रविवारीय: एक दो दिन पुराना वाक्या!
वाक्या करीब दो दिन पहले का है। सुबह की बात थी। दफ्तर को देर हो रही थी। रही सही कसर एक राष्ट्रीय पार्टी की रैली ने पूरी कर दी। पुलिस वालों ने रैली स्थल की ओर जाने वाले सभी रास्तों पर नाकाबंदी लगा दिया था। रैली स्थल पर जाने वाले रास्ते पर किसी भी प्रकार का कोई भी वाहन प्रतिबंधित। सिर्फ और सिर्फ लोगों को आने जाने की इजाजत। दफ्तर को वैसे ही देर हो रही थी। अब जिस रास्ते से हम रोजाना जाते थे उसे छुड़वाकर लंबा रास्ता पकड़ा दिया गया। क्या कर सकते थे? इतना अख्तियार कहां हमें। वैसे भी आम जन के पास अख्तियार होता भी कहां है?
खैर! पुलिस वाले ने जिधर डंडा दिखा दिया अपनी गाड़ी ने तो चुपचाप बिना कोई सवाल जवाब किए अपना रास्ता पकड़ लिया।
अभी कुछ दूर ही आगे बढ़े थे तो देखते हैं कि एक बड़ी सी चमचमाती हुई शोफर चलित गाड़ी दूसरी दिशा से बड़ी तेजी से आ रही है। सड़कों पर तो गाडियां आती जाती ही रहती हैं। जिस गाड़ी का मैं यहां जिक्र कर रहा हूं उसपर सामने की ओर लगे बोर्ड पर लाल रंग से कुछ लिखा हुआ था। बड़ी चमचमाती हुई गाड़ी और उसपर लगा हुआ बड़ा सा बोर्ड मुझे इतना बताने और समझाने के लिए काफी था कि आप जितना जल्दी हो सके अपनी रामप्यारी को साईड कर लें। हमने बिना सोचे समझे और देर किए अपनी गाड़ी को फटाक से साईड किया और उस बड़ी गाड़ी को निर्बाध रूप से जाने के लिए जगह मुहैया कराया।
भाई साहब, इतनी जल्दी से तो लोग बाग शायद एम्बुलेंस को भी रास्ता नहीं देते हैं। हालांकि मेरी पूरी कोशिश रहती है कि मुझसे साईड लेने के लिए उसे हॉर्न या फिर कहिये साईरन ना बजाना पड़े।
खैर! हम बात उस बड़ी और चमचमाती गाड़ी की कर रहे थे। मेरे साईड देने पर जब वो मेरे बगल से गुजरी तो मैंने देखा कि जिस गाड़ी को बड़े ही श्रद्धा और सम्मान से मैंने साईड दिया था उस गाड़ी के सामने वाली बोर्ड पर लिखा था “उत्तराधिकारी स्वतंत्रता सेनानी“।
यह देखकर मेरा मन तो बिल्कुल ही दु:खी हो गया। क्या हो गया है इन लोगों को? स्वतंत्रता सेनानी महोदय तो अब नहीं रहे, पर उनकी आत्मा पर क्या बीत रही होगी यह देख कर? उनकी आत्मा तो कराह रही होगी! क्या इन्हीं दिनों के लिए उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर किया था कि उनकी आने वाली पीढ़ी इस तरह से उनके नाम का इस्तेमाल करे? उन्होंने तो बिना किसी लालसा के अपनी आत्मा की आवाज पर सब कुछ छोड़कर अपने आप को देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए आजादी की लड़ाई में झोंक दिया था।
‘स्वतंत्रता सेनानी’ कोई पद थोड़े ही ना है। वैसे भी संवैधानिक पदों को छोड़कर किसी भी पद के नाम का इस्तेमाल कानूनन उचित नहीं है।
किसे दोषी ठहराया जाए? अब तक तो हमारा और आपका पाला तो, यदि आप और हम थोड़ा किस्मत वाले हों तो सांसद, विधायक, सरपंच, मुखिया जैसे रिश्तेदारों से ही पड़ता था! चलिए अब उनके बच्चे और उनके बच्चे के बच्चे भी मैदान में आ गए हैं। पता नहीं आगे क्या हो। अजीब पहचान का संकट है यह। सामर्थ्यवान व्यक्ति भी इस रोग से पीड़ित है।
आप पचास लाख की गाड़ी की सवारी कर रहे हैं। पचास लाख की गाड़ी की सवारी का मतलब आप इतने सक्षम हैं कि आपकी आने वाली कम से कम दो पीढ़ी को दाल रोटी के बारे में सोचना नहीं है। कोई जद्दोजहद नहीं, किसी भी प्रकार का कोई मशक्कत नहीं। आपको या तो समय काटना है या फिर आपके पास जो ईश्वरीय देन है उसे सहेजना और बढ़ाने की जुगत भर करनी है।
फिर भी आपके पास कुछ भी नहीं है। इतने सक्षम होने के बाद भी आप अपने लिए एक पहचान नहीं बना पाए। अब तो अब कम से कम अपने पूर्वजों के त्याग का तो थोड़ा लिहाज रखिये।
सरकार ने अपनी ओर से बेहतर व्यवस्था बनाई है,पर कहीं ना कहीं उसके क्रियान्वयन में कमी रह जाती है। लगभग हर व्यक्ति इस ‘पहचान का संकट’ नामक रोग से पीड़ित है। अति विशिष्ट होने की लालसा ने उसे इस मुकाम तक पहुंचा दिया है कि हम सही और गलत का फर्क नहीं समझ पा रहे हैं। अधिकार की बात तो हम बड़े जोरों से करते हैं, पर कर्तव्य कहीं पीछे छूट जाता है।
कर्तव्य पथ पर चलना और चलने की राह दिखाना वरिष्ठ नागरिकों का कर्तव्य है
और आप अपने कार्यक्षेत्र मे सक्षम है
धन्यवाद 🙏🙏
बहुत आभार आपका
Bhai abhi tak wo varishth nagarikon waale umr men nahin pahuncha hai😃