दो टूक: क्रिकेट में कठोर निर्णय लेने का वक्त अब नहीं तो कब?
अभी अभी बॉर्डर-गावस्कर ट्राफी के लिए भारत-ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट टेस्ट मैच की श्रृंखला खत्म हुई है। भारत ने यह श्रृंखला 3-1 से गंवा दी। अंतिम मैच के दौरान सुबह जैसे ही मैंने अपडेट के लिए टीवी खोल कर देखा अभी तो अब तो वहां ट्राफियां बट रही है मुझे जोर का धक्का सा लगा। अरे ! अभी तो इंडिया टीम चार खिलाड़ी आउट होने बाकी थे। उन्हें भी तो ढेरों रन बनाने थे। हमने तो प्रतिकार भी नहीं किया। उफ्फ तक नहीं कहा। मैंने सपने भी नहीं सोचा था कि भारतीय टीम इतनी जल्दी घुटने टेक देगी।
बहुत ही दुःख की बात है। पांच मैचों की श्रृंखला थी। पर श्रृंखला के शुरू होने के समय से ही सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। अपुष्ट ख़बरों के मुताबिक टीम मैनेजमेंट और खिलाड़ियों के बीच में भी एक सौहार्दपूर्ण सामंजस्य नहीं दिख रहा था। पांच मैचों की श्रृंखला और हमारे पास रोटेशन के लिए प्लेयर्स उपलब्ध नहीं!
जब भारतीय टीम अपना मैच हार जाती है, तो बहाने तमाम बनाए जाते हैं। कभी पिच को दोष दिया जाता है, तो कभी मौसम को तो कभी टीम सिलेक्शन को। ऑस्ट्रेलियाई टीम हो, न्यूजीलैंड की टीम हो या फ़िर इंग्लैंड की टीम हो। वो भी हारते हैं, लेकिन हमारी तरह ठीकरा किसी और के सर नहीं फोड़ते हैं।एक दो मैच में उनके भी प्लेयर्स फ्लॉप करते हैं। कहां उनका लंबा फ्लॉप करने का रिकॉर्ड रहा है? कभी आपने देखा है? वो बहाने नहीं बनाते हैं। एक प्रोफेशनल की तरह टीम खेलती है।
हमारे यहां कोई प्रोफेशनलिज्म भी है या नहीं? टीम मैनेजमेंट, कोच, सपोर्ट स्टाफ और खिलाड़ी कहीं भी एक साथ नहीं दिखाई दे रहे थे। एक दिग्गज खिलाड़ी ने तो बीच में ही रिटायरमेंट ले ली। आपको इतना भी ख्याल नहीं रहा कि आप भारत की सरजमीं से बाहर हैं जहां आपको अपने देश की प्रतिष्ठा को सर्वोपरि रखना है। रही सही कसर हमारे वरिष्ठ खिलाड़ियों के परफोर्मेंस ने पूरी कर दी। हम यह भी नहीं कह सकते कि उनके परफोर्मेंस में निरंतरता का अभाव था। सच कहें तो वो खेले ही नहीं।
बिल्कुल सीधा और सरल सिद्धांत होना चाहिए। या तो परफोर्म करें या फ़िर दूसरों को मौका दें। क्यों हीरो वरशिप? खेल और देश के उपर हम आपको क्यों रखें। आप शौकिया तौर पर नहीं खेल रहे हैं। माना समय सबका एक जैसा नहीं रहता है। सभी के जीवन में एक बुरा वक्त आता है। खिलाड़ियों के जीवन में भी आता है। अपवाद नहीं हैं वो, पर यह कौन सी जिद है?
बॉर्डर -गावस्कर ट्राफी के लिए यह श्रृंखला खेली जा रही थी और ट्राफी देने के वक्त मंच पर सिर्फ एलन बॉर्डर ही उपस्थित थे। सुनील गावस्कर की गैरमौजूदगी एक बात होती, पर वो वहां मौजूद थे, पर उन्हें ट्राफी देने के वक्त मंच पर नहीं बुलाया गया। अपमानजनक बात है। किसे दोष देंगे आप? अपने आप को या फिर जीत के जश्न में डूबे क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया को? वे कितने भी तार्किक हो लें ग़लत तो ग़लत ही होता है। पर फिर जो जीता वही सिकंदर! हमअपमान का घूँट पी कर हाथ मलते ही रह गए।
बहुत दुःख की बात है। इस तरह से हाथ पर हाथ धरे हमारे चयनकर्ता नहीं बैठ सकते हैं। यदि परफॉर्म नहीं कर रहे हैं तो क्यों आपको अन्य खिलाड़ियों के ऊपर तरजीह दी जाए? चलिए रन नहीं बनाने की वजह से भारतीय कप्तान को तो आखिरी मैच में बाहर बैठा तो दिया परन्तु पूरी टीम का चयन ही विवादस्पद रहा ज्यादातर मैचों में।
यह सिर्फ और सिर्फ हार और जीत का मसला नहीं है। क्रिकेट तो हमारे यहां धर्म जैसा है। लाखों करोड़ों लोगों की भावनाओं का सवाल है। एक भारतीय होने के नाते मुझे बहुत पीड़ा होती है। सभी भारतियों को होती है। क्रिकेट में तो हार हमें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं।मेरे शब्दों पर मत जाएं। हमारी भावनाओं को समझें। जुनून रहा है क्रिकेट मेरा। प्यार करता हूँ मैं इससे। किस हद तक जुनूनी हूँ, शायद मुझे भी नहीं मालूम। किसी ना किसी रूप में हमेशा अपने आप को क्रिकेट से जोड़कर देखा है मैंने। टीम भारत की खेल रही है तो मैच के दौरान थोड़ी थोड़ी देर पर सिर्फ मैच का मै अपडेट लेता रहता हूँ। शायद यह मेरा वहम है या फ़िर अंधविश्वास, मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैं लगातार टी वी के सामने बैठ कर क्रिकेट मैच देखूंगा तो भारतीय टीम मैच हार जाएगी। इसी डर से मैं लगातार बैठकर टी वी पर क्रिकेट मैच चाहे वो टेस्ट हो, एक दिवसीय हो या फ़िर टी20 नहीं देखता हूँ। पर इस बार तो यह टोटका भी फेल हो गया। पहले टेस्ट को जहां भारत जीता और एक और टेस्ट जो ड्रा हुआ उन्हें छोड़ दें तो भारत हारता ही गया। इससे पहले भारत में ही न्यूज़ीलैण्ड से तीन शून्य की करारी हार हुई और फिर अब ऑस्ट्रेलिया।
अब वक्त आ गया है कठोर निर्णय लेने का। अब नहीं तो कब?