– डॉ राजेंद्र सिंह*
पर्वत का दर्द, सभ्यता का प्रश्न
अरावली पर्वत माला हमारी धरती माता के गर्भ से निकली है। इसका खनन करना माँ के गर्भ में ही बच्चे को मारकर निकालने जैसा पाप कर्म है। यही हमें अपने गर्भ से जल देती है, खनन से इसकी गर्भ नालियाँ कट जाती हैं। इसके ऊपर बहने वाली नदियाँ सूख जाती हैं। खेती, वनौषधियाँ, जंगल, जीव-जंतु, जीवाणु जो हमारे जीवन के लिए ज़रूरी हैं वे मरने लगते हैं। यही हमारे विनाश की शुरुआत है। यही हमारी पर्वत माला का दर्द है।
अरावली हमारी धरती माता है। उसके गर्भ से खिलवाड़ करना हमारे लिए आर्थिक विनाश का सबसे बड़ा कारण बनेगा, क्योंकि हमारे लिए भूजल का पुनर्भरण तो अरावली की दरारों द्वारा ही होता है। इसकी दरारें ही सभी जगह पेयजल का पुनर्भरण करती हैं। इसी के कारण चारों राज्यों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध हो रहा है। अरावली का खनन इसके सभी जल स्रोतों को दूषित-प्रदूषित करके सूखा देगा। उसे पुनर्जीवित या परिशोधित करने का कोई रास्ता भी हमारे पास नहीं बचेगा।
खनन पहाड़ों को काटकर पश्चिम के रेगिस्तान को पूर्व दिशा में रेत के नाले-टीलों में बदल देगा। इससे खेती का उत्पादन बहुत तेजी से घट जाएगा। यह खनन भारत की अर्थिकी और पारिस्थितिकी को बुरी तरह प्रभावित करने वाला है। इसलिए अरावली को खनन नहीं, हरियाली दिलाना ही सच्चा न्याय होगा। न्यायालय अरावली को खनन नहीं देकर हरियाली दिलाने वाली पहले की तरह “हरित अरावली” परियोजना चलवाए। यह चारों राज्यों में यहाँ की खेती को प्राकृतिक बनाने में मदद करेगी, जैसे उत्तर-पूर्व के पहाड़ी क्षेत्रों सिक्किम, नागालैंड, असम की खेती को प्राकृतिक बनाने में भारत सरकार खुली छूट दे रही है। वैसे ही राजस्थान ही नहीं, पूरी अरावली के चारों प्रदेशों में आर्थिक मदद देकर प्राकृतिक खेती में अरावली की प्रकृति से समृद्धि के बारे में विचार करने की ज़रूरत है।
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प्रकृति की समृद्धि ही संस्कृति को भी समृद्ध बनाएगी। हमारी मान्यता है कि इंद्र, मित्र, वरुण बादल हमारी हरियाली और पहाड़ियों में ही वर्षा करते हैं। इसी लिए हम पत्थर-पहाड़ को पूजते रहे हैं, क्योंकि हम त्याग कर ग्रहण करने वाली संस्कृति (लॉ ऑफ़ सेक्रिफ़ाइस) वाले हैं। अब हमारी सरकार (लॉ ऑफ़ सेक्रिफ़ाइस) की जगह (लॉ ऑफ़ एक्सप्लोइटेशन) को मानती है। इसीलिए प्रकृति का शोषण ही जब सरकार का लक्ष्य बन गया है, तब अरावली कैसे बचेगी? हाँ, बचेगी यदि हम अरावली बचाने हेतु यज्ञ करें तथा उच्चतम न्यायालय से अपने निर्णय पर पुनः विचार करने की जनहित याचिका लगाएँ।
पाँच सरकारें भारत, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली पर जनदबाव बनाएँ। वे अरावली का दर्द जानें और अरावली को बचाने हेतु उसकी वैज्ञानिक, प्राकृतिक, सांस्कृतिक, योगिक परिभाषा को जानें और स्वीकार करें। 100 मीटर ऊँची पहाड़ियाँ ही अरावली नहीं होती हैं। यह परिभाषा तो अरावली को नष्ट करने वाली परिभाषा है। इसकी मूल परिभाषा “अरावली सम्पूर्ण पर्वत माला है”; खनन इसे खंडित करके इसका दर्द बढ़ाएगा।
अरावली के बड़े हिस्से में प्राकृतिक खेती के स्वस्फूर्त प्रयोग चल रहे हैं। सरकार एक विधिवत कार्य-योजना बनाकर काम करेगी तो यहाँ की संस्कृति और प्रकृति दोनों समृद्ध होंगी। अरावली की रासायनिक व ज़हरीली खाद-दवाई का दर्द कम होगा।
अरावली ने भारत को दो बड़े वन्यजीव राष्ट्रीय उद्यान दिए हैं। बहुत से वन्यजीव अभयारण्य दिए हैं। अब इनकी व्यावसायिक नीति, उद्योग, अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण करने पर अड़े हैं। सरकार वन एवं वन्यजीव बचाने की प्रतिबद्धता और कुशलता-दक्षता बढ़ाने हेतु वन विभाग के कर्मचारियों-अधिकारियों का आदिक शिक्षण, प्रशिक्षण एवं साधन सम्पन्न बनाए। इनके नैतिक अधिकारों का इनको पालन करने दे। इनके कार्यों में आर्थिक ढाँचा बहुत व्यवधान करके इन्हें लचर बना रहा है। इनकी लाचारी-बीमारी मिटेगी तो ये अरावली के दर्द को दूर करने में सक्षम बन सकेंगे। वनों में रहने वाले वन कर्मचारियों को अधिक सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए।
ये कुछ भी अच्छा करते हैं तो इनको उसका श्रेय नहीं मिलता। अच्छे का श्रेय नेता पाता है। इनसे कुछ भूल या गलती होती है तो सजा इन्हें ही भुगतनी पड़ती है। भुगतनी भी चाहिए, लेकिन इनके अच्छे कर्मों का श्रेय भी इन्हें दिया जाए।
अरावली दुनिया की पुरातन विरासत है। इसको और इसकी विरासत बचाने वाली एक परियोजना पर काम करना चाहिए। यह आज बेचारी अरावली बनकर अपने ही आँसू बहा रही है। सरकार इसमें खनन द्वारा और गहरे घाव करके इसे खत्म करने पर तुली है। विरासत के रखवाले तो इसकी विरासत को नष्ट करने के काम ही कर रहे हैं। विरासत के मामले में तो ऐसा लगता है जैसे अरावली की बढ़ ही अरावली को खाने की तैयारी में जुट गई है।
अरावली में सबसे गहरा घाव 20 नवंबर 2025 को हुआ है। इसे तत्परता से पुनर्विचार करके नहीं रोका तो अरावली का घाव फिर कभी नहीं भरेगा। यहाँ की सभी परंपराएँ, धराड़ियाँ, प्रत्येक जाति-गोत्र अपनी आँखों के सामने एक खास किस्म के पेड़ को कटने नहीं देंगे, बचाएँगे। अरावली के सभी उत्सव, तीज-त्योहार प्रकृति-संस्कृति को समृद्ध बनाने वाले हैं। अरावली का खनन उनमें भी प्राकृतिक सामग्री के स्थान पर प्रकृति-विरोधी रासायनिक सामग्री ले आएगा। लोगों को लोभी-लालची बनाएगा। खनन करने वालों का लालच सबसे बड़ा दर्द होता है। हमारे जीवन में जैसे ही लालच बढ़ता है, हमारी मूल प्रकृति और संस्कृति बदलने लगती है। इनके बदलने से सभ्यताएँ सूखकर मरने लगती हैं। भोगी सभ्यता का जन्म होता है।
अरावली को खनन के कारण कुएँ, बावड़ी, झालरे, तालाब, जोहड़, सरिताएँ (नदियाँ) सभी सूख गई थीं। जब सरिताएँ (नदियाँ) सूखती हैं तो सभ्यता भी मरने लगती है। अरावली के खनन-दर्द से यहाँ की सभ्यता सूखेगी और मरेगी। 1991 में खदान बंद होने से नदियाँ पुनर्जीवित हुई हैं और यहाँ की मूल सभ्यता का पुनः जन्म हुआ है।
अरावली का जलवायु परिवर्तन से बेमौसम वर्षा होगी। खनन तापमान बढ़ाएगा, तो फिर वर्षा की कमी से सूखा आएगा। बादल फटेंगे, तो बाढ़ आएगी। नंगी, कटी पहाड़ियों में बादल फटने की घटनाएँ बढ़ जाती हैं। ऐसे सभी क्षेत्र बाढ़-सूखा प्रभावित क्षेत्र बन जाते हैं। यही बाढ़-सुखाड़ की प्रलय (विनाश) अरावली का दर्द है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
