प्राकृतिक मूल्यों को सर्वोपरि मानने वाले प्रोफेसर गुरु दास अग्रवाल यानि ऋषि स्वामी सानंद जी का स्मरण मुझे हर क्षण बना ही रहता है। लेकिन उनके जन्मदिन 20 जुलाई को वे बहुत याद आते हैं। वे मेरे अज्ञान को प्रज्ञावान की तरह देखकर, जटिल विज्ञान को भी सरल ज्ञान में बदल देते थे।
मैंने जब प्रो. जी.डी. अग्रवाल जी से तरुण भारत संघ (तभास) के संचालक मंडल का सदस्य बनने तथा हेतु तभास से जुड़ने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि मैं तो आस्थावान् हूँ, विश्वास भी सब पर करता हूँ। विज्ञान का सत्य और अभिलेख भी देखता हूँ। इसलिए सबसे पहले मुझे तरुण भारत संघ का विधान दिखाओ। मैंने उन्हें दे दिया। विधान पढ़कर बोले मैं तुम्हारा सदस्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह विधान तो मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानकर बनाया गया है।
मैं तो प्रकृति भगवान को सर्वोपरि मानता हूँ। मूलतः तो उनके और मेरे भगवान बिल्कुल एक ही हैं। बस हम दोनों ही अपने एक ही भगवान के अलग-अलग परिभाषित करते थे। मैं तो भ-भूमि, ग-गगन,व व-वायु, अ- अग्नि, न-नीर को ही भगवान मानता हूँ। वे इन सभी को जोड़ने-बनाने वाले को भगवान मानते थे। हम दोनों भगवान पर कभी एक नहीं थे। वे बोले – मैं, तो मानव को प्रकृति का एक मामूली-सा अंग मानता हूँ इसलिए मानव मेरे लिए सर्वोपरि नहीं हो सकता है। मैंने कहा कि आप यह देखें कि मैं और तरुण भारत संघ क्या कर रहा है? विधान में जो लिखा है, उसे नहीं देखें। प्रो. जी.डी. बोले जो कर रहे हो, उसे देखकर तो मैं सदस्य बनने के लिए तैयार हूँ। बस वे तैयार हो गए। लेकिन कहा कि अभिलेख भी सुधारना जरूरी है, पर इसे मैं नहीं, आप ही सुधारना। मैंने कहा हम तो आपके साथ हैं। मेरे इस कथन पर विश्वास करके वे सदस्य बन गये। फिर मिलकर सुधारते रहे।
वे बहुत जल्दी विश्वास कर लेते थे, इसलिए उन्होंने कई जगह धोखा भी बहुत खाया। उनको धोखा खाने का दुःख नहीं था। वे उसे भी राम का काम कहकर छोड़ देते थे। धोखा देने वाले से कभी बदला नहीं लिया। उस पर क्रोध तो करते थे, लेकिन उसे दंडित करने पर मैंने उन्हें जुटते नहीं देखा था।
प्रो. जी.डी. अग्रवाल अपने मित्र और पर्यावरण वकील श्री महेशचन्द्र मेहता के साथ जुलाई 2007 में गंगोत्री जाते समय लोहारी नागपाला परियोजना द्वारा गंगा को गायब होते देखकर बहुत दुखी हुए थे। उसी समय उन्होंने गंगा जी का नए तरीके से चिंतन आरंभ किया था। क्योंकि इन्हीं दिनों वे राजस्थान की छोटी, सूखी-मरी नदी अरवरी को कल-कल बहते देखकर गए थे। उन्हें लगा जब छोटी नदी बह सकती है, तो वे अपनी माँ गंगा जी को भी शुद्ध-सदानीरा बना सकते हैं। अब उन्होंने माँ गंगा जी का शुद्ध-सदानीरा बनाना ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना लिया था।
तरुण भारत संघ के कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर और अरवरी नदी भ्रमण और गंगा की भागीरथी यात्रा में इस घटना के बाद वे केवल गंगा जी के विषय में ही विचार करने और काम करने लगे थे। उन्होंने मुझे कह दिया था, अब केवल मां गंगा जी के लिए बातें करनी है, उन्हीं की सेवा के लिए काम करना है।
स्वामी सानंद जी ने वर्ष 2007 के अंत में कहा कि मुझे तभास संचालक मंडल में काम करते हुए 20 वर्ष पूरे हो गये, अब मैं तभास संचालक मंडल से त्याग पत्र दे रहा हूँ। मैंने पूछा कि क्यों? तब वे बोले कि अभी तक तो मैं छोटे-छोटे बांधों को बड़े बांधों का विकल्प मानकर बनवाने का काम प्रायश्चित के तौर पर कर रहा था, और प्रायश्चित के लिए 20 वर्ष बहुत हैं। अब तो मैं बड़े बाँधों को तुड़वाने, रुकवाने व आगे नहीं बनने देने के काम में लगूँगा। मुझे अब माँ गंगा की सेवा करनी है। माँ को अब सघन चिकित्सा की आवश्यकता है। चिकित्सा मैं कर सकता हूँ लेकिन सरकार मेरी चिकित्सा को नही मानेगी। वह तो गंगा माई से भी कमाई करना ही विचारती है। मैं तो सबसे पहले गंगा माई से कमाई के सभी रास्ते बंद करूँगा। माँ गंगा जी मेरी आस्था की माई हैं। उनसे मैं स्वयं कोई कमाई नहीं करूँगा, किसी को करने भी नहीं दूँगा। यह बात सरकार मेरे बारे में जानती है। इसलिए वह मुझे गंगा कार्य में अपने साथ नहीं जोड़ेगी, न ही मुझे काम करने देगी। मेरा सरकारों के साथ काम करने का लम्बा अनुभव है। मैं यह अच्छे से जानता हूँ। सरकार का अपना सत्य होता है। उसका विज्ञान प्रौद्योगिकी अभियान्त्रिकी की प्रज्ञा से या संवेदना-समझदारी से कोई रिश्ता नहीं होता है। यह सरकार वैज्ञानिक सत्य को नहीं स्वीकारती है। सरकार को बहकाने और बताने वालों के पास सब झूंठी-सच्ची जानकारी नहीं भी होवे, तो भी मेरे जैसे को माँ की चिकित्सा नहीं करने देंगे। इसलिए मैं उस चिकित्सा व्यापार में नहीं फसूंगा। मैं तो अपनी माँ गंगा जी की, अपनी आस्था को सत्य मानकर, माँ की अविरलता हेतु सत्याग्रह करूँगा। माँ गंगा जी को निर्मल बनाने का काम तो कमाई का धंधा है। उस धंधे को करने वालों की सरकार के पास बहुत बड़ी भीड़ मौजूद है। वे तो उसी धंधे के नाम पर माँ का सभी कुछ लूट रहे हैं। वे लूटते रहें, उन्हें रोकने वाली ताकत भी एक दिन खड़ी होगी। इस अविरलता के काम को पूरा करके हम बाद में उस काम के भ्रष्टाचार को रोकने में भी लगेंगे। पहले तो हम सभी मिलकर माँ की अविरलता और आस्था का विज्ञान दुनिया को समझायें। माँ के जल की विशिष्टता का पता जब दुनिया को चलेगा, तो सब जुड़ेंगे। इसलिए अब माँ गंगा जी की सेवा के अतिरिक्त कोई दूसरा काम नहीं करना चाहता हूँ। बाद में बोले राजेन्द्र तुम्हीं तो कहते हो कि, जब एक ही काम को पागलपन या आस्था से किया जाता है तो उसमें पूर्ण सिद्धि मिलती है। मुझे तो सफलता और सिद्धि पाने की जल्दी नहीं है।मैं आज से तभास संचालक मंडल की जिम्मेदारी से मुक्त हो रहा हूँ। हम सबने पूरे संचालक मंडल में एकमत होकर कहा कि, हम भी आपके साथ ही माँ गंगा की सेवा में जुटेंगे। वे बोले तब तो तुम जो चाहो करो, बस राजेन्द्र तुम मेरे साथ आ जाओ, बाकी सब लोगों की जरूरत जब होगी, तब देखेंगे।
वह दिन था जब प्रो जी.डी. अग्रवाल ने तभास को गंगा जी के काम में धकेल दिया था। उन्होंने कहा कि तुम तो अभी यमुना की दिल्ली की जमीन बचाने की लड़ाई शुरू करो। वर्ष 2007 में ही हमने यमुना की जमीन बचाने की लड़ाई आरंभ कर दी थी। 1 अगस्त 2007 को यमुना की जमीन पर पेड़ लगाकर, कहा था कि ‘यमुना की जमीन पर यमुना का ही अधिकार है’ यमुना की जमीन पर पेड़ लगाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
यमुना की जमीन पर पेड़ लगाकर हम तो सत्याग्रह पर बैठ गए। स्वामी सानंद जी जब भी दिल्ली आते तो यमुना सत्याग्रह में जरूर शामिल होते थे, वहीं आकर वे मुझे अपनी गंगा सत्याग्रह की तैयारी बताते थे। इससे पहले मुझे उन्होंने लोहारी नाग पाला का विनाश जब शुरू हुआ था तभी दिखा दिया था। वे ही गंगा जी से जुडे़ बहुत से संतों के पास भी मुझे लेकर गए थे।
संत श्री शिवानंद सरस्वती व स्वामी श्री अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती जी आदि कुछ संतों को छोड़कर अन्य ने गंगा सत्याग्रह में उनका सच्चा और पक्का साथ नहीं दिया। ऐसे संत तो अवसरवादिता के आधार पर भी संत स्वामी सानंद जी के साथ खड़े तक भी दिखाई नहीं दिए। कुछ संत तो गंगा सत्याग्रह व आंदोलनकारियों में फाड़ करने में ही जुटे रहे, स्वामी सानंद जी को बहुत ज्ञान दिया, परंतु वे सत्य पर चलने वाले वैज्ञानिक, ऋषि कहूँ या संत वे किसी के भी बहकावे में आने वाले नहीं थे।
स्वामी सानंद जी कम बोलते थे, बिना बोले अधिक करने वाले थे। उनकी कथनी-करनी एक जैसी ही थी। उनकी माँगने की आदत बिल्कुल नहीं थी, वे कभी ईश्वर से भी कुछ नहीं माँगते थे। बहुत सावधानी से बोलने वाले गुरु के दास थे। परिश्रम, ईमानदारी के सच्चे पुजारी थे। आरती-उत्सव उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था। वे कहते थे कि, आज आरती और उत्सव ही गंगा की आस्था को मारने में जुटे हैं। जो कुम्भ कभी जिस सत्य की खोज हेतु शुरू हुआ था, वही कुम्भ अब गंगा की पवित्रता, निर्मलता, अविरलता हेतु विचार नहीं करके उसे और अधिक गंदा ही करता है।
गंगा जी जब तक स्वस्थ होवें, अपने गंगत्व (बॉयोफाज) गंगाजल की विशिष्टता को पुनः प्राप्त करे, तब तक गंगा किनारे कुम्भ आयोजित करने पर रोक लग जानी चाहिए। यह बात कोई सच्चा आस्थावान भारतीय ऋषि ही बोल सकता है। ये बात वे बड़ी नम्रता से मुझसे कई बार बोले थे। कुम्भ पर रोक लग जायेगी तो सच्चा हिन्दुत्व जगकर गंगा का गंगत्व बचाने में जुट जायेगा।
अग्रवाल साहब ने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय के इतिहास में सबसे कम समय में अपनी पीएचडी प्राप्त की थी। भारत सरकार में अपनी ईमानदारी के कारण वे कभी भी किसी के चहेते नहीं बने थे; क्योंकि सत्य सरकार विरोधी होता है। इसलिए प्रो. गुरुदास का गुरुत्व सरकार पर बहुत भारी होता था। कोई भी सरकार, कभी भी उन्हें पचा पाने योग्य आजतक नहीं बनी है। आज की सरकार को प्रो. जी.डी. अग्रवाल का जाना कभी न कभी बहुत भारी पड़ेगा। हम कितना उनकी ऊर्जा को उपयोग करते हैं। आज उनकी जितनी उर्जा देने वाला कोई दूसरा ऋषि या वैज्ञानिक इस धरती पर नहीं है।
प्रो. जी.डी. अग्रवाल को पर्यावरण व गंगा जी के विज्ञान, अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिक संबंधों को गहराई और पर्यावरणीय प्रवाह की जितनी समझ थी, आज इस धरती पर उतनी समझ वाला कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। वे प्राकृतिक मूल्यों को भारतीय आस्था और पर्यावरणीय रक्षा का आधारभूत विज्ञान मानते थे। उनका जीवन, सामाजिक संस्कार, भारतीय आस्था, पर्यावरणीय रक्षा के आधार को उनकी अपनी अद्भुत आँख से देखने की गहरी समझ व शक्ति थी।
उन्हें जीवन में जल्दी और आगे जाने की कोई हड़बड़ी नहीं थी। उन्हें अपनी माँ गंगा जी की अविरलता ही जरूरी और जल्दी दिखती रही। इसलिए भागीरथी में सफलता मिलते ही घर नहीं बैठे। वे तुरंत ही मंदाकिनी और अलकनंदा को भी अविरल बनाने में जुट गए थे। वे बहुत साधारण ढंग से असाधारण काम करते थे। इसीलिए स्वामी सानंद जी पहले गंगापुत्र हैं जिन्होंने गंगा की प्राथमिक-बुनियादी लड़ाई जीत ली है।
अपने ज्ञान-अज्ञान का उन्हें तनिक भी भ्रम नहीं रहता था। शिक्षा-जानकारी का अंतर ज्ञान, अज्ञान की सीमाओं को जानने वाले ऋषि और कर्मयोगी संत थे। अनपढ़ लोगों को दुनिया अज्ञानी कहती है। उनके ज्ञान की गहरी समझ मैंने अपने क्षेत्र में साथ रहकर देखी थी। कैसे अज्ञानी कहलाने वालों के ज्ञान को वे पकड़ते थे। मुझसे कहा कि जल संरचना की साइट का चुनाव जितना अच्छा अज्ञानी, अनपढ़ करता है, वह पढ़ा लिखा इंजीनियर ऐसी साइट का चुनाव नहीं कर सकता। इंजीनियर बड़े बाँधों की साइट का चुनाव अच्छी प्रकार कर सकता है, छोटी-छोटी रचनाओं की साईट का चुनाव करने में उसे बहुत कठिनाई होती है।
मैंने उनके साथ रहकर सामलात देह प्रबंधन पुस्तक तैयार की थी, उस समय मैं काफी सक्रीय रूप से उनके साथ रहा। उस पुस्तक के दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। प्रोफेसर साहब ने ही इसका सम्पादन किया था। वे हमारे क्षेत्र के हम जैसे अज्ञानियों को ज्ञानवान बनाना जानते थे। वे अपने विज्ञान को लोगों की प्रज्ञा के साथ जोड़ने वाले कुशल, सक्षम शिक्षक थे। वे संवेदनशील, सहज, सरल और दुनिया के बड़े वैज्ञानिक थे।
नदी जोड़ के प्रभाव के अध्ययन को देश भर के जलबिरादरी कार्यकर्ताओं को केन-बेतवा अध्ययन द्वारा समझाया था। चित्रकूट में इस अध्ययन को लोकविज्ञान संस्थान के डॉ.अनिल गौतम ने जब प्रस्तुत किया कि मैं उस पर बोलने लगा। तब मुझे रोक कर कहा कि तुम चुप रहो, देशभर से आये लोगों को बोलने दो। यह अध्ययन आपने कराया है। आपका है, आप सबसे आखिर में बोलना, बैठक के समापन वक्त अंत में कहा कि, अब बोलो। वे कार्यकर्ता निर्माण के दक्ष, कलावान, सक्षम और अद्भुत शिक्षक थे।
वे जल उपयोग दक्षता-कुशलता बढ़ाने वाली जल साक्षरता के सच्चे वकील थे। वे जल का निजीकरण नहीं, सामुदायीकरण चाहते थे। वे छोटे-छोटे कामों व सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन के अद्भुत रचनाकार थे। उन्होंने हमारे कई पुराने साथियों-आनंद कपूर जैसे बड़े इंजीनियरों तथा गोपाल सिंह, छोटेलाल मीणा जैसे 10 वीं पास लोगों को सामुदायिक विकेन्द्रित जलप्रबंधन सिखाने में मेरी बहुत मदद की थी। मुझे थोड़ी जल्दी रहती थी। जब वे मेरी जल्दी देखते थे तो मेरा पीछे से कुर्ता पकड़कर खींच देते थे। वे प्यार से भरे अद्भुत इंसान थे। मुझे तो वे ज्यादा ही रोकते और टोकते थे। कहते थे सभी कामों में जल्दी करना अच्छा नहीं है।
उनके अंदर असाधारण ठहराव था। मातृसदन हरिद्वार में चिमटा गाड़ दिया था। अंत तक वहीं मां गंगा जी के लिए उनका चिमटा गड़ा रहा, वे वहीं गंगा में रम गए। वहीं पर वे सब से मिलते थे। बाबा रामदेव हो या उनके गुरू स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी हां, उन सभी से वे बहुत बार मिलते थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती के प्रति उनका बहुत विश्वास था। उनकी बुराई करने वाले बहुत लोग उनके पास पहुँचते थे, उन्हें भी वे अच्छे से सुनते थे। अंत में केवल एक ही वाक्य बोलकर सुनी हुई सभी बातों का जवाब वे दिया करते थे।
कम बोलकर ज्यादा करने वाले प्रो. जी.डी. अग्रवाल (स्वामी सानंद) जी की आत्मा हमें कुछ बोल रही है। हम उन्हें सुनें! स्मरण करें! उनकी आत्मिक ऊर्जा से हम भी ऊर्जा प्राप्त करके उन्हीं के अंधूरे रहे कार्यों को अपनी समझ-शक्ति से पूरा करने में जुट जायें।
उनके कई अंधूरे काम हैं। 10 अक्टूबर 2018 को गंगा पर्यावरणीय प्रवाह भारत सरकार ने प्रकाशित कर दिया था। वह आज तक भी गंगा या भारत की किसी भी दूसरी नदी में कहीं भी प्र्रभावी रूप में लागू नहीं है। स्वामी सानंद जी को यह पर्यावरणीय प्रवाह गंगा जी में स्वीकार नहीं था। हमें भी स्वीकार नहीं है। फिर भी जो है-वह भी लागू नहीं है। केवल यह प्रकाशित कराके भारत सरकार ने हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है। ‘‘गंगा संरक्षण प्रबंधन प्रारूप’’ को दिसम्बर 2018 तक गजट करना और कानून बनाने का गांधी शांति प्रतिष्ठान की बैठक में पहुँचकर गंगा जी के तत्कालीन मंत्री माननीय श्री नितिन गड़करी ने वायदा किया था।
गंगा संरक्षण प्रबंधन अधिनियम प्रारूप को दिये हुए 9 वर्ष बीत गए हैं। मैंने और स्वयं स्वामी सानंद जी ने वर्ष 2012 में ही पहला प्रारूप पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को दिया था। फिर 2014 में भारतीय जनता पार्टी सरकार में केंद्रीय मंत्री उमा भारती को भी दिया। इन्होंने उस पर एक और सरकारी प्रारूप तैयार कराया था। 2018 में वह भी तैयार हो गया था। उस प्रारूप के विरोधाभास पर हमने दिल्ली में चर्चा कराई थी। उसमें भी गड़करी जी ने आकर स्वामी सानंद जी को लिखित में वायदा दिया था। उसके बाद भी बनारस इलाहाबाद कानपुर में चर्चा कराई थी।
सरकार ने अब यह कानून का काम बस्ते में बाँध कर रख दिया है, क्योंकि सरकार गंगा जी पर काशी में चबूतरा और जल वाहक प्लेटफार्म बनाने में लगी हुई है। इसलिए उस कानून के काम को स्वयं मंत्री श्री गड़करी ने ही रुकवा दिया। उन्हें गंगा जी पर ही चार धाम रोड बनाना है। इस कानून को लागू होने से तो माँ गंगा जी को संरक्षण मिलना था। गंगा में विकास के नाम पर विनाश कार्य रोकने वाला ‘‘गंगा संरक्षण प्रबंधन कानून प्रारूप’’ अब तो सरकारी प्रारूप भी तैयार है, लेकिन इसे संसद में अभी प्रस्तुत नहीं किया है। उसे प्रस्तुत कराके कानून बनवाना हम सब का पहला साझा काम है।
अब तो सरकारी प्रारूप को तैयार किए हुए तीन वर्ष हो गए है। अलकनंदा, मंदाकनी पर नये बाँध नहीं बने। गंगा में खनन रुके, माँ गंगा को पर्यावरणीय प्रवाह दिलायें। जिसकी जितनी समझ शक्ति है, उसी से श्री जी.डी. अग्रवाल का काम पूरा करने में जुट जायें। कानून बन जाये तो माँ की चिकित्सा ठीक से आरंभ हो सकती है। उनको सम्पूर्ण संरक्षण भी मिल जायेगा। सानंद जी अपनी माँ को स्वस्थ्य नहीं देख पाये। सानंद जी को देखने वाले गंगा माँ को स्वस्थ्य देख पायें, ऐसी उनके जन्मदिन पर भगवान से प्रार्थना है।
मैं, तो प्रो. जी.डी. अग्रवाल जी की ऊर्जा से देशभर में उनकी बातों और अंधूरे कामों को पूरा कराने में गंगा भक्तों में चेतना जगाने का काम कर रहा हूँ और करता रहूँगा। गंगा भक्त परिषद बनवाने का संकल्प भी पूरा करने में जुटा रहूँगा और गंगा भक्तों को जोडूँगा। उनके जन्म दिन का स्मरण हम सब को ऊर्जा देता रहे।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।