एक कॉप30 क्षण. श्रेय: संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन
– डॉ राजेंद्र सिंह*
ब्राजील कॉप30: पहाड़ों को बचाने की वैश्विक पहल
अरावली एक प्राचीन भूगर्भीय श्रृंखला है, जो गुजरात से दिल्ली तक 692 किमी में फैली हुई है। लोकभाषा में इसे ‘आडा पर्वत’ कहा जाता है। इसकी पीड़ा विश्व भर के पहाड़ों की साझा पीड़ा का प्रतीक है। जिन देशों में न्यायपालिका और लोकतांत्रिक सरकारें पहाड़ों तथा जंगलों की अनदेखी कर उन्हें नष्ट कर रही हैं, उनके लिए कॉप30 जैसे वैश्विक मंच महत्वपूर्ण संदेश लेकर आए हैं।
20 नवंबर 2025 को ब्राजील के बेलेम में आयोजित कॉप30 ने जंगलों और पहाड़ों के संरक्षण पर मजबूत जोर दिया। इस सम्मेलन में वर्षावनों को धरती के “हरे फेफड़ों” के रूप में मान्यता देते हुए एक नए वैश्विक कोष की घोषणा की गई, जिसमें उपग्रह निगरानी के आधार पर जंगलों-पहाड़ों को बचाने वालों को पुरस्कार और अधिक कटाई करने वालों को दंड का प्रावधान है। आदिवासी हितों के लिए सारा पैसा सीधे आदिवासी संगठनों को देने का निर्णय लिया गया, ताकि कोई सरकार बीच में न रहे और आदिवासी स्वयं अपने पहाड़, जंगल तथा आवास बचाने के निर्णय लें। ब्राजील के राष्ट्रपति ने स्वयं अमेजन वर्षावनों तथा पहाड़ों को खनन से हुए भारी नुकसान के प्रमाण दुनिया के सामने रखे। इस नुकसान को प्रदर्शित करने के लिए ही कॉप30 को अमेजन जंगल के केंद्र बेलेम में आयोजित किया गया। जर्मनी ने दस वर्षों में एक अरब यूरो देने का वादा किया, नॉर्वे ने तीन अरब डॉलर तथा ब्राजील व इंडोनेशिया ने एक-एक अरब डॉलर का योगदान承诺 किया। ब्राजील का अनुमान है कि यह कोष आगे चलकर 125 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है, जिसमें कम से कम 20 प्रतिशत धन आदिवासी तथा पारंपरिक समुदायों तक सीधे पहुंचेगा। लगभग 70 देशों को इससे लाभ मिल सकता है, और अब तक 53 देश इसका समर्थन कर चुके हैं। ब्राजील को उम्मीद है कि समृद्ध देश 25 अरब डॉलर की शुरुआती सहायता देंगे। ये सभी निर्णय पहाड़ों तथा उनके जंगलों को बचाने की दिशा में एक मजबूत वैश्विक प्रतिबद्धता दर्शाते हैं। हम इन निर्णयों का हार्दिक स्वागत करते हैं। अरावली के आदिवासियों का अब क्या होगा? यह सवाल विचारणीय है।
ठीक उसी दिन भारत के उच्चतम न्यायालय ने अरावली की परिभाषा पर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। न्यायालय ने केंद्र सरकार की सिफारिश स्वीकार करते हुए अरावली को 100 मीटर ऊंचाई वाले भूभाग तक सीमित करने वाली परिभाषा को अपनाया। साथ ही, पूरे अरावली क्षेत्र के लिए सतत खनन प्रबंधन योजना तैयार करने का निर्देश दिया तथा तब तक नई खनन लीज न देने का आदेश जारी किया। अरावली में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण खनिजों (एटमिक महत्व वाले) के लिए छूट दी गई है, लेकिन सामान्य खनिजों के लिए खनन की छूट एक ही उद्यमी को ध्यान में रखकर दी गई प्रतीत होती है। अरावली के लोगों की मान्यता है कि सामान्य खनिजों के लिए अरावली को काटना, जंगल नष्ट करना और पर्वतमाला में नए घाव बनाना किसी भी रूप में उचित नहीं है।
यह विरोधाभास गहन चिंता का विषय है: एक ओर वैश्विक स्तर पर पहाड़ों की रक्षा के लिए पुरस्कार-दंड की व्यवस्था तथा आदिवासियों को सशक्त बनाने के निर्णय, दूसरी ओर भारत में अरावली की परिभाषा को ऊंचाई के आधार पर संकुचित करना। यदि यह परिभाषा अरावली के निचले हिस्सों को खनन के लिए खोल देती है, तो जल संकट, जलवायु परिवर्तन तथा जैव विविधता पर गहरा असर पड़ सकता है। पूरी दुनिया मानती है कि पर्वतमालाएं धरती के गर्भ से निकलती हैं तथा उनकी पारिस्थितिकी एकसमान संरक्षण मांगती है। संपूर्ण भूभाग—चाहे धरती के भीतर हो या बाहर—एक जैसा संरक्षण पाने का हकदार है। इसीलिए न्यायालय ने अरावली के 100 मीटर ऊँचे हर हिस्से के लिए व्यवस्था बनाने का 6 माह का समय दिया है, लेकिन समय सीमा से पूर्व विचार करके अरावली को खनन-मुक्त रखना भारत की विरासत बचाने के लिए अधिक महत्वपूर्ण है।
न्यायालय ने पहले स्पष्ट कहा था कि अरावली को राज्यों की सीमाओं में बांटकर नहीं, बल्कि गुजरात से दिल्ली तक एक समग्र पर्वतमाला के रूप में देखा जाए। लेकिन 100 मीटर से नीचे के क्षेत्रों में खनन की संभावित छूट से स्वयं अरावली को टुकड़ों में बांटने का खतरा उत्पन्न हो गया है। यह निर्णय भारत तथा दुनिया की पर्वतमालाओं के लिए घातक साबित हो सकता है। हम सरकार तथा उच्चतम न्यायालय से विनम्र याचना करते हैं कि इस निर्णय पर पुनर्विचार करें। यदि ऐसा नहीं हुआ तो विश्व भर के पहाड़ों को बचाना कठिन हो जाएगा तथा भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनामी हो सकती है। प्रकृति-संस्कृति की रक्षा करने वाले देश ने यदि अपने ही पहाड़ की प्रकृति तथा संस्कृति को नष्ट करने की पहल की, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। भारत को अब तक के कॉप में प्रस्तुत पर्यावरण प्रतिबद्धताओं को भी मुड़कर देखना होगा। हम अपनी प्रकृति-संस्कृति के साथ संकल्प पूरे करके ही विश्वगुरु बन सकते हैं।
पर्यावरण चिंतकों ने लंबे समय से उच्चतम न्यायालय तथा विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों में अरावली बचाने की आवाज उठाई है। इन याचिकाओं से चारों राज्यों की अरावली का समग्र दर्शन सामने आया, जिससे हमें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। न्यायालय ने पहले नई खनन लीज न देने का सम्माननीय निर्णय लिया था, जिससे अरावली के घाव भरने की उम्मीद जगी। लेकिन नई परिभाषा से उन घावों को और गहरा करने का खतरा पैदा हो गया है। अरावली के आंसू अब कभी थमेंगे? हमें गहन शंकाएं हैं, क्योंकि इस निर्णय के पीछे खनन उद्यमियों का सरकार पर गहरा प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। सरकार द्वारा न्यायालय में दिए गए एफिडेविट इसकी पुष्टि करते हैं। पूरी अरावली कुछ खनन उद्यमियों के हाथों सौंपने की योजना प्रतीत होती है।
यह निर्णय 1990 के दशक की याद दिलाता है, जब अरावली में वैध-अवैध 28 हजार से अधिक खदानें चल रही थीं। इन खदानों को बंद कराने के लिए तरुण भारत संघ की पहल पर जारी नोटिफिकेशन को लागू करवाने हेतु 2 अक्टूबर 1993 को हिम्मतनगर, गुजरात से दिल्ली तक पदयात्रा की गई थी। सरकार ने इस आवाज को गंभीरता से सुना, खदानें बंद हुईं तथा अरावली पुनर्जीवित होने लगी। लेकिन 2025 तक कई स्थानों पर अवैध खदानें फिर शुरू हो गईं। जहां खदानें चलीं, वहां अरावली नष्ट हुई, जल संकट तथा जलवायु संकट गहराया, भूजल भंडार खाली होते गए—फरीदाबाद, नूह, गुरुग्राम इसके जीवंत उदाहरण हैं। राजस्थान, हरियाणा-दिल्ली, गुजरात में अब नए सिरे से लड़ाई तेज हो रही है। 7 दिसंबर 2025 के जयपुर सम्मेलन से “अरावली विरासत जल अभियान” फिर शुरू हो गया है।
अरावली कोई साधारण फिजियोग्राफी पहाड़ी नहीं है। भूगर्भीय विज्ञान की दृष्टि से यह प्राचीनतम काल की विविध पहाड़ियों की संपूर्ण श्रृंखला है—मनुष्य की उत्पत्ति से पूर्व का भूभाग, जो धीरे-धीरे समुद्र के गर्भ से जन्मा तथा ऊपर उठा। ऊंचा-नीचा भूभाग, जिसमें वन, ताल, झाल, झीलें, वन्यजीव, आवास, पहाड़ियां, पठार, मैदान सब शामिल हैं। इसे केवल ऊंचाई के आधार पर बांटना या नई अभियांत्रिकी-प्रौद्योगिकी के नाम पर कुछ लोगों की स्वार्थपूर्ति का शिकार बनाना अन्याय है।
अरावली भगवान का निर्मित अंग है—पंचमहाभूतों (भ-भगवान, ग-गगन, व-वायु, अ-अग्नि, न-नीर) से रचित। इसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का रंग चढ़ाकर लोगों को मूर्ख बनाना वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों दोनों के साथ शैक्षणिक अपराध है। न्यायपालिका, विधिपालिका तथा कार्यपालिका को अरावली की मूल परिभाषा बदलने का अधिकार नहीं है। भगवत अंगों को बदलना मानवीय कार्य नहीं। इनका कर्तव्य भगवान के कार्यों में सहयोग करना है, न कि उन्हें नष्ट करना। जो भगवान को नष्ट करने की कोशिश करता है, वह स्वयं नष्ट होता है।
न्यायालय की नई परिभाषा में अरावली को जीवंत भगवान का अंग न मानकर निर्जीव पत्थरों का ढेर मान लिया गया है। जबकि तरुण भारत संघ के मामले में न्यायालय ने इसे प्राकृतिक धरोहर तथा विरासत मानकर संरक्षित घोषित कराया था। वर्तमान निर्णय अरावली को न्याय नहीं करता। आगे चलकर शैक्षणिक संस्थानों में यही निर्णय पढ़ाया जाएगा, जो शैक्षणिक अपराध जैसा होगा। पूरी अरावली को एक ही भूगर्भीय परिभाषा में देखना चाहिए, न कि फिजियोग्राफी या भौतिक इकाई के रूप में। यह जीवित श्रृंखला भगवान द्वारा मानव तथा जीव जगत की जरूरतें पूरी करने हेतु बनाई गई है, लेकिन लालच की पूर्ति के लिए नहीं। वर्तमान निर्णय लालच से प्रेरित लगता है, इसलिए भगवान के विपरीत है। यदि उच्चतम न्यायालय पुनर्विचार करता है, तो यह भगवान का कार्य होगा। अरावली बचेगी तो भारत की रीढ़ मजबूत होगी, संस्कृति तथा प्रकृति दोनों का पोषण होगा।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
