– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
सत्याग्रह के माध्यम से अरावली की संस्कृति और प्रकृति बचाएँ
अरावली अभियान आंदोलन तो निश्चित ही है। सत्याग्रह से ‘साध्य-सिद्धि’ यह अभी प्रश्न है। उच्चतम न्यायालय ने अरावली लोकशक्ति को खड़ा कर दिया है, यह बहुत अच्छा हुआ। लेकिन भारतीय न्यायपालिका पर सवालिया निशाना अच्छा नहीं हुआ है। इसी वातावरण में अरावली की प्रकृति और संस्कृति बचाने वाला अभियान जन्मा है। इसे सभी ने अपने जीवन के लिए चुनौती के रूप में स्वीकार किया है। यहीं से सहज, स्वस्फूर्त लोकशक्ति के जुड़ाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है।
अरावली में खनन बंद कराना और उच्चतम न्यायालय के निर्णय को अरावली की संस्कृति और प्रकृति बचाने हेतु अभियान को आंदोलन का रूप देना ही सबसे पहला काम है। यह सहज ही हो रहा है। लोक विचार इसे आंदोलन बनाएगा। शांतिमय जीवन जीने तथा सत्य और अहिंसा में विश्वास रखने वाले साथी खनन क्षेत्रों में खनन रुकवाने हेतु सत्याग्रह की रीति-नीति से सत्याग्रह की कार्ययोजना व विधिसम्मत शुरुआत करने पर विचार कर रहे हैं। यह भी कार्य रूप लेगा। सत्य अहिंसा के मार्ग पर आगे बढ़ रहा है।
आंदोलन एवं सत्याग्रह दोनों अलग-अलग हैं। इन्हें करने की विधि भी अलग है। आंदोलन कई बार अभियान से स्वयं निकलता है, कई बार वातावरण तैयार करके आंदोलन बनता है। ये दोनों ‘साध्य को साधने’ हेतु अपने स्वरूप में बदलाव करते रहते हैं। सत्याग्रह अपने सत्य के आग्रह पर ही अड़ा रहता है। सत्याग्राही का कोई शत्रु या मित्र नहीं होता। वह अपने साध्य-लक्ष्य के लिए अपने सिद्धांत तय करता है और उन्हें अंत तक जीता है, बदलता नहीं है। कभी कुछ सत्याग्राही सत्य से भटककर हिंसा करते हैं, तब सत्याग्राही ही अपने सत्याग्रह को स्वयं बंद कर देते हैं, रोक देते हैं।
पूज्य बापू महात्मा गांधी ने आज़ादी के आंदोलन में अपने सत्याग्रह को रोका था। काकोरी हिंसा के समय रोका था। ‘करो या मरो’ में लगे आंदोलनकारियों को बापू की यह रणनीति पसंद नहीं आई थी, फिर भी बापू ने अपने सत्याग्रह को जिया था। सत्याग्रह का अपना सिद्धांत है और वह उसी के अनुरूप चलता है।
अरावली आंदोलन में कोई बापू नहीं है। यह आंदोलन किस तरफ जाएगा, मालूम नहीं। यह सहज, स्वस्फूर्त अभियान से आंदोलन की तरफ मुड़ता हुआ दिख रहा है। सत्याग्रह दूर दिखाई देता है। लोक मानस में आज भी प्राकृतिक और सांस्कृतिक लोक आस्था ने भारतीय आस्था को पर्यावरण संरक्षक रूप में अरावली में उभरते देखा जा रहा है। अरावली का आंदोलन केवल अरावली या भारत के लिए नहीं है; इसका प्रचार-प्रसार पूरी दुनिया में होना चाहिए। वह नहीं हो रहा है, और उसे तत्काल प्रभाव से करने की जरूरत है।
मैं भारत के सभी राज्यों में जाकर इसे बता रहा हूँ। 26 दिसंबर को हुबली, होलकोटी में रात्रि में दो बैठकें अरावली के विषय में हुईं। प्रोफेसर राजेंद्र पोद्दार ने हुबली में तथा डॉ डी. आर. पाटिल ने होलकोटी, गदग में आयोजित कीं। 25 दिसंबर को नालंदा विश्वविद्यालय तथा राजगीर शहर में, 24 दिसंबर को हैदराबाद और जयपुर में बैठकें हुईं। राष्ट्रव्यापी आंदोलन बनने की बहुत संभावना है। मैं तो प्रतिदिन राजस्थान से बाहर के राज्यों में ही जा रहा हूँ। राजस्थान के अरावली साथी बुलाते हैं तो राजस्थान भी जाकर बात करता हूँ। मुझे अच्छा लग रहा है।
एक सामूहिक नेतृत्व उभर रहा है। अब आंदोलन कार्यकर्ताओं, अभिभावकों और अभियान में लगे साथियों की और गहरी समझ विकसित करनी है। समझदार, सक्षम साथी भारतीय आस्था से अरावली पर्यावरण रक्षा हेतु समर्पित भाव से आगे आ सकते हैं, लंबे समय तक टिके रहकर, काम कर सकते हैं। समझ में सक्षम ही जीवन को सार्थक बनाकर आगे बढ़ते है।
मैं जानता हूँ कि अरावली बचाओ आंदोलन में समर्पण के साथ लोग आगे आ रहे हैं। ज़्यादातर लोग समझ की सक्षम सार्थकता से अरावली के लिए जो सूझ रहा है, वह सब कर रहे हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि इस आंदोलन में महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है। आंदोलन को तोड़ना-बिखेरना सरकार के लिए कठिन होगा, क्योंकि इसमें सभी जातियों, धर्मों, सर्वधर्मों और धर्मनिरपेक्ष लोगों की बहुलता है। ऐसे में संघर्ष सत्याग्रह-सिद्धि तक पहुँचता है, इसे भी पहुँचना ही है।
आंदोलन में विद्यार्थी, शिक्षक, किसान, पशुपालक, पर्यावरणविद, गांधीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, धार्मिक सभी प्रकार की शक्तियाँ सक्रिय हैं। यह अब केवल अदालती लड़ाई नहीं है; यह पूर्ण रूप से लोक आंदोलन बन रहा है। अब न्यायपालिका को भी लोकशक्ति को संविधान के प्रकाश में देखना पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ही अरावली की पीड़ा को सुनकर समझौता नहीं, न्याय करेगी। अरावली का शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण रुकेगा।
अरावली अभियान का आंदोलन बनना तो निश्चित है। सत्याग्रह बन गया तो राज-समाज में बदलाव आएगा, क्योंकि इसका साध्य अरावली की प्रकृति और संस्कृति बचाना है। इसके लिए अरावली की ज़मीन बिना ऊँच-नीच के बचाना ही रास्ता है। उसी रास्ते पर यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षण एवं पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्ता। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
