था। अब पुनः इसे खोला जाने की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। ऐसा हुआ तो फिर रेगिस्तान बढ़ने से पूरे भारत का दर्द बढ़ेगा।
अरावली भारत की विरासत है। भारत को पूरी दुनिया कहेगी कि भारत अपनी विरासत को बचाने में सक्षम नहीं है; उसने अपनी पहचान—अरावली—को नष्ट करवा दिया है। यही अरावली का सबसे गहरा घाव और दर्द पूरे भारत को पीड़ित करेगा।
क्या आज का लोकतंत्र—पहाड़, नदी—सभी खनन उद्यमियों के बस में ही है? भारत के प्रधानमंत्री कॉप-15, कॉप-30 में क्या बोलकर आए हैं? उनके किए वादों की उद्यमियों के मन में कोई कीमत है? लोगों का विश्वास सरकार और खनन लॉबी के इस गठजोड़ से टूट रहा है। इसलिए आज हम सभी संगठित आवाज देकर अरावली विरासत को बचाएँ। खनन अरावली की प्रकृति और संस्कृति—दोनों के विरुद्ध है। इससे हमारी पारिस्थितिकी बिगड़ती है। हाँ, कुछ खनन-मालिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है, परंतु अधिकतर लोगों को सिलिकोसिस जैसी भयानक बीमारियाँ हो जाती हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है और फिर बीमारी के कारण आर्थिक स्थिति भी खराब होने लगती है।
अरावली की हरियाली ही हमारी अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी का आधार है। जैसे हमारे शरीर का आधार हमारी रीढ़ है, वैसे ही अरावली भारत की रीढ़ है, इसलिए इसकी सुरक्षा आवश्यक है। अरावली को खनन-मुक्त करना ही भारत की समृद्धि का मार्ग है। समृद्धि केवल आर्थिक ढाँचा ही नहीं है; हमारे जीवन-ज्ञान और जीवनविद्या ने हमें 200 वर्ष पूर्व तक 32% जीडीपी तक पहुँचाया था, तब भारत में बड़े पैमाने पर खनन नहीं था। हमारी खेती, संस्कृति और प्रकृति ने ही हमें समृद्ध बनाए रखा था।
अरावली के मूल आदिवासी भी अब खास खनन सामग्री निकालने हेतु हटाए जा सकते हैं। वन्यजीवों की तो बात ही क्या? वन-औषधियों की क्या अहमियत? गांवों के लोग इस बदलाव को अपने रोज़मर्रा के अनुभव से तौलते हैं। कभी पहाड़ी की हरियाली वर्षा को थाम लेती थी और महीने भर तक खेतों में नमी बनी रहती थी। अब वे दिन उन्हें फिर से धुंधले होते नज़र आ रहे हैं – कुएँ सूख रहे हैं, चारे की उपलब्धता घटती जा रही है और जलस्रोतों का प्रवाह टूट रहा है। जब परिभाषाओं के कारण पहाड़ी तंत्र का कोई हिस्सा कमजोर होता है, तो उसका असर सबसे पहले इन्हीं समुदायों पर पड़ता है जिनकी ज़िंदगी जल और मिट्टी से सीधे बंधी होती है।
अरावली को कटने मरने से बचाना है। खनन करके अरावली को नंगा करना, जंगल काटना और गैप बनाना बिल्कुल उचित नहीं है। अरावली की परिभाषा को इसी समग्रता से बनाना जरूरी है। 100 मीटर ऊंची ही अरावली है, यह ठीक नहीं है। पर्वतमाला एक ही होती है। मां के गर्भ से निकले पर्वत को गर्भ से लेकर चोटी तक उसके पूरे चरित्र सहित बचाना जरूरी है—उसके पेड़-पौधे, जीव-जंतु और उसकी खेती, वनोषधियाँ, आदिवासी, जंगलवासी समुदाय। सबसे पुराने आदिवासी समुदाय अरावली की चोटियों पर ही मिलते हैं। इन्हें बचाने के लिए कॉप-30 से हमारी सरकार एवं उच्चतम न्यायालय को सीख लेना चाहिए। कॉप के निर्णय सभी मानते हैं। हम भी एसडीजी, कॉप जो संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पहाड़, पर्यावरण और लोगों को संरक्षण देने वाली प्रक्रिया है—उसे अपनाएँ। हमें लालची आर्थिक क्षेत्र के विकास, विस्थापन, बिगाड़, विनाश, प्रदूषण, अतिक्रमण, शोषण के नंगे नृत्य से सीख लेने की आवश्यकता है। नंगा नृत्य भारत में कहीं भी, किसी भी रूप में अच्छा नहीं माना जाता।
अरावली की समृद्धि का ढाँचा खनन में नहीं, बल्कि हरियाली में है। हरियाली से बादल रूठकर बिना बरसे कहीं और नहीं जाते; अरावली में ही अच्छी वर्षा करते हैं। वर्षा का पानी खेतों में खेती करने हेतु रोजगार के अवसर देता है। अरावली के जवानों को अरावली के जल के सहारे खेती-किसानी करने का अवसर मिलेगा।
कल विश्व पर्वत दिवस 11 दिसंबर 2025 को अरावली विरासत जन अभियान अरावली पर्वतमाला और इसकी संस्कृति–प्रकृति—दोनों को बचाने हेतु खड़ा हुआ है। अरावली का प्रत्येक वनवासी, जीव–जंतु, पेड़–पौधे, वन्यजीव—सभी संकल्पित हो रहे हैं। आड़ा पहाड़ खुद भी अपने विरोधियों को रोकेगा। अब सरकार व खनन उद्यमियों पर भरोसा नहीं है। इसलिए अरावली के बेटे-बेटियों को संगठित होकर इसे बचाने का प्रयास तत्काल आरंभ करना होगा। तभी अरावली और दुनिया के पहाड़ बचेंगे। आड़ा पहाड़ अरावली विरासत जन अभियान चलाएंगे। आड़ा पहाड़ को कटने मरने से बचाएंगे।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
