भारतीय मूल ज्ञान प्रकृति प्रेम, सम्मान और संवेदनाओं के अनुभवों की अनुभूति है। यह ज्ञान बहुविध है; लेकिन इस ज्ञान का आधार कोई धर्म, मान्यता, श्रद्धा या भक्ति मात्र नहीं है। पूरे ज्ञान का आधार पंचमहाभूतों से बने मानव और ब्रह्मांड के जीवनी रिश्ते में निहित है। हमारे इन्हीं प्राकृतिक जीवनीय रिश्तों का आधार मानव में प्राकृतिक प्रेम, सम्मान, श्रद्धा, आस्था, प्राकृतिक इष्ट, निष्ठा से भक्ति भाव तक की यात्रा करके, अपने अनुभवों की अनुभूति से जो ज्ञान अर्जन मानव का हुआ है, वही आदि ज्ञान कहलाता है। इसमें समग्रता होती है; यह विखंडित नहीं होता।
मानवीय जीवन पद्धति में प्राकृतिक स्थान ही हमारे आदि ज्ञान चक्र को समझने में मदद करते हैं। भारतीय ज्ञान के चार कालखंड हैं। इसे समझने हेतु पूर्ण प्राकृतिकमय कालखंड को हमने सतयुग कहा है। यह जटिलताओं से मुक्त कालखंड है। इसमें मानवीय लोभ, लालच, लड़ाई, झगड़ा नहीं थे, तब ना ही कोई राजा, ना कोई विद्वान, ना आदिज्ञान, ना शास्त्र और ना ही शस्त्र थे। हम इसी कालखंड को सबसे बड़ा लंबा कालखंड मानते हैं।
जैसे ही व्यक्तियों के मन में राजा और बड़ा विद्वान बनने का लालच शुरू हुआ तो ही ही वेद की रचना हुई, फिर उपनिषद, गीता, रामायण और महाभारत बने। इनमें भी मानव और प्रकृति के रिश्तों के प्रमाण मिलते हैं। इनकी ऊंचाई और मानवीय गुणवत्ता में कमी आने लगी और इसी काल में सतयुग का दौर बदला और त्रेतायुग आरंभ हो गया। इसमें मानवीय दुर्व्यवहार से प्रकृति का क्रोध बढ़ने लगा क्योंकि राजा और विद्वानजन अपने शरीर के भोग में लग गए। श्रमनिष्ट मानव अब भोग निष्ठ बनना आरंभ हुआ, तो मानव और प्राकृतिक सेहत में गिरावट आई। मानवीय और प्राकृतिक रिश्ते टूटने से मानवीय मानस और प्रकृति में सुखाड़ (अकाल) पड़ना शुरू हो गया।
प्राकृतिक सुखाड़ से मानवीय मन में नए-नए विचारों की बाढ़ आने लगी। इन सारे भोगवादी विचार प्रकृति में विनाश बढ़ाने लग। विचारों की टकराहट से आपस में युद्ध आरंभ होने लगा। यह युद्ध धरती और मानवीय रिश्तों को तोड़ने वाली बाढ़ लाने लगे। इस बाढ़ में गोवर्धन पर्वत की ब्रज जैसी हरी भरी उपजाऊ भूमि भी डूबने लगी। यह नए प्राकृतिक विरोधी विचारों की बाढ़ थी। प्राकृतिक बादलों को भी आपस में टकराने वाली बाढ़ के प्रमाण भारतीय शास्त्रों में भी मौजूद हैं। यह काल द्वापरयुग कहलाया; क्योंकि यह सात्विक विचारों का सुखाड़ तथा तामसिक विचारों की बाढ़ लाने वाला काल बन गया।
हमारे सतयुग के दो आधार टूट गए। पहला प्राकृतिकमय जीवन पद्धति में लोभ लालच आया तो राजा और विद्वान दोनों के मन में अपना विस्तार बनाने का भाव जोर पकड़ने लगा। इस भाव से धरती पर अतिक्रमण का भाव स्पष्ट दिखने लगा। इसी काल में दुर्योधन जैसे राजा पूरी जमीन पर अपना कब्जा करने की चाहत में अपने भाई बंधुओं से लड़ने के लिए तैयार हो गया। इस अतिक्रमण के विचार ने मनमानस को प्रदूषित करना शुरू कर दिया और ताकतवार लोग कमजोरों को शोषित करने लगे।
अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण ही तो कलयुग की पहचान है। धरती पर अतिक्रमण से प्रदूषण बढ़ जाता है। शोषण के बिना अतिक्रमण नहीं होता। बस यहीं से आदि ज्ञान के विनाश की कहानी शुरू हो जाती है। इसी काल में ज्ञान को विखंडित टुकड़ों टुकड़ों में देखना शुरू किया। विखंडित से ‘वि’ लेकर विज्ञान में जा़ेड दिया। यही समग्र ज्ञान का विखंडित रूप विज्ञान कहलाया।
प्राकृतिक जीवन आध्यात्मिक होता है। बस विज्ञान ने अध्यात्म और प्रकृति को खंडित करने वाले ज्ञान को अपना आधार बना लिया। आदि ज्ञान कर्मकांड की तरफ जाने लगा, जिससे उसकी उपयोगिता पर सवालिया निशान लग गए हैं। आदि ज्ञान अब विकृत जीवन पद्धति की तरफ प्रकृति से दूर भौतिक सुख लालची बनाकर, जीना सिखाने लगा। इसी प्रक्रिया ने विज्ञान को बढ़ावा दिया।
कलयुग में विज्ञान को सत्य की खोज करने वाला कहा जाने लगा। आदि ज्ञान को टुकड़ों टुकड़ों में तोड़ने वाला विज्ञान कलयुग में प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगा है। विज्ञान से सत्यापित सिद्धांतों को साकार करने वाली अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी भी बहुत तेजी से बढ़ी है। अब तो इनसे भी बहुत आगे रोबोट, ए. आई. आदि सभी कुछ विखंडित विज्ञान ने खोज कर, मानव को मशीन का गुलाम बना दिया है। इस काल में भी आधी दुनिया तो अपने आदि ज्ञान से ही जीवित चल रही है। इस आधी दुनिया के आदि ज्ञान से विखंडित विज्ञान, अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी पर आदि ज्ञान के मापक खोजने हेतु काम करना है।
पूरी दुनिया को बेहतर बनाने हेतु आदि ज्ञान के समय-समय पर बहुत से प्रयास हुए हैं, लेकिन आधुनिक शिक्षा ने उन्हें अपने अर्थदंड से दबा दिया। शोषणकारी बाजार में भी आदि ज्ञान के प्रयास खादी, खेती, ग्राम स्वावलंबन के बहुत से समुदाय कार्यक्रम सफलतापूर्वक टिके रहे और आज भी चल रहे हैं। लेकिन बड़ी मशीन इंसान की इंसानियत और संवेदनाओं को बदल देती है। बदलकर सिद्धांत बनाने वाली तो सभी प्राधिकार केवल आधुनिक शिक्षा को ही प्राप्त है; इसलिए समुदाय ज्ञान से किए गए समयसिद्ध कार्यों को भी सिद्धांत बनाकर प्रचलित नहीं होने देते हैं। जबकि आधुनिक विज्ञान से हुए बहुत से असफल कार्यों के अनुभवों को भी सिद्धांत बना दिया जाता है जैसे नदियों की शुद्धता हेतु सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) पूर्णता फेल है; फिर भी सरकार इसे लागू किए हुए है। लाखों करोड़ खर्च करके भी नदियां और अधिक बीमार बन रही है। नदियों की बीमारी कुछ दूसरी है और इलाज फेल एसटीपी से किया जा रहा है। इसलिए सुरक्षा और कल्याण के नाम पर किए गए कामों से जलवायु परिवर्तन, जल, खाद्य ,स्वास्थ्य, विद्या,जीवन ,जीविका की कोई भी सुरक्षा प्राप्त नहीं हो रही है। इसलिए आदि ज्ञान को स्थापित करने हेतु बहुविद खोज करके समग्रता का जीवन अपनाना होगा।
पूरी दुनिया एक है इसका निर्माण भी एक ही जल, धरती,आकाश, वायु से हुआ है। अतः हम सबको एक समान मानकर विविध रूप में जीवन जीने की आजादी देने वाला हमारा आदि ज्ञान ही है। इसे अब 21वीं सदी में कैसे प्रमाणित व्यवहार में पूरी दुनिया अपनाए, यही आज की चुनौती है। इसका समाधान ढूंढना आज की ज़रुरत है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात एवं स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।

