– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
अरावली बचाओ: पर्वत, संस्कृति और लोकतंत्र की पुकार
पर्यावरण मंत्रालय पहले आज की तरह उद्योग के लिए कार्य नहीं करता था। आज का पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण बचाने के कार्य से भटक गया है। यह मंत्रालय पर्यावरण संरक्षण के लिए बना है, लेकिन उच्चतम न्यायालय को दिए गए इसके एफिडेविट देखकर स्थिति स्पष्ट हो जाती है।
रियो डी जनेरियो, ब्राज़ील में हुए पृथ्वी शिखर सम्मेलन के बाद “सस्टेनेबिल” जैसे शब्दों को हमारी शब्दावली में शामिल किया गया, ताकि उद्योगपति अपने शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण को वैध रूप दे सकें। मैं इस शब्द की उत्पत्ति का साक्षी हूँ। इस शब्द के विरुद्ध हमने कितनी लड़ाइयाँ लड़ीं, वह यहाँ विस्तार से नहीं लिख रहा हूँ। किंतु यह स्पष्ट है कि खनन में इस शब्द का उपयोग पूरी दुनिया को भ्रमित करने के लिए किया गया है।
नवम्बर 2025 से पूर्व उच्चतम न्यायालय, भारत की न्यायपालिका अरावली को अपनी पुरातन विरासत मानकर बचाने के फैसले सुना रही थी। अरावली के जंगल, जंगली जानवरों, जंगली जीवों के साथ-साथ जंगलबासियों को भी बचाया जा रहा था, जिससे अरावली पर्वत श्रृंखला संपूर्ण रूप से सुरक्षित बन रही थी। सरकारें भी उच्चतम न्यायालय एवं न्यायपालिका को इसमें सहयोग कर रही थीं।
12 वर्ष पूर्व तक ऐसा लगता था कि न्यायपालिका भारत की विधायी पालिका और कार्यपालिका से ऊपर है। लेकिन अब स्पष्ट होता जा रहा है कि न्यायपालिका विधायीपालिका एवं कार्यपालिका के निवेदन व निर्देशों से चल रही है या फिर सरकारी अथवा उद्योगपतियों के दबाव में काम करने लगी है। तभी तो वह पुरानी न्यायपालिका, जो विचारपूर्वक देश के लोकतंत्र को सर्वोपरि मानकर भारत की प्रकृति व संस्कृति को केंद्र में रखती थी, अब अरावली जैसी पुरातन विरासत को मिटाने वाले षड्यंत्र का हिस्सा बनती दिखाई दे रही है।
विधायी पालिका और कार्यपालिका ने मिलकर उद्योगपतियों के लिए भारत की दुनिया में बदनामी का यह षड्यंत्र रचा है। यह किसी और ने नहीं, बल्कि स्वयं हमारी सरकार ने किया है। यह जानबूझकर हुआ है या अनजाने में यह स्पष्ट नहीं है। पर अब यह हो चुका है। इसका खामियाजा जनता को भी भुगतना पड़ेगा और सरकार को भी।
आज केवल अरावली ही नहीं, बल्कि तेलंगाना, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के प्रदेशों के लोग भी अपने पहाड़ बचाने के लिए जनआंदोलन शुरू कर चुके हैं। यह आंदोलन भारत के किसान आंदोलन जैसा रूप ले सकता है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि, इससे हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका के सम्मान पर भी आंच आ सकती है, जबकि भारत में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।
स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि कई संत उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों पर आरोप लगाने लगे हैं। मातृ सदन के संत स्वामी श्री शिवानंद सरस्वती तो पूर्व मुख्य न्यायाधीश का नाम लेकर उन्हें भारत की संस्कृति, प्रकृति और विरासत को न समझने वाला अयोग्य-मूर्ख तक कह रहे हैं। ऐसी आवाज़ें अब चारों ओर से उठने लगी हैं।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतंत्र में लोक सर्वोपरि होता है। संविधान सभी को समता का अधिकार देता है। किंतु अरावली के संदर्भ में न्यायपालिका ने पर्वत को भी ऊँच-नीच की परिभाषा में बाँट दिया है। ऊँचे हिस्से को बचाना और नीचे के हिस्से को काट देना। इससे भारत की लोक शक्ति में गहरा क्रोध व्याप्त हो गया है। जो न्यायपालिका नीचे वालों को न्याय देती है, वही अब नीचे वालों को नष्ट करने के आदेश देकर समाज में ऊँच-नीच का भाव पैदा कर रही है।
अरावली हम सभी की माँ है। इसके हाथ, पैर, पेट, छाती को काटकर केवल गर्दन के ऊपर के हिस्से को बचाने वाला यह आदेश जनमानस में असमानता की भावना को भड़काता है। इसे बदलने के लिए भारत की संपूर्ण लोक शक्ति अपील करती है, हमें मत बाँटो। अरावली को बाँटना भारत के समाज को बाँटना है। अरावली हम सबकी एक माँ के समान है, इसे मत काटो।
जैसे न्यायपालिका ने पहले अरावली को बचाने का कार्य किया था, वैसे ही निर्णय की अपेक्षा करते हुए हम आज भी अपनी न्यायपालिका में विश्वास के साथ प्रार्थना करते हैं कि संपूर्ण अरावली श्रृंखला को एक मानकर, मानवीय शरीर की तरह संरक्षण दिया जाए। विदेशी वैज्ञानिकों की परिभाषाओं को भारत की पर्वत श्रृंखलाओं पर लागू मत कीजिए। वे पहाड़ों को केवल पत्थरों का ढेर और भोग की वस्तु मानते हैं। वे उन्हें तीर्थ नहीं मानते, जबकि हम पहाड़ों को तीर्थ और देवतुल्य मानते हैं।
हमारे लिए पहाड़ भोग की वस्तु नहीं हैं। ये हमारे भगवान हैं। भगवान( भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर) इन पाँच तत्वों से मिलकर अरावली बनी है। हम इसे अपने जीवन को चलाने वाले पोषक तत्वों की उत्पत्ति का आधार मानते हैं। इसे हमारे जीवन का आधार बने रहने दीजिए। इसे नष्ट मत कीजिए।
हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र है। हम अपेक्षा करते हैं कि वह अपनी स्वतंत्रता को बचाते हुए भारत की प्रकृति और मानवीय संस्कृति को सर्वोपरि माने, अरावली के दर्द को सुने और उसके आँसू पोंछे। हम अरावली के सभी लोग समता और सादगी के साथ पुनः प्रार्थना करते हैं कि अरावली की जनता और अरावली पर्वत श्रृंखला को न्याय मिले और भारतीय न्यायपालिका को विश्वास व सम्मान प्राप्त हो।
मैंने अपनी 29 वर्ष की उम्र में, 1991 में, अरावली के जंगलों और जंगली जानवरों को बचाने हेतु उच्चतम न्यायालय से पहला निर्णय प्राप्त किया था। सरिस्का की 478 खदानें बंद कराने का आदेश। 1992 में अलवर, गुड़गाँव, अबका फरीदाबाद और मेवात जिलों में खनन बंद कराने के आदेश मिले। इसके आधार पर 7 मई 1992 को भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय से कानून पास कराया गया।
1993 में संपूर्ण अरावली की खदानें और रियल एस्टेट के नए शहर तुड़वाए गए। अरावली को प्राकृतिक संवेदनशील क्षेत्र घोषित कराकर, जनता के साथ मिलकर हिम्मतनगर (गुजरात) से अरावली शहनाद यात्रा के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से खदानों में जाकर सभी खदानें बंद कराई गईं। 22 नवंबर 1993 को संसद पहुँचकर लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटिल को ज्ञापन सौंपा गया, जिसके बाद सभी खदानों को बंद कराने और विकास के नाम पर हो रहे विनाश पर पाबंदी का आदेश प्राप्त हुआ था।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षण एवं पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्ता। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।

Kudos to Dr Rajendra Singh for his write up to save Aravali range with such an in-depth study. The last resort in a democracy seems to be cracking under the weight of silver coins. What to say about an esteemed institution whose one member’s bunglow witnessed burning of hundreds of crores of rupees!
There is no other way than to keep voicing against this verdict to protect not only a mountain range , but our very existence as a nation.