– डॉ राजेंद्र सिंह*
वन-औषधियों का खजाना बचाओ
अरावली पर्वतमाला, जो दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक मानी जाती है, अपनी अपार और अनगिनत प्रचुरता के लिए सदियों से मानव जीवन को पोषित और समृद्ध करती आई है। इसके विशाल विस्तार में फैले घने जंगल, विविध प्रकार के वन्यजीव, और असंख्य औषधीय जड़ी-बूटियाँ एवं वनस्पतियाँ भारतीय संस्कृति, आयुर्वेद और सनातन जीवनशैली की मजबूत आधारशिला रही हैं।
इस पर्वतमाला के हृदय स्थल में स्थित सरिस्का और रणथम्भोर जैसे बाघ अभयारण्य न केवल वन्यजीवों के लिए सुरक्षित आश्रय हैं, बल्कि ये ऋषि-महर्षियों की प्राचीन साधना स्थली भी रहे हैं, जहाँ आज भी तीर्थ स्थल उनकी पुरानी कहानियाँ और आध्यात्मिक विरासत को जीवंत रखते हैं। यहाँ के आदिवासी वनवासी पहाड़ों, जंगलों और नदियों को अपना भगवान मानते हैं, और इनकी यह प्रचुरता उनकी दैनिक जीवनशैली, संस्कृति और अस्तित्व का अभिन्न अंग है—चाहे वह शक्तिशाली बाघ जैसे वन्य प्राणी हों या जीवनदायिनी वनौषधियाँ।
हमारा समूचा आयुर्विज्ञान इन वनों और वनौषधियों पर ही आधारित रहा है, जो छोटी-मोटी बीमारियों से लेकर दुनिया के सबसे असाध्य कहे जाने वाले रोगों तक का सफल इलाज सदियों से करते आए हैं। वैद्य आज भी गर्व से कहते हैं कि चिकित्सा विधा प्रयोगशालाओं का विषय नहीं, बल्कि जंगलों में साधना की विषय-वस्तु है। जब पाश्चात्य सभ्यता के लोग जंगलों में भेड़ें चरा रहे थे, तब यहाँ के सनातनी लोग वनों में मस्तिष्क की शल्य-चिकित्सा जैसे उन्नत कार्य कर रहे थे—यह सब अरावली के प्राचीनतम भारतीय ज्ञान और इसके जंगलों की अनुपम देन है। उन प्राचीन विज्ञानियों के वंशज आज भी इन जंगलों में विद्यमान हैं, पूरा पारंपरिक ज्ञान समेटे हुए। सरिस्का के हरिपुरा गाँव के नानगराम गुर्जर जैसे वनवासी बताते हैं कि चाहे रक्तस्राव कितना भी तेज क्यों न हो, रोखड़ी (सदाही) घास को कुचलकर लगाने मात्र से वह तुरंत बंद हो जाता है; बुखार के लिए सहदेवी और काली मिर्च का काढ़ा रामबाण औषधि है; साधारण खाँसी-जुकाम में तुलसी के पत्तों का काढ़ा पीकर और थोड़ा परहेज करके आराम मिल जाता है। गाँवों में लोग आज भी इन जड़ी-बूटियों पर पूरा विश्वास करते हैं क्योंकि वे इनसे ठीक हो जाते हैं। भील जैसी जातियों की महिलाएँ स्थानीय वनस्पतियों से परिवार-नियोजन तक का उपचार स्वयं कर लेती हैं, बिना किसी बाहरी खतरनाक दवा के।
अरावलीवासी “मोटो खाणों और मोटो पहनणों” के सिद्धांत में विश्वास रखते हैं, अर्थात अपनी स्थानीय उपलब्ध वस्तुओं का ही उपयोग करना, जिसमें किसी तरह की बाहरी बनावट या लग्ज़री न हो। शायद इसी लग्ज़री की होड़ ने हमें संकट में डाल दिया है—आज लोग गोरा बनने के चक्कर में तरह-तरह के रासायनिक प्रसाधन लगाते हैं, जिससे चर्म रोग बढ़ते हैं, जबकि पारंपरिक तेल-उबटन से त्वचा सुरक्षित और शरीर हृष्ट-पुष्ट रहता था। सत्तानासी या कालो खेर की छाल का काढ़ा पीने से सभी चर्म रोग दूर हो जाते हैं; शरीर में सुस्ती या शुष्कता आने पर सरसों के तेल में लहसुन पकाकर मालिश करने से सब शिकायतें गायब हो जाती हैं। एलोपैथी के पास हृदय रोग और रक्तचाप की दवाएँ न होतीं यदि सर्वगंधा की जड़ न होती—पेटेंट दवा सर्वाइना उसी से बनी है; मलेरिया की कुनैन सिनकोना वृक्ष से आती है। लेकिन पाश्चात्य विधि से बनी इन दवाओं में कुप्रभाव भी आ जाते हैं, किन्तु स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम्। आतुरस्य विकार प्रशमनम् च।।
अरावली की वनौषधि से बनी कोई भी औषधि विकार तो पैदा ही नहीं कर सकती, जैसा कि इस श्लोक में दर्शाया गया है। रोगी को निरोग्य बनाने और निरोग को स्वास्थ्य लाभ देने वाली होती हैं ये वन-औषधियाँ।
वासानायाम, आशायाम जीवित्स्य च, रति पिति, क्षयी कासी, विमर्थन औषधिति।
उक्त श्लोक से स्पष्ट है कि वनौषधियों के उपयोग से तो क्या, यदि उस औषधि का वृक्ष भी पास में मौजूद है तो जीवन की आशा बँधती है। वट और पीपल के नीचे रात में सोना इसलिए वर्जित नहीं कि प्रेत रहते हैं, बल्कि रात्रि के समय वे अधिक कार्बनडाइऑक्साइड गैस छोड़ते हैं। तुलसी का पौधा आँगन में लगे होने मात्र से तमाम रोगों से मुक्ति मिलती रहती है। यह सारी पद्धतियाँ और ज्ञान अरावली के आदिवासी आज के आधुनिक चिकित्सा विज्ञान से कहीं अधिक गहराई से जानते हैं, यही कारण है कि वे कम बीमार पड़ते हैं और स्वयं ही इलाज कर लेते हैं।
कालान्तर में जब ऋषि परम्परा कुछ लुप्त-सी हो गई, तो अरावली साधना और आध्यात्म का केंद्र रहने के बजाय मानव के भौतिक सुखों और विलासिता का केन्द्र बनने लगी। यह क्षेत्र सांसदों, विधायकों, अधिकारियों और उद्योगपतियों की ऐशगाह तथा शिकारगाह बनकर रह गया। मानव ने अपनी वैचारिक विलासिता के चलते इसे कभी रूख क्षेत्र, कभी संरक्षित क्षेत्र, कभी अभयारण्य, कभी बाघ परियोजना, तो कभी राष्ट्रीय उद्यान का नाम दिया, लेकिन अब तो अरावली की मूल परिभाषा ही खनन के पक्ष में बदल दी गई है, और पूरी अरावली के 92% क्षेत्र को खनन की पूरी छूट दे दी गई है। राजस्थान के अलवर, सवाई माधोपुर जैसे चर्चित जनपदों में सरिस्का और रणथम्भोर का यह क्षेत्र खनन के दर्द से कराह रहा है, और यह दर्द भारत भर के लोगों से जुड़ा हुआ है।
राष्ट्रीय उद्यान की परिभाषा को साकार बनाने के नाम पर सरिस्का-रणथम्भोर क्षेत्र में बसे गांवों को उजाड़कर बाहर बसाने के प्रयास हो रहे हैं, जबकि दूसरी ओर इनकी घाटियों और पहाड़ियों को डायनामाइट से विध्वंस किया जा रहा है। क्या मूल निवासियों को इन वन्यजीव क्षेत्रों से खदेड़कर, सरिस्का और रणथम्भोर का सीना चीरकर कभी ये परिभाषाएँ पूरी हो पाएंगी? जो लोग जंगल को केवल भौतिक आवश्यकताओं का केंद्र मानते हैं, वे तो समर्थन करेंगे, लेकिन इससे पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ेगा, वन्य प्राणियों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा, भारत की प्रकृति और संस्कृति का विध्वंस होगा, और अर्थव्यवस्था भी 32% से गिरकर 6% पर आ जाएगी। मानव अपनी प्रकृति और पर्यावरण के साथ नाजायज छेड़छाड़ करके खुद बीमारियाँ पैदा कर लेता है, जिन्हें सनातन भाषा में प्रकृति का प्रकोप या पापों का फल कहा जाता है। आयातित चिकित्सा से क्षणिक राहत मिलती है, लेकिन उसके परिणामस्वरूप कैंसर और सिलिकोसिस जैसी लाइलाज बीमारियाँ पाल लेते हैं, जो इसी अरावली के खनन से जन्मी हैं—यह हमारा आज का तथाकथित नया विकास है।
फिर भी, आशा की किरण बाकी है। बहुत-सी संस्थाएँ और लोग इन वन्यजीव क्षेत्रों पर जन दबाव कम करने के लिए जंगलों के बाहर प्रकृति पुनर्जनन का काम कर रहे हैं। जैसे तरुण भारत संघ ने गोपालपुरा में खेती और रोजगार के लिए वर्षा जल के उपयोग हेतु बाँध बनाए, जिसके परिणाम देखकर ग्रामीणों में उत्साह जागा, और सरिस्का-रणथम्भोर के आसपास थानागाजी, राजगढ़, अलवर, जयपुर, सवाई माधोपुर, करौली, धौलपुर, दौसा जैसे जिलों के 2000 गांवों में 15800 बाँध और तालाब बन गए।
लेकिन इन कार्यों में अलवर जिला प्रशासन, राजस्थान के सिंचाई विभाग और वन विभाग ने खूब अड़ंगे लगाए, रणथम्भोर में भी यही हुआ, जबकि सभी कार्य वन और वन्यजीवों के हित में ही थे। शिक्षा शुरू करने पर सरिस्का के निदेशक ने कहा कि गाँव अवैध हैं, इसलिए कोई सामाजिक कार्य की इजाजत नहीं, लेकिन बिना सरकारी मदद के काम चले। सिंचाई विभाग ने बाँध तोड़ने के आदेश दिए, अलवर प्रशासन ने हरा-भरा किया क्षेत्र फिर बसाने दिया। इन सबके बावजूद वनवासियों में चेतना जागी, उन्होंने जंगल, जानवर, पहाड़ और पर्यावरण बचाने की ठान ली। अनपढ़ कहे जाने वालों ने सिद्ध किया कि वे जंगल से प्यार करते हैं और संरक्षण की असली जिम्मेदारी उनकी है—खनन के खिलाफ सत्याग्रह करके रोका।
पर्यावरण संरक्षण समाज की मूलभूत आवश्यकता है, चाहे वातावरणीय, वैचारिक, बौद्धिक या भौतिक। सरकार प्रयास कर रही है, लेकिन विचारधारा के अभाव में परिणाम सीमित रह जाते हैं, कभी विपरीत कार्य भी हो जाते हैं जैसे उद्यान के बीच खनन लीज। समस्या पर्यावरण की परिभाषा में है—सरकारी परिभाषा केवल पहाड़, पेड़, जंगल, पानी तक सिमट गई, प्रकृति, संस्कृति और सभ्यता गायब। जंगलवासियों को खत्म करके खनन करना यदि सतत विकास है तो ऐसे विचारकों का सम्मान कैसे करें? वन विभाग वन्यजीव बचाने का दावा करता है लेकिन खनन करवाता है, परिभाषाएँ बदलवाता है। अरावलीवासी कहते हैं कि जंगलात को अधिकार बढ़े तो जंगल और पशु नष्ट हुए, संरक्षण की जगह भक्षण हुआ, रिश्ते टूट गए, जंगल सरकार का हो गया। अरण्य संस्कृति में खनन की विनाशक परिभाषा थोप दी गई। कोई विभाग संस्कृति या प्रकृति-संस्कृति के योग के लिए नहीं।
खनन छूट से सभी बीमार होंगे, कमाई से ज्यादा चिकित्सा पर खर्च, खान मालिक लाभ लेंगे लेकिन हानि अपूरणीय। अरावली का दर्द सुनें सरकार और न्यायालय, निर्णय बदलें। नहीं तो जनता को सत्याग्रह, संघर्ष और यज्ञ करना होगा। 35 वर्ष पहले सरिस्का वासियों ने पर्यावरण यज्ञ से खनन रोका था। अब नई पीढ़ी को खड़ा होना होगा।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
