राष्ट्रीय डाक दिवस: डाकिया डाक लाया
डाकिया डाक लाया, डाक लाया
खुशी का पयाम कहीं, कहीं दर्दनाक लाया
डाकिया डाक लाया!
सुपरस्टार राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म ‘पलकों की छांव‘ का यह गाना जिसे आवाज दिया था किशोर कुमार ने, याद करें! गाने की पंक्तियों पर ध्यान दें। एक डाकिए पर केंद्रित है यह गीत।
एक फौजी के ख़त का उसकी पत्नी को इंतजार हो या फिर दो प्यार करने वालों का बार-बार सूनी राहों पर नजर टिकना! एकटक किसी के इंतजार में आंखें टिकी हुई हैं। किसी को अपने इंटरव्यू के पत्र का इंतजार है, तो बूढ़े मां-बाप को अपने बच्चों के ख़त का इंतजार है। हर किसी को किसी ना किसी का इंतजार है। हर दिन डाकिए के आने का इंतजार तो खैर सभी को रहता था। कब कौन सी सूचना किसके लिए आ जाए।
पर, हालत ने बड़े ही हौले से करवट बदली। बदलते हुए माहौल में डाकिया अब अप्रासंगिक हो चला है। कल का डाकिया जो परिवार के एक सदस्य की तरह होता था, जिसके आने का इंतजार सभी को रहता था, आज विलुप्त ही हो गया है। अब कहां किसी को भी किसी का इंतजार रहता है। इतना धैर्य कहां किसी में? कहां किसी को ख़त लिख कर अपने दिल की बातें बताने की फुर्सत है? कहां अब कोई पत्नी अपने फौजी पति के ख़त का इंतजार करती है? दो प्यार करने वाले भी अब ख़त की दुनिया से काफी आगे निकल आए हैं। अब तो बस “कर लो दुनिया मुट्ठी में”। एक बड़े औद्योगिक घराने का यह स्लोगन ही काफी है, हमें बहुत कुछ समझा जाने के लिए! अब तो ट्रेन में बैठने से लेकर खाना-खाने और सोने तक की पल-पल की खबरें आपके साथ साझा होती हैं। फिर कोई क्यूं भला पत्र और डाकिए का इंतजार करे?
एक वो दौर था जब ख़त लिखने के दौरान पन्ने ज्यादा इस्तेमाल होते थे या फिर पत्र की गोपनीयता बरकरार रखनी होती थी, तब लिफाफों का इस्तेमाल किया जाता था। अगर एक दो पन्ने में काम चलाना होता था और बातें बहुत गोपनीय नहीं हुआ करती थीं तब आप याद करें नीले रंग का वो अंतर्देशीय जिसका इस्तेमाल किया जाता था। दो चार पंक्तियां लिखनी हो या फिर औपचारिकता निभानी हो तब अपना पोस्टकार्ड जिंदाबाद। विभिन्न तरीकों से पोस्टकार्ड का इस्तेमाल किया जाता था। अगर पत्र की पावती सुनिश्चित करनी होती थी या कोई कोर्ट-कचहरी का मामला हुआ करता था, जहां सबूतों को सहेजने की जरूरत होती थी, तब ऐसे मामलों में निबंधित पत्र भेजा जाता था । अब तो बस उस दौर की यादें ही बाकी है। डाकिए का आना और परिवार के सदस्यों की तरह बातें करना और सबसे अहम बात जिसे कहना तो हम भूल ही गए। डाकिये का एक यूनिफार्म होता था। खाकी रंग का यूनिफॉर्म पहन आता हुआ डाकिया दूर से ही पहचान लिया जाता था।
पति के पत्र के इंतजार में नई नवेली दुल्हन। दरवाजे की ओट से टकटकी लगाए इंतजार कर रही उसकी आंखें। हर आहट के साथ भागकर दरवाजे पर आना। बस आंखें बंद कर दृश्य की कल्पना करें। डाकिए का आना, पति के पत्र को हाथों में लेना और आंखें बंद कर सब कुछ कल्पना में ही, कितना भावुकता से भरा पल रहता होगा। एक दृश्य यह भी जहां उस दुल्हन को पढ़ना नहीं आता हो और डाकिए से पत्र पढ़ कर सुनाने की मनुहार करना। क्या आपसी विश्वास है! इस आभासी दुनिया ने तो सारे सामाजिक तानेबाने को ही छिन्न-भिन्न कर दिया है।
अब तो ऐसा लगता है डाकिया रहा ही नहीं। स्पीड पोस्ट का जमाना है। निबंधित पत्र का हालांकि अभी अवसान नहीं हुआ है, पर डाकिया तो लगता ही नहीं कि डाकिया है। वह यूनिफार्म वाला डाकिया जो परिवार के सदस्यों की तरह सिर्फ दिखता ही नहीं लगता भी था, अब कहीं चला गया है।
1880 के आसपास की बात है। एक राय साहब शालिग्राम हुआ करते थे। आगरे की बात है। उस वक्त आगरा और इलाहाबाद डाक विभाग के मामले में दो प्रमुख जगह हुआ करते थे। राय साहब अपनी काबिलियत के बल पर पोस्ट मास्टर जनरल के पद तक पहुंचे थे। शुरुआत उन्होंने चीफ इंस्पेक्टर के पद से की थी। बहुत काम किया उन्होंने डाक विभाग में रहते हुए। पोस्टकार्ड और मनीआर्डर की सेवा उनकी ही देन है। समय-समय पर अंग्रेज भी उनसे सलाह लिया करते थे। बाद में उन्हें राय साहब की पदवी दी गई। अवकाश प्राप्ति के बाद वह राधास्वामी मत के सर्वेसर्वा बनाए गए। उनका नाम बस प्रसंगवश आ गया क्योंकि उन्होंने डाक विभाग को बहुत कुछ दिया था।
खैर, हम बातें कर रहे थे डाकिया की। बदलाव के बहुत सारे दौर को हमने देखा है। हमारे पीढ़ी के लोग उस बदलाव के वाहक भी रहे हैं। एक दौर डाकिए का भी था। डाक और डाकिए पर बहुत सारे गीत भी फिल्माए गए हैं। बॉर्डर फिल्म का वह मर्मस्पर्शी गाना “संदेशे आते हैं“। याद करें। गाने के दौरान पुरे पिक्चर हॉल में सन्नाटा। सन्नाटों के बीच कहीं धीरे से आ रही सिसकियों की आवाज। भावनाओं को काबू में रखना बहुत मुश्किल।
एक पिक्चर आई थी ‘नाम‘। पंकज उधास ने उस फिल्म में एक गाना गाया था- “चिट्ठी आई है, वतन से चिट्ठी आई है‘। आज भी गाना सुनता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आंखों के कोर गीले हो जाते हैं। व्यक्ति बिल्कुल संजीदा हो जाता है। चिट्ठियों में वह ताकत थी।
आज आप फेसबुक से जुड़े हैं, व्हाट्सएप से जुड़े हैं, स्काइप से जुड़े है। ना जाने कितने तरीकों से आप आभासी दुनिया से जुड़े हैं, जहां आप अपनी बातों को एक दूसरे तक पहुंचाते हैं। पर, उनमें वह बात नहीं जो एक खत में हुआ करती थी। एक इंतजार रहता था लोगों को। खत का एक अलग ही आनंद था, मजा था, अनुभूति थी। ख़त को पाने में, ख़तों को लिखने में जो आनंद आता था आज वह आनंद कहां! अब तो दो चार पंक्तियां लिखने में लोगों के पसीने छूटने लगते हैं। बस वो एक दौर था जो चला गया अब तो सिर्फ स्मृति ही शेष है।
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पूर्व में संदेशों के आदान-प्रदान में डाकिया की भूमिका सेतु की भांति रही है, जहाँ भावनाओं का प्रवाह भी पत्रों के माध्यम से होता था और डाकिया उन भावनाओं का भी वाहक माना जाता था। श्री वर्मा जी ने ठीक ही कहा है कि वर्तमान में सोशल मीडिया के आभासी दौर में सन्देश तो द्रुतिगामी हो गए हैं पर भावनायें आभासी होती जा रही हैं। यह भी सच है कि चिट्ठियों जैसी ताकत आज के सोशल मीडिया के संदेशो में नहीं है।
मेरा मानना है कि डाकिया की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है, लेकिन उनकी भूमिका में बदलाव जरूर आया है। वे अब सिर्फ पत्र और पैकेज नहीं पहुंचाते, बल्कि विभिन्न सेवाएं भी प्रदान करते हैं।
समय के साथ- साथ बदलाव की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है और हर बदलाव का आनंद लेना चाहिए।
डाकिया तो बस एक बानगी है। जैसे जैसे हम तथाकथित रूप से प्रगतिशील होते चले जा रहे हैं वैसे वैसे हम भावनाओं की अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति से भी दूर हो रहे हैं। पत्र लिखने के क्रम में विषय वस्तु अथवा कथानक का गंभीरता से मंथन होता था एवं सर्वोत्कृष्ट शब्दों को ही पत्र नाम के उस छोटे से कागज़ पर जगह मिल पाती थी। भावनाओं की संपूर्ण एवं हार्दिक अभिव्यक्ति होता था एक पत्र। संवाद प्रेषण के रेडीमेड साधनों ने भावनात्मक पक्ष को दुर्बल कर दिया है। संवाद छोटे परंतु शीघ्रता से प्रेषित कर दिए जाते हैं। गलती होने पर तुरंत मिटाकर नया कुछ भेज दिया जाता है। वैयक्तिक मामलों में भी शायद ही कभी एक प्रेमपूर्ण पत्र जैसा संपूर्ण संवाद दो लोगों के बीच भेजा जा रहा है। जब हम खुद बैठकर एक पत्र लिखने से जी चुराने लगे हैं तो डाकिए को तो एक न एक दिन विलुप्त होना ही है। पत्र के बदले अब हम त्वरित, लघु संवाद प्रेषण के अभ्यस्त हो गए हैं।पत्रों को सहेज कर रखने जैसी भावप्रवण व्यवस्था नए माध्यमों में बिल्कुल नहीं है। डाकिए का तो जैसे एक दूसरे ही रूप में ट्रांसफॉर्मेशन हो रहा है। वह अब सिर्फ नाम मात्र का डाकिया रह गया है। उसके झोले में अब चिट्ठियां, मनी ऑर्डर नहीं बल्कि सरकारी योजनाओं के पैगाम होते हैं। खरीद – बिक्री के इस दौर में सरकार ने अब उसे भी अपना ” सेल्समैन ” बना दिया है।