– ज्ञानेन्द्र रावत*
सांस-सांस पर संकट: देश में जहरीली हवा हावी
वायु गुणवत्ता का पृथ्वी की जलवायु और वैश्विक पारिस्थितिकीय तंत्र से गहरा संबंध है। वातावरण में मौजूद हर कण और गैस न केवल तापमान, बादलों और वर्षा जैसे प्राकृतिक तंत्र को प्रभावित करते हैं, बल्कि मानव समाज, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था तक पर सीधा प्रभाव डालते हैं। यह संबंध जितना वैज्ञानिक है, उतना ही खतरनाक भी, क्योंकि आज भारत ऐसे दौर में खड़ा है जहाँ हवा मानव अस्तित्व के लिए ही संकट बन चुकी है। देश में वायु प्रदूषण अब किसी मौसम विशेष की समस्या नहीं रहा, बल्कि साल भर बना रहने वाला ऐसा सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरा बन चुका है जिसने सांस लेना तक चुनौती बना दिया है।
आज स्थिति यह है कि भारत दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में शामिल है और हर साल बीस लाख से अधिक लोग जहरीली हवा के कारण अकाल मृत्यु के मुंह में धकेल दिए जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देश में 93 प्रतिशत बच्चे प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी रोज़ाना असुरक्षित स्तर की हवा में जी रही है। अनुमान बताते हैं कि भारत में एक-तिहाई से अधिक श्वसन सम्बन्धी मौतों और लगभग 40 प्रतिशत स्ट्रोक मौतों से वायु प्रदूषण का सीधा संबंध है। यह संकट केवल आधुनिकता की कीमत नहीं, बल्कि उस दोहन का परिणाम है जिसने पंचमहाभूत—धरती, आकाश, अग्नि, जल और वायु—को उस हद तक प्रदूषित कर दिया है कि जीवन के प्राकृतिक आधार ही डगमगा चुके हैं। आयुर्वेद और भारतीय दर्शन जिन तत्वों को ब्रह्मांड और मानव शरीर का मूल मानते हैं, वही आज मानवजनित लापरवाही से सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हैं।
हवा में मौजूद प्रदूषक तत्वों की लंबी सूची किसी भी वैज्ञानिक को सतर्क कर देने के लिए पर्याप्त है। कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, क्लोरीन, सीसा, अमोनिया, कैडमियम और धूल जैसे प्रदूषक भारत के वातावरण में सामान्य हो चुके हैं। जीवाश्म ईंधन जलाने, बायोमास दहन, परिवहन, उद्योग और ऊर्जा उत्पादन से निकलने वाले कण और गैसें वायु गुणवत्ता को उस स्तर तक गिरा रही हैं जहाँ से वापसी कठिन होती जा रही है। वैज्ञानिक विश्लेषणों से यह स्थापित है कि कोयला और परिवहन उत्सर्जन भारत में वायु प्रदूषण के दो प्रमुख स्रोत हैं। नाइट्रोजन ऑक्साइड और सूक्ष्म कण (PM2.5) ओजोन निर्माण के माध्यम से प्रदूषण को और विषाक्त बनाते हैं। यही कारण है कि दिल्ली, सोनभद्र, सिंगरौली, कोरबा और ओडिशा का तेलचर क्षेत्र दुनिया के उन 50 सबसे खतरनाक NO₂ हॉटस्पॉट में शामिल हैं जहाँ वायु में नाइट्रोजन ऑक्साइड का स्तर लगातार स्वास्थ्य मानकों को ध्वस्त कर रहा है।
एयरोसोल इस संकट को और गहरा बनाते हैं। हवा में निलंबित ये सूक्ष्म ठोस और तरल कण आकार में कुछ नैनोमीटर से लेकर कई माइक्रोमीटर तक होते हैं और प्राकृतिक तथा मानवजनित दोनों स्रोतों से पैदा होते हैं—धूल, समुद्री नमक, जंगलों और पौधों से निकलने वाले कण, औद्योगिक धुआँ, ज्वालामुखीय राख, वाहनों और कारखानों से निकलने वाले उत्सर्जन तक। इनका असर वातावरण, मौसम और पारिस्थितिकी के साथ शरीर के लगभग हर अंग पर पड़ता है। विषाक्त एयरोसोल कण श्वसन तंत्र, दिल, लीवर, आँख, त्वचा और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करते हैं। लंबे समय तक संपर्क से फेफड़ों के कैंसर और दिल के रोगों का खतरा बढ़ जाता है। मेदांता में रेस्पिरेटरी और स्लीप मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष तथा एम्स दिल्ली के पूर्व निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया के अनुसार वायु प्रदूषण ऐसा विषाक्त संकट है जो शरीर के किसी भी अंग को नहीं छोड़ता। पौधों और जानवरों तक पर इसका दुष्प्रभाव दर्ज किया जा चुका है।
स्थिति दिल्ली में सबसे भयावह रूप में सामने आती है जहाँ लोग लगातार तीन महीनों से जानलेवा हवा में सांस ले रहे हैं। डॉक्टरों ने तक सलाह दे डाली है कि जिन लोगों की हालत बिगड़ रही है, वे कुछ समय के लिए पहाड़ी राज्यों में जाएँ। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र के अनुसार राजधानी में जहरीली NO₂ और CO गैसों का स्तर लगातार बढ़ रहा है, और कुल प्रदूषण में लगभग 51.5 प्रतिशत हिस्सा वाहनों का है। इसके बाद आवासीय स्रोत और छोटे दहन स्रोत आते हैं। राजधानी के कई इलाकों में AQI 400 के पार लगातार बना हुआ है, जिसकी पुष्टि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड करता है। पराली को अक्सर प्रदूषण के लिए जिम्मेदार बताया जाता रहा है, लेकिन पिछले पाँच वर्षों में पराली जलने की घटनाएँ 70 प्रतिशत तक कम हुई हैं और इस वर्ष इसका योगदान कुल प्रदूषण में पाँच प्रतिशत से भी कम रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह तक कहा कि यदि कोरोना काल में पराली जलने के बाद भी दिल्ली का आसमान नीला हो सकता है, तो प्रदूषण के मूल कारण कहीं और हैं। वास्तविकता यह है कि दिल्ली की 35 प्रमुख सड़कों पर भारी धूल जमा है और टूटे फुटपाथों व गड्ढों से उड़ने वाली धूल वाहनों के साथ पूरे शहर में फैलती रहती है।
देशभर में वायु प्रदूषण के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की बार-बार दखल की जरूरत इसलिए पड़ रही है क्योंकि यह संकट तत्कालिक हस्तक्षेप से नहीं, बल्कि दीर्घकालिक नीति परिवर्तन से ही नियंत्रित हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी कि यह केवल सर्दियों का मुद्दा नहीं रहा, बल्कि एक गंभीर, स्थाई आपदा है, इस संकट की गहराई को दर्शाता है। अदालत ने इसे इतना गंभीर माना है कि अब हर महीने दो बार इसकी सुनवाई करेगी।
इसी बीच 80 से अधिक पद्म पुरस्कार प्राप्त चिकित्सकों ने संयुक्त रूप से चेतावनी दी है कि यदि कदम नहीं उठाए गए तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। उन्होंने सुझाव दिया है कि जिन घरों में एयर प्यूरीफायर उपलब्ध नहीं हैं, वे रोज़ाना गीले कपड़े से सफाई करें, अगरबत्ती, धूप, कपूर और मच्छर कॉइल से बचें, उचित वेंटिलेशन रखें, ट्रिपल-लेयर मास्क पहनें और बच्चों को उच्च AQI वाले दिनों में बाहर खेलने या स्कूल असेंबली में शामिल होने से रोका जाए। इन डॉक्टरों ने सरकार से गंभीर प्रदूषण की स्थिति में सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल घोषित करने, GRAP के मानकों को वैज्ञानिक आधार पर संशोधित करने, औद्योगिक उत्सर्जन और कचरा जलाने पर सख्त प्रतिबंध लगाने तथा डीज़ल जनरेटरों पर नियंत्रण की मांग की है।
इन सबके बावजूद वर्षों से हजारों करोड़ रुपये खर्च होने के बाद भी अधिकतर बड़े शहरों की हवा साफ नहीं हो पाई है। यह विफलता केवल तंत्र की नाकामी नहीं, बल्कि कभी-कभी उस मानसिकता का प्रतिबिंब लगती है जिसमें नियंत्रण तंत्र ही भ्रष्टाचार का माध्यम बन जाता है। वहीं आम नागरिक की भूमिका भी कम नहीं है—कूड़ा जलाने से लेकर निजी वाहनों की बढ़ती संख्या तक, प्रदूषण में योगदान समाज के हर स्तर से आता है। लेकिन सवाल यह है कि जब कई देशों ने अपनी हवा और नदियों को साफ करने में सफलता पा ली है, तो भारत क्यों पिछड़ रहा है।
आखिरी उम्मीद अब भी सुप्रीम कोर्ट से ही बंधी है, जिसने पिछले वर्षों में कई बड़े पर्यावरणीय और सामाजिक मामलों में निर्णायक भूमिका निभाई है। उम्मीद की जाती है कि देशवासियों को साफ और सुरक्षित हवा में सांस लेने का अधिकार केवल कागज़ों में नहीं, बल्कि जमीन पर भी वास्तविक रूप में मिल सकेगा।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
