– डॉ राजेंद्र सिंह*
वनवासी बोले—खनन छोड़ो, यज्ञ करो
खनन का त्याग ही सबसे बड़ा यज्ञ
यज्ञ से जागेगा अरावली का प्राचीन ज्ञान
हमारे वन विभाग एक लिखे-लिखाए कानून पर काम करता है। यदि एक कानून जंगल संरक्षण में नाकाम रहा, तो उसकी सहायता के लिए दूसरा कानून बना दिया गया। इन दोनों ही तरह के कानून बनाने वालों ने जंगल की परम्पराओं, वनवासियों की मान्यताओं का ज्ञान कभी नहीं किया। ये भारत की मूल प्रकृति और संस्कृति के योग से बहुत दूर हैं। इसलिए आज बाढ़ ही खेत को खाने लगी है। जो विभाग जंगल, पहाड़ बचाने हेतु बना, वही अब उच्चतम न्यायालय में खनन करवाने के लिए वातावरण बना रहा है।
ऐसी स्थिति में वनवासी तथा वन्यजीवी प्राणी पर यह कानून लदा हुआ लगता है। साथ ही इन कानूनों के चलते वनवासी और वन के अन्तर सम्बन्ध समाप्त हो गए। “वनराज” अब सिंह नहीं, बल्कि वन विभाग का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है। और वह पशुओं का ही नहीं, पेड़ का, पहाड़ का, बाघ, हिरन का, वनवासियों और इस सबके साथ पर्यावरण, जंगली संस्कृति और सभ्यता का भक्षण कर रहा है। और इस व्यवस्था के चलते वनवासियों का उनके अपने जंगल से मोह खत्म हो गया था, रिश्ते टूट गए थे। उनका अपना अब पराया हो गया था।
वनवासी अपने आसपास के जंगल, पहाड़, जलस्रोत, जंगली पशु-पक्षियों को अलग-अलग नहीं देखता, वह सबको—सबके जीवन और रहन-सहन को अपने साथ रखकर एक साथ देखता है। और यही है पर्यावरण का स्वास्थ्य। वनवासी अपने पर्यावरण के सारे अवयवों को अपने आध्यात्म के साथ जोड़कर अपनी पूजा का केन्द्र मानता है। अरावली उसका पूजा क्षेत्र है। प्रत्येक पहाड़ी उसकी देवता है। बड़ी राक्षसी मशीनों से उन्हें उसी के सामने काटा जाता है, वह चुपके से उसे देख रहा है। वर्षों के खनन से वह लाचार, बेकार, बीमार बना दिया गया है।
वनवासी अपने आसपास के पेड़ों की यदि पूजा-अर्चना करता है तो साथ ही वह यह भी ख्याल रखता है कि तालाब के बहाव क्षेत्र में वह शौच आदि न करें। वह अपने विभिन्न तीज-त्यौहारों में विभिन्न वृक्षों, पशु-पक्षियों की पूजा-अर्चना करता है, जिन पर उसका जीवन निर्भर करता है। अब खनन के कारण उन सबसे रिश्ता टूटेगा।
शासन और प्रशासन की उल्टी नीतियों के चलते वनवासी के आध्यात्म को निरन्तर गहरी चोट लगती रही। उसकी निगाह के सामने उसकी लाचारी में उसकी पूजा की वस्तु नष्ट की जाती रही—कभी उसके राजा के द्वारा, कभी उसके मालिक के द्वारा, कभी उसके मंत्री के द्वारा, सांसद-विधायकों के द्वारा और कभी वन-खनन के द्वारा। अतः ऐसी स्थिति में उसका अपना मानस, अपना आध्यात्म बदला जाना स्वाभाविक है। आज वह अपनी संस्कृति-प्रकृति जीवन के बीच जूझ रहा है।
इसी प्रकार वह जंगल का दुश्मन हो गया, उसका भक्षक हो गया—यह कहना तो बेमानी है। किन्तु वह जंगल का, अपने पर्यावरण का हमदर्द नहीं रहा, उसका रिश्तेदार नहीं रहा, उसका पुजारी नहीं रहा—यह खनन करने वाले दिखाते हैं।
लेकिन तरुण भारत संघ ने जब इन्हें बिना पढ़े-लिखे, किन्तु ज्ञानवान वनवासियों से अकेलेपन की पुरानी रीति-नीति सीखना शुरू किया तो उसी वनवासी का अपना सोया आत्मविश्वास जागा, आध्यात्मिक बल जागा। जो कुछ खो गया था, उसे कुछ तो आपसी सहभागिता से और कुछ तरुण भारत संघ के प्रयासों से खोज निकाला। सरिस्का में खनन बंद करने में सफल हुए हैं। अरावली क्षेत्र में फैले कुछ गांवों में जंगल संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण हेतु साझा काम चालू हो गया।
हाँ, उस कहानी का एक उदाहरण अवश्य देखा जा सकता है और वह है “पर्यावरण संरक्षण यज्ञ”। यज्ञ कराने का निर्णय तरुण भारत संघ का नहीं है, बल्कि अरावली के सैकड़ों गांवों के वनवासियों का है, जो गत 7 दिसंबर 2025 को लिए गए एक फैसले का अंश है। गत 7 दिसंबर को अरावली के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ एक साथ बैठने आए। धरने में ‘जिंदाबाद-मुर्दाबाद’ के नारे नहीं लग रहे थे, वरन् पर्यावरण संरक्षण के लिए चिंता की जा रही थी। और उसी बीच एक वृद्ध वनवासी का प्रस्ताव था कि “अपने अरावली को बढ़ाने के लिए हम ‘यज्ञ’ क्यों न करें?”
ज्ञान और पर्यावरण की देवी मां सरस्वती के जन्मदिन वसंत पंचमी को इस यज्ञ की पूर्णाहुति उन्हीं वनवासियों ने तय की है। यज्ञ की रीति-नीति बस वही पुरानी—त्याग कर जीना है, प्रकृति का संरक्षण-रक्षण करना है।
इस सवाल के जवाब हेतु यज्ञ का प्रस्ताव करने वाले वृद्ध वनवासी से मिलकर जान सकते हैं। उसके मस्तिष्क में भी भारत और उसकी परम्पराओं का चिंतन स्पष्ट है। वर्षा के लिए, अच्छे वातावरण के लिए, पुत्र और धन-धान्य के लिए ऋषिकुल भारत में यज्ञ की परम्परा पुरानी है। यज्ञ त्याग कर ग्रहण करना है। खान मालिकों को यह सीखने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इससे हमारी सरकार को भी सीख मिलेगी।
किन्तु यह यज्ञ अग्नि-कुण्ड को शाकल्य अर्पण मात्र नहीं है। वनवासियों, आदिवासियों, अनपढ़ किन्तु ज्ञानियों द्वारा किया जाने वाला यह यज्ञ वही है जिसका वर्णन ऋग्वेद की संहिता पर्व में है। एक ही लक्ष्य, एक ही संकल्पना के लोग एकत्र होंगे। साथ रहेंगे, साथ खाएंगे और साथ विचार करेंगे। साथ ही यज्ञ का अवलंब हमारी परम्पराओं के प्रति बद्धता प्रमाणित करेगा। और इस सहभाग से अरावली का जंगल, पर्यावरण बचाने की नयी दिशा निकलेगी। ऐसे सुंदर और नैसर्गिक वातावरण में जंगलों में छिपे, दबे, पिछड़े गाँवों से निकलकर विश्व-वंद्य भारत का सनातनी ज्ञान आयातित (तथाकथित विकसित) ज्ञान से मुलाकात करेगा। पहाड़ों को कमाई के नाम पर काटना कोई विकास नहीं है। हम लाभ से पहले शुभ का ख्याल रखते हैं। आज का विकास तो केवल लाभ के लिए सोचता है।
अरावली में आज भी गहरे महत्व का “यज्ञ” इस समागम का एक माध्यम रहेगा, एक आधार रहेगा। इसलिए गाँव का आदिवासी इस महासम्मेलन में अपना सहकार नहीं, सहभाग महसूस करेगा। और तब वह खान मालिकों के लिए खिलौना नहीं, महत्वपूर्ण साथी रहेगा। और तब उल्टी बह चली गंगा सीधी बहेगी—वह गंगोत्री से ही निकलकर बंगाल की खाड़ी में ही गिरेगी। अर्थात अरावली का खनन से विनाश रुकेगा। अरावली में खनन नहीं, हरी-भरी बनाने की परियोजना चलेगी।
“पर्यावरण संरक्षण यज्ञ” नाम से ज्ञान के इस महासंगम में वनवासी ज्ञान को संरक्षण और आयातित ज्ञान को आवश्यक नियन्त्रण देकर पर्यावरण संरक्षण के लिए एक साझी रणनीति तैयार कर एक अभिनव जंगल कानून बनाने का भी प्रयास सफल हो सकता है। बशर्ते सरकार एक खुले मत से इसमें सहभागिता निभाए। न्यायपालिका भी भारतीय मूल ज्ञान-तंत्र से न्याय करना सीखेगी।
इस महायज्ञ में यह भी प्रमाणित होगा कि जंगल संरक्षण के लिए “रणथम्भोर-सरिस्का बाघ परियोजना” में कोर क्षेत्र-बफर क्षेत्र ज्यादा कारगर होगा या धराड़ी, कांकड़-बनी, रक्खत-बनी जैसी प्राचीन परंपराएं, जो राजस्थान की अरावली में प्रचलित पवित्र वनखंड (ओराण या सेक्रेड ग्रोव्स) हैं—जहां देवताओं या पूर्वजों का वास मानकर पेड़ काटना, शिकार करना पूरी तरह वर्जित है। ये परंपराएं छोटी-छोटी पहाड़ियों को भी पूरी तरह सुरक्षित रखती हैं, जो थार की रेत को रोकने का आधार हैं, जैव विविधता और जलस्रोतों की रक्षा करती हैं, और सामुदायिक नियमों से पीढ़ियों से चली आ रही हैं।
पर्यावरण यज्ञ से वातावरण में किए गए चिंतन से पर्यावरण संरक्षण के लिए जो भी “नियम-उपनियम” बनेंगे—उनके परिणाम शाश्वत ही होंगे। तब यह गुंजाइश नहीं रहेगी कि 100 मीटर ऊँची पहाड़ियां ही बचाना जरुरी है। तब तो पूरी अरावली पर्वतमाला, जो गरीब आदिवासियों-वनवासियों की जीवन-रेखा है, उसे खान मालिकों के लिए ही खोद दिया जाए! यह यज्ञ त्याग कर ग्रहण करने की सीख सभी को देगा।
न्यायपालिका भारतीय ज्ञान-तंत्र का सम्मान करना सीखेगी। उसी के अनुरूप न्याय करेगी। सरकार भी आदिवासियों को भारत का सम्मान, नागरिकता का हकदार मानेगी। भारत समता प्रदान करने वाले संविधान से चलता है। आदिवासियों को समता की तरफ लाने हेतु उनके विस्थापन, जंगल के विनाश को रोककर उनके घरों को संरक्षित करेगी। अरावली बच जाएगी। यह अरावली के वनवासी अपने आपको बचाने हेतु पर्यावरण यज्ञ कर रहे हैं।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
