– डॉ राजेंद्र सिंह*
परंपरागत खेती: अरावली की सच्ची विरासत
खनन रोकें, अरावली को पोषक बनाएं
क्या वाकई हम इतने अधिक हो गये कि पेट भरने के लिए अधिक उत्पादन की होड़ में अरावली की प्रकृति (धरती) का मर्यादित उपयोग भूल बैठे हैं? यह महज एक तथाकथित पाश्चात्य संस्कृति का फैलाया हुआ भ्रम है। वैसे भी भारत जैसे खेतिहर देश, जिसकी बुनियाद धरती से जुड़ी है, वहाँ यह बात असफल होती है कि बढ़ती जनसंख्या के उपभोग हेतु प्रकृति का बेहिसाब शोषण किया जाए। यह बात अपने में सार्थक है कि जो हाथ जमीन से जुड़े हों, वे कभी भूखे नहीं मर सकते।
खेती के मामले में, “हरित क्रान्ति” जो श्रायातीत पद्धति है, ने तो धरती का इस प्रकार दोहन किया है कि पंजाब, हरियाणा जैसे हरियाली के लिए मशहूर राज्य भी गेहूँ और धान की जगह ए.के. 47 (राइफल) उगने लगी हैं। अतः आज हमारा किसान पूर्णतः आयातित खेतिहर हो गया है। भिन्न-भिन्न किस्म के महंगे रासायनिक खाद, संकर बीज, कीटनाशक दवाएँ, कृत्रिम सिंचाई तथा आधुनिक उपकरणों ने न केवल मिट्टी की उर्वरता को ही खतरे में डाल दिया है, बल्कि करोड़ों लोगों को बेरोजगार बना दिया है।
अब अरावली के पहाड़ खोद कर हमारे पेट भरने का काम चालू होगा। 20 नवंबर 2025 को उच्चतम न्यायालय निर्णय दे चुका है।इस निर्णय पर पुनर्विचार होना आवश्यक है। अरावली की खेती शोषक नहीं, पोषक बननी चाहिए।
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क्या इस आधुनिक तरह की खेती के चलते हमारा भरण-पोषण होता रहेगा? नहीं। शायद नहीं। इसका जवाब आज वे देश अच्छी तरह दे सकते हैं, जो “हरित क्रान्ति” तथा विकास के शिकार हो चुके हैं। जब संयुक्त राष्ट्र की समझ में आया कि हम नाश के कगार पर हैं, तो ब्रुंडलैंड आयोग , जिसे औपचारिक रूप से विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग के नाम से जाना जाता है, बना।
बेहिसाब रासायनिक खाद जमीन में डालने से जमीन बंजर बन रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 20 लाख लोग प्रतिवर्ष कीटनाशक दवाइयों की चपेट में आते हैं, जिसमें 40 हजार लोग अकाल मौत मर जाते हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। फसलों में डाली गई कीटनाशक दवाई अपना कुप्रभाव प्रत्येक उपभोक्ता पर डालती है, जिससे तरह-तरह की बीमारियाँ जन्म ले रही हैं। इसके बावजूद भी क्या हानिकारक कीट खत्म हो रहे हैं? शायद नहीं। बल्कि एक नयी तथा शक्तिशाली जाति के कीट की उत्पत्ति हो जाती है।
तथाकथित सुधरे संकर बीज न केवल भिन्न-भिन्न प्रकार की बीमारियों तथा कीट को आमंत्रित करते हैं, बल्कि वे उस जलवायु विशेष में उगने के अनुकूल भी नहीं होते। अधिक पैदावार देने वाली किस्मों (संकर किस्म) ने सघन खेती वाले इलाकों में जमीन के अंदर खनिज तत्वों (गंधक, तांबा, जस्ता आदि जैसे) की कमी उत्पन्न कर वहाँ के लिए एक और खतरा पैदा कर दिया है।
सिंचाई के लिए बड़े-बड़े बाँध, विशाल नहरें, बिजलीघर आदि के बनाने में लाखों हेक्टेयर जमीन बर्बाद की जा रही है। इसका ताजा उदाहरण “नर्मदा परियोजना” हमारी आँखों के सामने है।
इस प्रकार खेती, विकास के नाम पर धंधा नहीं, व्यापार बनकर रह गई है। करोड़ों-लाखों लोगों का धंधा आधुनिक उपकरणों ने हथिया लिया है। बैलों की जगह ट्रैक्टर, थ्रेशर, इंजन ने ले ली है, जिससे हमारा पशुधन तथा उनसे मिलने वाली गोबर खाद आदि चौपट हो गई है।
वैसे इस सबको देखकर अब हमारी आँखें खुलने लगी हैं कि हम तो नाश के कगार पर खड़े हैं, लेकिन यह भी सोचना होगा कि इसका विकल्प क्या हो?
“विकल्प” के लिए बहुत ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। “विकल्प” तो हमारे सामने है, बस थोड़ा पीछे भर देखने की जरूरत है—अपनी परम्परागत खेती पर। हमारी परम्परागत खेती में इस प्रकार का ध्यान रखा जाता था कि जितना हम धरती से लेते हैं उतना ही उसे अपने शरीर श्रम से पोषण दें। फलस्वरूप उपज तथा प्रकृति के बीच एक अटूट संतुलन बना रहता था। अतः जमीन से आवश्यकतानुसार उत्पादन तथा पारिस्थितिकी के बीच संतुलन को हम टिकाऊ, पारिस्थितिकी या परम्परागत खेती कहते हैं।
खेती खाती नहीं, सबको देती थी। अब तो खेती भी सभी कुछ खाने लग गई है। इसी लिए लोभी लालची विकास ने प्रदूषण, शोषण, अतिक्रमणकारी उद्योगों और खनन को जन्म दे दिया है। यह हमारे लिए बहुत ही विनाशक बन रहा है। यह तो प्राचीनतम अरावली पर्वतमाला को भी खा जाएगा।
मिट्टी, गोबर तथा कूड़े-करकट से बना खाद खेतों को केवल उपजाऊ ही नहीं बनाता बल्कि मिट्टी में नमी भी बनाता है तथा हानिकारक कीट (जैसे दीमक) को भी खेत में नहीं पनपने देता। अरावली के ज्यादातर गाँवों में लोग कीटनाशक के रूप में घरेलू उपचार करते हैं, जिससे न तो किसी प्रकार की हानि होती है न ही बाजारू कीटनाशक रासायनिक घोल खरीदने की जरूरत होती है। यदि खेत से दीमक भगानी है तो गोबर (बकरी के मींगन) की खाद की मात्रा खेत में बढ़ा दी जाती है तथा खेत की मेड़ों पर आंकड़े के पौधे बो दिए जाते हैं। नीम, महुआ, केला आदि भी अच्छे कीटनाशक वृक्ष हैं।
खेत में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ानी होती है तो हरी खाद बो देते हैं। सनई व ढेंचा इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। फसलों को अदल-बदल कर बोना भी खेत को उपजाऊ बनाए रखता है। जकड़ा जड़ों वाली फसल के बाद मूसला जड़ों वाली फसल बोने से उर्वरता बनी रहती है। द्विफलीय फसलें बोने से खेतों में लगातार उर्वरक तत्व बने रहेंगे।
अपनी परम्परागत खेती के चलते कभी भी सिंचाई के लिए बड़े-बड़े बाँधों की जरूरत महसूस नहीं की गई। लोग वर्षा के पानी पर ही निर्भर रहते थे, किन्तु आज के हालात तो ये हैं कि अपने पानी के भंडार भी खाली नजर आने लगे हैं। लेकिन कुछ जगह आज भी बरसाती पानी इकट्ठा करने की परम्परा मौजूद है, या यूँ कहिए कि एक बार बीच में झटका लगने के बाद दोबारा उन्होंने पानी की परम्परागत पद्धति अपनाई है। उदाहरणतः अरावली के गाँवों में पिछले पचास वर्षों में लोगों ने बरसाती पानी प्रबंधन हेतु 15800 छोटे परम्परागत तालाब व बाँध बनाए हैं, जिनसे 23 नदियाँ पुनर्जीवित होकर शुद्ध सदानीरा बनकर बहती हैं।
यदि आधुनिक खेती को छोड़ कर परम्परागत खेती को न अपनाया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा देश भी पाश्चात्य देशों की भाँति पछताएगा।
फिर भी खनन एवं उद्योग ही जमीन को खेती के योग्य नहीं छोड़ेंगे। इसलिए खेती को बाज़ार नहीं, संस्कृति-प्रकृति का योग्य बनाएँ—यही जलवायु परिवर्तन के वैश्विक संकट का अनुकूलन और उन्मूलन है।
खेती से 200 वर्ष पूर्व तक हमारी जी.डी.पी. 32% हो गई थी। अब तो खेती और उद्योगों के लालची विकास ने इसे पैंदे में बैठाकर 6% पर लाकर खड़ा कर दिया। कभी-कभी तो यह 3% पर भी पहुँच जाती है। इसलिए प्राचीनतम विरासत—अरावली के लोग खड़े हों। विनाशकारी खनन एवं उद्योगों से बचाएँ। इसे सांस्कृतिक और प्राकृतिक बनाकर ऐसा डिज़ाइन बनाएँ जिससे यह विकास, विस्थापन, बिगाड़ और विनाश मुक्त बना रहे।
लालची विकास वाली खेती तो प्रदूषण, शोषण करके किसानी, पानी, जवानी को बेकार बना देती है। इससे अरावली को उजाड़मुक्त बनाएँ। यहाँ की खेती, खनन–उद्योग अरावली का शोषक नहीं, पोषक बने।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
