– ज्ञानेन्द्र रावत*
अक्टूबर में बर्फ, सितम्बर में बाढ़—क्यों बदल रहा मौसम?
इस बार अप्रत्याशित और असामान्य बारिश ने पूरे देश को बेहाल कर दिया। जहां अधिकांश हिस्से बाढ़ और जल भराव की समस्या से जूझते रहे, वहीं वर्षा जनित बीमारियों और अन्य दुश्वारियों ने आम जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। बारिश के इस भीषण कहर से देश के मैदानी इलाके भी अछूते नहीं रहे, जबकि सबसे अधिक इसका खामियाजा उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पंजाब जैसे पर्वतीय राज्यों को भुगतना पड़ा। इन राज्यों में हालात इतने विकट बने कि मानसून का असर इस बार असामान्य रूप से तीव्र और पहले से बिल्कुल अलग दिखाई दिया। लगातार जारी बारिश का यह कहर उसी का परिणाम था। यहां तक कि इस बार तो आफत की बारिश की मार ने राजस्थान जैसे शुष्क राज्य को भी नहीं बख्शा।
दो सक्रिय पश्चिमी विक्षोभों, हरियाणा में बने चक्रवाती हालात और बंगाल की खाड़ी में बने निम्न दबाव के क्षेत्र ने देश के मौसम को चरम स्थिति में पहुंचा दिया। जहां तक हिमालयी राज्यों का सवाल है, वहां भूस्खलन की घटनाओं में आई बढ़ोतरी के पीछे अनियंत्रित निर्माण की बड़ी भूमिका रही है। इसमें अनियोजित पर्यटन, वनों की कटाई और बांध आधारित बिजली परियोजनाओं का इन घटनाओं तथा इनसे हुई मौतों की संख्या बढ़ाने में अहम योगदान रहा। इसके साथ ही अपर्याप्त आपदा प्रबंधन तंत्र और जन-जागरूकता की कमी को भी नकारा नहीं जा सकता।
अब इसमें किंचित भी संदेह नहीं रहा कि भारतीय मानसून की प्रकृति बदल रही है। कभी सूखे जैसी स्थिति और कभी रिकॉर्ड तोड़ वर्षा का सामना अब आम बात हो गई है। महासागरीय परिस्थितियां और क्षेत्रीय दबाव तंत्र मिलकर मानसून को अप्रत्याशित बना रहे हैं। जिन राज्यों ने इस बार भीषण बारिश की मार झेली, वहां भूस्खलन की जितनी घटनाएं हुईं, वे रिकॉर्ड हैं—और यह सिलसिला अब भी थमा नहीं है। यह स्थिति चिंताजनक है।
स्पष्ट है कि यह सब अनियोजित विकास, अनियंत्रित निर्माण और नदियों-पहाड़ों व प्राकृतिक संसाधनों से अनावश्यक छेड़छाड़ का नतीजा है। इस बार इस विनाश का प्रमुख कारण पूर्वी और पश्चिमी हवाओं का टकराव रहा। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ, परंतु इस बार यह टकराव कहीं अधिक तीव्र रहा, क्योंकि दो पश्चिमी विक्षोभ लंबे समय तक सक्रिय रहे और बंगाल की खाड़ी में बना निम्न दबाव क्षेत्र भी लंबे समय तक कायम रहा।
सबसे अहम बात यह है कि परिवहन, उद्योग और वनों की कटाई ने वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को बढ़ाया है, जिससे पृथ्वी का वैश्विक तापमान बढ़ रहा है। इसके परिणामस्वरूप मानसून अधिक सक्रिय हुआ और कई क्षेत्रों में बारिश का चरम स्तर दर्ज किया गया। कमजोर आधारभूत ढांचों का निर्माण, जल निकासी के अपर्याप्त उपाय और शहरी अतिक्रमण ने स्थिति को और बिगाड़ा।
इसके साथ ही, एल-नीनो जैसी प्राकृतिक घटनाएं भी मौसम को प्रभावित करती हैं। इनसे भारत समेत अन्य देशों में सूखे या अधिक वर्षा जैसी असामान्य परिस्थितियां बनती हैं। मौजूदा मौसमी बदलाव महासागरीय स्थितियों से गहराई से जुड़ा है। इस वर्ष प्रशांत महासागर में एल-नीनो कमजोर पड़ा है और ला-नीना के संकेत उभर रहे हैं—जो मानसून को और अधिक सक्रिय बनाते हैं। यही सितम्बर महीने में हुई भारी और भयावह बारिश की प्रमुख वजह रही।
यह एक कटु सत्य है कि जलवायु परिवर्तन वायुमंडल को गर्म कर रहा है और उसकी नमी धारण करने की क्षमता बढ़ा रहा है। इससे भारी वर्षा की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ी हैं। यही कारण है कि दुनिया के वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के लिए विश्व समुदाय से समन्वित कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। मौसमी बदलाव ने अब समूची दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। यह अप्रत्याशित परिवर्तन जलवायु परिवर्तन का ही संकेत है, जिसके चलते देश को हाल के वर्षों में कभी जरूरत से ज्यादा, तो कभी बहुत कम समय में अत्यधिक वर्षा का सामना करना पड़ा है।
लगातार जारी वर्षा और हिमपात ने जहां मैदानी और पर्वतीय इलाकों में गर्मी से राहत दी, वहीं दुश्वारियां और बढ़ा दी हैं। लगभग चार दशक बाद अक्टूबर के पहले हफ्ते में ही उत्तराखंड के पहाड़ बर्फ से ढक गए हैं। इससे लोग अक्टूबर में ही दिसम्बर जैसी सर्दी का अनुभव कर रहे हैं। पर्वतीय राज्यों में हिमपात और बर्फबारी ने सर्दी के साथ-साथ दिक्कतें भी बढ़ाई हैं। मौसम का यह अप्रत्याशित बदलाव देखकर लोग हैरान हैं। वैज्ञानिक इसे पश्चिमी विक्षोभ की तीव्रता का परिणाम बता रहे हैं।
भारत अब जलवायु जोखिम सूचकांक 2025 में सबसे अधिक प्रभावित देशों में से एक है। 1993 से 2022 तक के तीन दशकों में यहां सूखा, लू और अन्य चरम मौसमी घटनाओं से 80 हजार से अधिक मौतें दर्ज की गई हैं, जबकि आर्थिक नुकसान का अनुमान 180 अरब डॉलर से ऊपर है। हाल ही में सांख्यिकीय एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा प्रकाशित “एनविस्टैट्स इंडिया 2025: पर्यावरण सांख्यिकी की आठवीं रिपोर्ट” ने इस संकट की भयावहता को उजागर किया है। रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 25 वर्षों में चरम मौसमी घटनाओं में 269 प्रतिशत की विस्फोटक वृद्धि दर्ज की गई है। यह आंकड़ा केवल मानवीय क्षति का नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध तत्काल समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता का भी संकेतक है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि यह 269 प्रतिशत वृद्धि अचानक नहीं हुई; यह अनेक कारकों का परिणाम है, जिनमें जलवायु परिवर्तन एक प्रमुख कारण है। आईपीसीसी की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है कि मानवीय गतिविधियों से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों ने गर्मी की लहरों, असामान्य वर्षा और चक्रवातों की तीव्रता को और बढ़ाया है।
पृथ्वी की धुरी 23.5 डिग्री झुकी हुई है। इस झुकाव के कारण पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों को सालभर सूर्य की किरणें अलग-अलग मात्रा में मिलती हैं। यही प्रक्रिया ऋतुओं के परिवर्तन का आधार है। दूसरी ओर, तापमान, आर्द्रता और वायुदाब में हुए तात्कालिक परिवर्तन मौसम को तेजी से बदलते हैं। उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर बहने वाली हवाएं उष्मा और आर्द्रता को स्थानांतरित करती हैं, जिससे वायुमंडलीय दबाव में बदलाव होता है और सीधे तौर पर मौसम के पैटर्न पर असर पड़ता है।
पृथ्वी का अपने झुके हुए अक्ष पर सूर्य के चारों ओर घूमना और तापमान, हवा तथा दबाव जैसी वायुमंडलीय घटनाएं मौसम के बदलाव में अहम भूमिका निभाती हैं। यह झुकाव लगभग 41,000 वर्षों में 22.1 डिग्री से 24.5 डिग्री तक बदलता रहता है। जब यह कोण बढ़ता है तो गर्मियां और अधिक गर्म और सर्दियां और अधिक ठंडी हो जाती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार तापमान में वृद्धि की दर का आकलन करें तो अगले दो दशकों में औसत तापमान दो डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है। इसका मुख्य कारण वैश्विक ऊर्जा उपभोग की दर में तेजी से वृद्धि है, जिसके नतीजे में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव होंगे।
पेरिस जलवायु समझौते का लक्ष्य—वैश्विक तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति-पूर्व स्तर से दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना—अब कठिन होता जा रहा है। इससे बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण आर्कटिक की बर्फ पिघलने में तेजी आएगी और अगले 20–30 वर्षों में अटलांटिक महासागर की वर्तमान परिसंचरण प्रणाली अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन के ठप पड़ने का खतरा है।
अत्यधिक तापमान और जलवायु से जुड़ी चरम घटनाएं मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं। अत्यधिक तापमान न केवल कमजोर वर्गों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि नींद में खलल डालता है और हृदय रोगों का खतरा बढ़ाता है। जहां एक ओर नदियां, झीलें और मिट्टी सूख रही हैं, वहीं उनके पारिस्थितिक तंत्र पर निर्भर जीव-जंतु संकट में हैं। आग लगने का खतरा बढ़ा है और कृषि उत्पादन में गिरावट की आशंका है।
सामाजिक दृष्टि से देखें तो चरम मौसमी घटनाओं से महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। गर्मी की लहरें हृदय रोगों और बाढ़ जनित संक्रामक रोगों के प्रसार में अहम भूमिका निभाती हैं। ये स्थितियां राष्ट्रीय विकास को भी बाधित करती हैं। ऐसे हालात में देश की स्वास्थ्य एजेंसियों का दायित्व और सतर्कता बढ़ जाती है।
मौसमी बीमारियों के रूप में वायरल संक्रमण, डेंगू, मलेरिया और टाइफॉइड के मामले भी बढ़े हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर वर्ष विश्वभर में लगभग 6.5 लाख लोग इन्फ्लूएंजा के कारण जान गंवाते हैं। स्टैनफोर्ड और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों के शोध में पाया गया कि एशिया और अमेरिका के 21 देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण 1995 से 2014 के बीच औसतन हर साल 46 लाख डेंगू के मामले दर्ज हुए, जिनमें 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आने वाले 25 वर्षों में यह संख्या तीन गुना से भी अधिक हो जाएगी।
भारत में स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस पर चिंता जताते हुए सभी राज्यों को सतर्क रहने और निवारक उपाय अपनाने के निर्देश दिए हैं। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि मच्छरों के पनपने के हालात को ही समाप्त किया जाए और डेंगू व मलेरिया जैसी बीमारियों के नियंत्रण के लिए समुदाय आधारित ठोस अभियान चलाए जाएं। तभी मौसम की मार के इस दौर में इन बीमारियों पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकेगा।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
