पुर्तगाल में सफ़ेद कुर्ते में लेखक
टमेरा, पुर्तगाल में विश्व आदिज्ञान सम्मेलन में हाल ही में दुनिया के लगभग 270 ऐसे लोग एकत्रित हुए जो आदिज्ञान में विश्वास और श्रद्धा रखते हैं। ये वो लोग है जो भारतीय आस्था को पर्यावरण रक्षा का मूल आधार मानते हैं। इनके साथ पांच दिनों तक लगातार बैठकें करके, इस पर्यावरणीय आस्था को बनाए रखने हेतु योजना बनाने पर विचार किया। हम यदि भविष्य को बेहतर बनाना चाहते हैं तो भारतीय ज्ञान तंत्र के प्रकाश में अलग तरह का आदिज्ञान डिजाइन हम सब को मिलकर बनाना होगा।
ऐसा डिजाइन बनाने के लिए सबसे पहले विकास की पश्चिमी मान्यता को नकारना होगा क्योंकि इस विकास में विस्थापन, बिगाड़ और विनाश शामिल है। यदि हम इस बिगाड़ से बचना चाहते है तो वो पुनर्जनन की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। भारत पुनर्जनन और पुनर्जन्म में पूर्ण विश्वास रखता था; अभी भी है। भारतीय ज्ञान तंत्र का आधार है; इसमें पुनर्जनन निहित है। प्रकृति के अजर-अमर का सिद्धांत भारत के आदिज्ञान का आधार रहा है।
आदिज्ञान को पुनर्जीवित करना चाहते हैं तो आधुनिक अभियांत्रिकी, प्रौद्योगिकी और विज्ञान की अध्यात्मकता के साथ संरचनाओं के निर्माण का डिजाइन तय करना होगा। ऐसी संरचना जो प्रकृति को हानि ना पहुंचती हो और प्रकृति का हर तरह से साथ देती हो। प्रकृति का पोषण करने वाली विकास की प्रक्रिया को ही हम पुनर्जन्म मान सकते हैं। यह पुनजन्म की प्रक्रिया के लिए जिस तरह के साधन हमें चाहिए, वह साधन आज के साधनों से अलग तरह के होंगे। इन साधनों में प्रकृति की हानि के स्थान पर प्रकृति के पोषण की संरचना निहित होगी। प्रकृति के पोषण की संरचना को निहित करने के लिए हमें हमारे आधुनिक शिक्षा में भारतीय ज्ञान तंत्र का सम्मानजनक स्थान लाना होगा। इस सम्मानजनक स्थान को केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लाना होगा। पूरी दुनिया जब भारतीय ज्ञानतंत्र को सम्मानजनक स्थान देगी तो समाज भी आगे बढ़ेगा और प्रकृति के पोषण की संरचना बनेगी।
पुनर्जन्म का अर्थ है ‘‘चरैवेति-चरैवेति आदि अनंतः’’ – प्रकृति के पोषण से नया उत्पादन, हमेशा चलते रहना, इसका ना आदि है और ना ही अंत होता है। जब हम प्रकृति के पोषण से नया उत्पादन करते हैं तब प्रकृति में बिगाड़ नहीं होता जैसे मैंने पिछले अपने 50 सालों के पुनर्जीवन काम में जो जमीन पर कार्य किया, उसमें केवल भारतीय विद्या और पानी की विद्या जो लोगों से सीखी, उसी को अपने जीवन में उतार लिया। इस विद्या को अपनाकर ही भारत भूमि पर 23 छोटी-छोटी नदियों को पुनर्जीवित कर सके है। पुनर्जीवन कभी भी विस्थापन, बिगाड़ और विनाश की तरफ हमें लेकर नहीं जाता। इसलिए भारतीय ज्ञानतंत्र में सतयुग और कलयुग सबसे लंबा काल है। इस लंबे काल में ना विस्थापन था, न बिगाड़, और न ही विनाश था जैसे-जैसे व्यक्ति की बुद्धि बढ़ती गई और व्यक्ति में नई कलाओं का प्रवेश होता गया। इन नई कलाओं ने हमेशा धोखा दिया और डराया है। साम, दाम, दंड, भेद की प्रक्रिया मस्तिष्क में बुद्धि से शुरू होती है, वह आत्मा नहीं सिखाती। आत्मा तो हमें प्रकृति के साथ जोड़कर प्रकृति के पुनर्जन्म की प्रक्रिया हमारी आत्मा हमारे हाथों से करवाती है। जब आत्मा दिमाग के ऊपर आकर बैठ जाती है और वह गलत काम नहीं करने देती। हम जीवन में जब भी कुछ भी गलत काम करने की तरफ बढ़ते हैं, तो हमारी आत्मा हमें गलत काम करने से रोकती है। यह हमारे व्यवहार सदाचार केवल आत्मा ही सिखाती है।
भारतीय समझ में भगवान, पंचमहाभूतों के योग को ही माना गया है। पंचमहाभूतों का योग ही भगवान है। पंचमहाभूतों का योग ही एक आत्मा का सृजन करता है; वह आत्मा जब प्रबल होकर अच्छे काम करने लगती है, तो वह फिर परमात्मा के रूप में हमारे चारों तरफ बनी रहती है और हमें अच्छे कामों को करने के लिए तैयार करती रहती है।
इसलिए भारतीय मानस में हमेशा प्रकृति की सोच बनी रही है। प्रकृति की रक्षा के सारे अभिक्रम हम लोग करते रहे हैं। हमारे ज्ञानतंत्र में कदाचित भी प्रकृति की हानि करने का भाव नहीं आता था। प्रकृति की हानि का भाव हमारी शिक्षा से हमारे जीवन के व्यवहार में शामिल हुआ है। जब भारतीय व्यवहार और सदाचार हमारी बुद्धि में प्रबल होकर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने का काम करती रहे, तब हम प्रकृति के बाढ़, सुखाड़, समुद्री तूफान-उफान जैसे संकटों में फंस जाते है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक

