अरावली की नई परिभाषा पर सवाल तेज
पर्वतीय विरासत बचाने को एकजुट हुए पर्यावरणविद
कोटा: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अरावली की नई परिभाषा न केवल कानूनी तकनीक का मुद्दा है, बल्कि यह उन लाखों लोगों के जल-भविष्य का सवाल भी है, जिनकी पेयजल आपूर्ति सीधे इस पर्वतमाला की संरचना पर निर्भर है। इसी संदर्भ में कोटा में अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस पर आयोजित संगोष्ठी ने पर्वत संरक्षण के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया। अभेड़ा बायोलॉजिकल पार्क में हुई इस संगोष्ठी में पर्यावरणविद, समाजसेवी, वन अधिकारी और स्थानीय समुदायों के प्रतिनिधि मौजूद थे, जिन्होंने अरावली और हिमालय के संरक्षण के लिए व्यापक संकल्प व्यक्त किया।
संगोष्ठी में चंबल संसद और बाघ-चीता मित्र के संयोजक बृजेश विजयवर्गीय ने कहा कि सभी नदियां पर्वतों के कारण ही उत्पन्न होती हैं, और अगर पर्वत संकट में हैं तो नदियों के साथ सभ्यता भी प्रभावित होगी। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि बंशीपुर जैसे कई पहाड़ खनन के कारण समाप्त हो गए हैं, और गोवर्धन पर्वत पर भी खतरा मंडरा रहा है।
चंबल संसद के अध्यक्ष केबी नंदवाना ने चेताया कि सरकार को पहाड़ों, नदियों और पेड़-पौधों का संरक्षक बनकर काम करना चाहिए। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय की नई परिभाषा में संशोधन लाने की आवश्यकता पर जोर दिया, ताकि अरावली की संरचना और जलस्रोतों को खतरा न पहुँचे।
संगोष्ठी में प्रसिद्ध समाजसेवी जीडी पटेल ने कहा कि जनसंख्या के बढ़ते दबाव और विकास की लालसा पर्वतों के लिए गंभीर खतरा हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी भी कीमत पर पर्वतों से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।
संसद के संरक्षक यज्ञदत्त हाडा ने स्पष्ट किया कि विकास के नाम पर पहाड़ों के साथ जो भयंकर छेड़छाड़ हुई है, वही उत्तराखंड में स्थानीय जन आंदोलनों का कारण बन रही है। उन्होंने यह भी बताया कि 14-15 दिसंबर को गंगोत्री से कोटा तक पैदल यात्रा कर रहे पर्यावरणविद रोबिन सिंह और उनके दल का उद्देश्य पर्वतीय जलस्रोतों और पारिस्थितिकी के प्रति जनता में जागरूकता बढ़ाना है।
संगोष्ठी में उप वन संरक्षक अनुराग भटनागर ने कहा कि वन भूमि को किसी भी हालत में नष्ट नहीं किया जा सकता। उन्होंने स्पष्ट किया कि सर्वोच्च न्यायालय की नई परिभाषा कुछ महत्वपूर्ण पर्वतीय खंडों को संरक्षण से बाहर कर सकती है, जो जल संरक्षण और जैव विविधता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उपाध्यक्ष अनिता चौहान ने कहा कि पहाड़ और नदियां जीवित इकाई हैं, और इन्हें हर कीमत पर संरक्षित करना आवश्यक है।
संगोष्ठी में भाजपा नेता डॉ. एलएन शर्मा और थर्मल विभाग के पूर्व अधिकारी डीके शर्मा ने भी पर्यावरण और विकास के संतुलन पर जोर दिया और चेताया कि संतुलन बिगड़ा तो पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक विरासत दोनों संकट में पड़ेंगी।
स्थानीय स्तर पर प्राकृतिक खेती के स्वस्फूर्त प्रयोग चल रहे हैं, जिन्हें सरकारी आर्थिक सहायता और नीति के माध्यम से व्यापक बनाया जा सकता है। इससे पर्वतीय पारिस्थितिकी और संस्कृति दोनों का संरक्षण संभव है। संगोष्ठी में ज्योति सक्सेना, मनोज यादव, फिरोज और वन विभाग के कर्मचारी भी शामिल हुए, जिन्होंने पहाड़ों और नदियों के संरक्षण पर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की।
हिमालय के संदर्भ में संगोष्ठी ने गंभीर चेतावनी दी कि विकास और खनन के नाम पर छेड़छाड़ बढ़ रही है। उत्तराखंड, सिक्किम और नागालैंड में स्थानीय समुदायों ने प्रदूषण, भू-स्खलन और खनन के कारण अपनी जीवनशैली और कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव देखा है। संगोष्ठी ने स्पष्ट किया कि पर्वत केवल भौतिक संरचना नहीं हैं, बल्कि जलस्रोत, जैव विविधता और सांस्कृतिक पहचान का आधार हैं। इन्हें संरक्षित करना अब राष्ट्रीय प्राथमिकता बन चुका है।
संगोष्ठी ने यह भी जोर दिया कि जन-जागरूकता अभियान, शिक्षा, स्थानीय सहभागिता और वैज्ञानिक अध्ययन पर्वत संरक्षण के लिए आवश्यक हैं। आगामी 14-15 दिसंबर को गंगोत्री से कोटा तक पैदल यात्रा इस पहल को गति देगी और स्थानीय लोगों में जल-स्रोत, पारिस्थितिकी और पर्वत संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाएगी।
इस अवसर पर सभी विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि राष्ट्रीय नीति, कानूनी कार्रवाई और जनता की सक्रिय भागीदारी के बिना अरावली और हिमालय की सुरक्षा असंभव है। यह संगोष्ठी पर्वत संरक्षण के मुद्दे को केवल स्थानीय या राज्य स्तर से ऊपर उठाकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुई।
– ग्लोबल बिहारी ब्यूरो
