– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
100 मीटर का विवाद: अरावली संरक्षण का नया संकट
1980 के दशक तक अरावली क्षेत्र में वैध और अवैध मिलाकर लगभग 28,000 खदानें संचालित हो रही थीं। इन खदानों को बंद कराने का बीड़ा 1988 में तरुण भारत संघ ने उठाया। 1993 तक लंबी और कठिन लड़ाई के बाद अरावली लगभग खनन-मुक्त हो गई। यह केवल कानूनी कार्यवाही नहीं थी, बल्कि अरावली की आत्मा और सांस्कृतिक विरासत को बचाने का प्रयास था।
इस मुहिम की शुरुआत 1990 के विजयदशमी पर सरिस्का में खनन रोकने से हुई। फिर 2 अक्टूबर 1993 को हिम्मतनगर (गुजरात) से निकली अरावली चेतना यात्रा ने खनन विरोध का संदेश दिल्ली तक पहुँचाया। 22 नवंबर 1993 को यह संदेश संसद तक गया और उस दिन ऐसा प्रतीत हुआ कि अरावली ने एक बार फिर जीवन लिया।
1994 में सभी जिलों में अरावली संरक्षण समितियां बनाई गईं और जिला प्रशासन को खनन रोकने की जिम्मेदारी सौंपी गई। सर्वोच्च न्यायालय को नियमित रिपोर्ट भेजने का तंत्र भी स्थापित किया गया। उस समय लगता था कि अरावली सुरक्षित है और आगे के लिए स्थायी व्यवस्था बन गई है। 1996 आते-आते मैं निश्चिंत हो गया और मान लिया कि मेरा संकल्प पूरा हुआ।
लेकिन केवल दस-पंद्रह वर्षों के भीतर स्थिति बदल गई। खनन संगठन और लॉबी अधिक ताकत और संसाधन जुटाकर सक्रिय हो गई। सरकारों और खनन उद्योगपतियों के गठजोड़ को सर्वोच्च न्यायालय की मोहर भी मिल गई। खनन फिर से खुलवाने की कोशिशें तेज हो गईं। उसी समय कई युवा, जैसे ख्याली मीणा, अरावली बचाने के लिए आगे आए। पूरी अरावली में लोग स्वयं सामने आकर संरक्षण में जुट गए। मन को संतोष हुआ, लेकिन मुझे यह पता नहीं था कि वैध और अवैध खनन फिर मेरी आंखों के सामने शुरू होगा।
जब मैंने सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय पढ़ा, तब तक सरकारी एफिडेविट और मंत्रालय की कार्रवाई नहीं देखी थी। प्रारंभ में लगा कि न्यायालय ने चारों राज्यों की अरावली के लिए समान कानून व्यवस्था बनाने के उद्देश्य से 100 मीटर ऊँचाई की परिभाषा तय की है। जैसे किसी गणना में आधार बिंदु निर्धारित किया जाता है, शायद इसे भी वही दृष्टि से अपनाया गया था।
लेकिन वन सर्वेक्षण संस्थान, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) और तकनीकी उपसमिति (TSC) की रिपोर्टें पढ़कर आंखें खुल गईं। यह स्पष्ट हुआ कि यह परिभाषा खनन उद्योग के सतत विकास के नाम पर हमारी प्राचीनतम विरासत के लिए नया संकट पैदा कर रही है।
अरावली का वास्तविक भू-परिदृश्य यह दर्शाता है कि 20 मीटर तक क्षेत्रफल 1,07,494 वर्ग किमी, 20–40 मीटर 12,081 वर्ग किमी, 40–60 मीटर 5,009 वर्ग किमी, 60–80 मीटर 2,656 वर्ग किमी, 80–100 मीटर 1,594 वर्ग किमी और 100 मीटर से ऊपर केवल 1,048 वर्ग किमी है, यानी पूरा क्षेत्रफल का केवल 8.7 प्रतिशत। यदि केवल 100 मीटर से ऊपर को संरक्षण का क्षेत्र माना गया, तो अधिकांश अरावली बचाव से बाहर रह जाएगी।
आदिवासी और स्थानीय समुदाय, जिनके घर, खेत, वाड़े और सांस्कृतिक स्थल अधिकांशतः 100 मीटर से नीचे हैं, वहां से विस्थापित नहीं होना चाहते। उनका जीवन और संस्कृति प्रकृति से जुड़े हैं। खनन की बीमारियों से बचकर दूर रहना उनकी आदत और उनका अधिकार है। अरावली की अपनी प्रकृति और संस्कृति दुनिया में सर्वोपरि है, और खनन उद्योग इसके विरुद्ध कार्य कर रहा है। यही कारण था कि 45 वर्ष पहले जयपुर से अरावली बचाने का काम शुरू हुआ।
पर विडंबना यह है कि उसी क्षेत्र से खनन लॉबी की पहल को न्यायालय ने मान्यता दे दी। संरक्षणकर्ताओं की आवाज़ को अनसुना कर दिया गया। अरावली को बचाने वालों से कभी कोई सरकारी रिपोर्ट तैयार करने वाला नहीं मिला, जबकि अधिकांश संरक्षणकर्ता जयपुर और अलवर में रहते हैं। मुझसे भी किसी अधिकारी ने संवाद नहीं किया। यदि संवाद होता तो मैं वास्तविक जानकारी और सर्वमान्य तथ्य दे सकता था। 100 मीटर ऊँचाई वाली परिभाषा केवल खनन उद्योग की बनाई परिभाषा है और भू-वैज्ञानिक, पर्यावरणविद्, प्रकृति या संस्कृति विशेषज्ञ इसे स्वीकार नहीं करते।
भारत सरकार और चारों राज्यों (गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली) को अरावली की परिभाषा पर पुनर्विचार करना चाहिए। अन्यथा यह सरकारों की बड़ी बदनामी का कारण बनेगी। परिभाषा विवाद को सर्वोच्च न्यायालय पर डालना सही नहीं है। न्यायपालिका हमारे लोकतंत्र का सर्वोपरि अंग है, सरकार से भी ऊपर, पर हाल के फैसले ज्यादातर एकतरफा समझौते जैसा प्रतीत होते हैं। 100 मीटर परिभाषा वाला समझौता अरावली का न्याय नहीं करता और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस निर्णय में अरावली पर्वतमाला के पक्ष को ठीक स्थान नहीं मिला। भारत की संस्कृति और प्रकृति के अनुरूप अरावली पर्वतमाला को न्याय नहीं मिला।
हम सम्माननीय सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना करते हैं कि वे इस निर्णय पर पुनर्विचार करें। अरावली भारत की प्राचीनतम विरासत है। इसे भारतीय संस्कृति और प्रकृति योग का उच्चतम उदाहरण मानकर अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। वही से भारतीय विरासत के अरावली को बचाने की वास्तविक पहल होगी।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षण एवं पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्ता
