– डॉ राजेंद्र सिंह*
भारत की प्राचीनतम विरासत अरावली को बचाएं
अरावली की धमनियों में एक बार फिर वही पुराना दर्द लौट आया है। वह दर्द, जिसे 1980 के दशक में वैध-अवैध खदानों की गड़गड़ाहट ने जन्म दिया था और जिसे बंद कराने के लिए तरुण भारत संघ ने जो लड़ाई शुरू की थी, वह किसी जीत का अंत नहीं बल्कि एक लंबे युद्ध का पहला पड़ाव साबित हुआ। पंद्रह साल बीतते-बीतते यह साफ दिखने लगा कि खनन संगठन पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली होकर लौट आए हैं। जहाँ कभी युवा ख्याली मीणा और अनगिनत ग्रामीण अरावली बचाने के लिए अपने घरों से निकल आए थे, वहीं अब वही पहाड़ फिर से खोदे जा रहे हैं, रात के अंधेरे में ट्रकों की लाइनें बढ़ने लगी हैं, पहाड़ियों की कटान दूर से ही गहरे घावों की तरह दिखती है, और गाँवों के कुएँ जिनका पानी कभी मीठा था, धीरे-धीरे उथले और कड़वे हो गए हैं। यह सबके सामने होते हुए भी व्यवस्था की आँखें जैसे बंद हैं।
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भारत की प्राचीनतम विरासत अरावली पर्वतमाला है। यह दुनिया की दूसरी प्राचीनतम पर्वतमाला होने के कारण पूरी दुनिया का ध्यान इस पर गया है। सबसे पहले वर्ष 1980 में जयपुर में अरावली के संकट चिंतन शुरू हुआ। फिर 1990, के दशक के आरंभ में, जापान सरकार ने भारत सरकार के साथ मिलकर इसे पुनर्जीवित कराने के लिए, 1989 से 1999 तक, अरावली में पुनर्जीवन हेतु ग्रेनिंग अरावली परियोजना चलाई थी। तब ही तरुण भारत संघ ने अरावली को हरा बनाने की चेतना जगाने के साथ-साथ प्रत्यक्ष सामुदायिक आधारित काम भी शुरू किए थे। अरावली को हरा भरा बनाने हेतु 1986 में अरावली बचाओ सम्मेलन, भरथरी, अलवर में आयोजित करके, अरावली को बचाने का संकल्प लिया था।
पहले सरिस्का वन क्षेत्र की खदानें बंद कराने की मुहिम चलाई। यह खनन बंद होने पर फिर पूरी अरावली में “पर्यावरण यज्ञ” करवाया। गांव-गांव में खनन के खिलाफ रामायण पाठ कराया। 1991 में सरिस्का की 478 खदानें बंद हुईं। साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन न्यायमूर्ति श्री वेंकट चलैया जी ने श्री कमलनाथ जी, तत्कालीन वन और पर्यावरण मंत्री को पूरी अरावली को संवेदनशील क्षेत्र घोषित कराकर बचाने का निर्देश दिया था। भारत के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने ही दो नोटिफिकेशन जारी करके पूरी अरावली को संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया था। उसमें तो अरावली की रखतबनी, काकड़, रुंद, बीढ़, बंजर सभी में खनन करने पर रोक लगा दी थी।
अरावली केवल पहाड़ियां ही नहीं थी बल्कि अरावली क्षेत्र की धरती को भी अरावली माना था। इसलिए हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, गुजरात चारों राज्यों के अरावली क्षेत्रों में उद्योगों और खनन जैसी गतिविधियों पर रोक लग गई थी।
दिल्ली को दो भू सांस्कृतिक क्षेत्र में देख सकते हैं। अरावली का हिस्सा खंडावप्रस्त कहलाता है और यमुना का हिस्सा इंद्रप्रस्त कहलाता है। इनमें से दिल्ली का एक वह क्षेत्र है, जहां की पहाड़ियां खंडावप्रस्त कहलाती है। ये पहाड़ियां दिल्ली से चलकर एक माला की तरह हिम्मतनगर गुजरात तक पहुंचती है।
सरकारी रिपोर्ट में कुछ क्षेत्र छूट गए है जैसे सबाईमाधोपुर, भरतपुर इनके कुछ ही हिस्से अरावली में आते है, चित्तौड़गढ़ तो अरावली के केंद्र में है। यहां दर्ज कई विरासत हैं, फिर भी यह पूरी तरह से नहीं दर्शाया गया।
अरावली को बचाना हमारी सरकार के लिए जरूरी है क्योंकि अरावली की संस्कृति और प्रकृति दोनों ही अपना एक स्थान रखती है। यहां के लोग जल, जंगल, जमीन, जंगली, जानवर, जंगलबासी सब बहुत निकटता से जुड़े हैं। खनन जैसे काम इसे तोड़ देते हैं, नष्ट करते हैं। हमारी संस्कृति में प्रकृति के योग से निर्मित “जीवन विद्या” हमें दुनिया का गुरु बनाने की तरफ लेकर जाती है। इसी भारतीय जीवन विद्या काल में हम दुनिया की 32 प्रतिशत जीडीपी थे (पूरी दुनिया की कुल 32 प्रतिशत आर्थिकी वाला भारत, अब खनन जैसे विकास से यही भारत देश 6 प्रतिशत आर्थिकी वाला देश बन गया है) । अरावली की आर्थिकी, प्रकृति व संस्कृति के योग से हम फिर 32 प्रतिशत जीडीपी की तरफ आगे बढ़ सकते हैं।
पहले जब अरावली में खनन बहुत था तब बीमारी, लाचारी थी। खनन रुकने पर जब बेकारी बढ़ी तब तरुण भारत संघ ने पूरे अरावली में जल संरक्षण एक मुहिम बतौर चलाकर, खेती में लोगों को लगाया था। तब से अरावली में खेती बहुत तेजी से बढ़ी थी। यही काम जलवायु परिवर्तन अनुकूलन है। इससे जलवायु परिवर्तन आपदा का समाधान मिलने लगा है। राजस्थान का अरावली क्षेत्र एकमात्र है जहां जलवायु परिवर्तन अनुकूलन व उन्मूलन हुआ है और इसकी प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। इसी जमीनी अनुभव से कोप 21 में पेरिस में “जल से जलवायु, जलवायु परिवर्तन अनुकूलन, उन्मूलन होता है” यह सिद्धांत माना गया। पहली बार जल संरक्षण से खेती बढ़ाने पर जोर देना शुरू हुआ।
भारत में नाबार्ड ने भी 2016 में इस दिशा में काम शुरू किया था। अरावली में धीरे-धीरे हरियाली, खेती व जंगलों का बढ़ना शुरू हुआ था। लेकिन 20 नवंबर 2025 के उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने बहुत सी शंकाओं को अब नया जन्म दे दिया है। अब वन – पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय बहुत ही प्रसन्न नजर आ रहा है, जबकि इस निर्णय से केवल खनन व उद्योग मंत्रालय की प्रसन्नता तो समझ आती है। वन मंत्रालय की प्रसन्नता भी शंकाएं पैदा कर रही है। इनकी प्रसन्नता तो मिली जुली कुरीति जैसा भाव पैदा कर रही है। जो निर्णय वन भूमि को कम करने वाला या वनों पर उद्योग का कब्जा बढ़ाता हो, उससे भारत के वन व जलवायु मंत्रालय की चिंताएं बढ़नी चाहिए। ऐसा नहीं होने से स्पष्टतः समझ आता है कि, वन विभाग भी उद्योग व खनन विभाग के लिए काम कर रहा है।
अब अरावली विरासत को बचाने के लिए कौन जिम्मेदार है? कुल मिलाकर फिर वही लोग हैं, जिनके मन में प्रकृति, संस्कृति की साझी चिंता है। जो साझे वर्तमान और भविष्य को समृद्ध बनाने का प्रत्यक्ष काम करने वाले हैं। उन्हें भी न्यायालय को अरावली के बारे में बुलाकर सुनना चाहिए था। वे लोग ही अरावली के संकट को सही तरीके से उच्चतम सामने रख सकते हैं।
वर्ष 1991 में चारों राज्यों के जनसंगठन व सभी संस्थाएं, संस्थान एक मंच पर आकर खनन रुकवाने में सफलता पाई थी। तब सरकारें भी अरावली के काम को अपना काम मानकर अरावली के मजदूरों को खेती के काम में लगाने के लिए आगे आ रही थी। मजदूरों की चिंता खासकर स्वास्थ्य सुरक्षा हेतु काम कर रही थी। तब अरावली बिल्कुल नंगी हो रही थी। खनन उद्योग पहले जंगल साफ करते थे, फिर खनन करके गोचर और अरण्य भूमि पर मलबा डालकर उसे बर्बाद करते हैं। तब पूरी अरावली में ओपन माइंस चल रही थी। खुला खनन ने पूरी अरावली में घाव पैदा कर दिए थे। सभी जगह अरावली के आंसू, अरावली की सूखी जलधाराएं में नही दिखते थे। बाद में जंगल बढ़ने से सूखी हुई सरिता पुनर्जीवित होकर अरावली को सभ्यता और संस्कृति, प्रकृति को पुनर्जीवित होने की राह पकड़ ली थी। इसे रमेश थानवी ने “अरावली का सिंहनाद” कहा था। श्री सिद्धराज ढड्डा ने प्रकृति पुनर्जीवन प्रक्रिया कहा था। सर संघचालक श्री रज्जू भाई ने इस पूरी चेतना यात्रा को सभ्यता, संस्कृति पुनर्जीवन अभियान कहा था, सरसंघचालक श्री के सी सुदर्शन ने कहा कि अरावली की संस्कृति और प्रकृति को बचाने का यह बड़ा पराक्रम है। ऐसे सभी पर्वतमालयों में होना चाहिए। यह निर्भय और अनुशासित होकर जीवन जीना सिखाता है। उन्होंने दो बार अरावली में तरुण भारत संघ आकर इसे जल संरक्षण द्वारा प्रकृति और संस्कृति संरक्षण का योग कहा था। तब सर्व सेवा संघ के अमरनाथ भाई, लोकेंद्र भाई, तेज सिंह भाई, महावीर त्यागी आदि साथियों का योगदान रहा। जगत मेहता, ओमजी, किशोर भाई आदि ने अरावली को बचाने में बहुत साथ दिया था। आजकल अनिल मेहता,नंद किशोर शर्मा, तेज राजदान, प्रोफेसर शिव सिंह सारंग देवोत ,नीलम अहुवालिया, इब्राहिम खान आदि भी अरावली को बचाने का काम कर रहे हैं। आशा है अरावली बचेगी।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
