– सुरेश भाई*
हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे हैं जिसके कारण नदियों में बरसात के समय को छोड़कर शेष मौसमों में जल राशि धीरे-धीरे कम होती जा रही है। गोमुख ग्लेशियर अब तक 30 किमी पीछे हट चुका है। यहां से बह रही भागीरथी के बहाव की दिशा भूस्खलन के कारण बदलाव की ओर है। यहां कभी बर्फ अधिक तो कभी कम पड़ती है। लेकिन ग्लेशियर पिघलने की दर दोगुना हो गई है।
हिमालय से निकल रही सभी नदियों को 9 हजार से भी अधिक ग्लेशियरों ने जिंदा रखा हुआ है। और यहां की शेष बची हुई जैव विविधता के कारण देश को 40 प्रतिशत से अधिक जलापूर्ति हो रही है। लेकिन ग्लेशियर व बर्फ का तेजी से पिघलने का सिलसिला सन् 1997 से अधिक बढ़ा है और अब संकट बढ़ता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन इसका एक कारण हो सकता है। दूसरा वह आक्रामक स्वरूप विकास भी है, जिसने हिमालय को छलनी कर दिया है। जिसके कारण हिमालय का लहू स्वरूप मिट्टी का क्षरण तेजी से बढ़ता जा रहा है।
केन्द्र सरकार ने हिमालय इक्को मिशन बनाया था। जिसके अंतर्गत समुदाय व पंचायतों को भूमि संरक्षण व प्रबंधन के लिये जिम्मेदार बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ करनी थी। जिसके लिए एक मजबूत भू- कानून की आवश्यकता है। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य यह था कि हिमालय में भूमि प्रबंधन के साथ-साथ वन संरक्षण और जल संरक्षण के काम को मजबूती दी जा सके, ताकि गंगा समेत इसकी सहायक नदियों में जल की मात्रा बनी रहे। और हिमालय के साथ छेड़छाड़ कम हो, लेकिन ऐसा करने के स्थान पर आधुनिक विज्ञान ने सुरंग आधारित परियोजनाओं को मंजूरी देकर गंगा के पानी को हिमालय से नीचे न उतरने की सलाह दे दी है। टिहरी के बाद पंचेश्वर और पूरे हिमालय क्षेत्र में प्रस्तावित व निर्माणाधीन 1000 से अधिक सुरंग आधारित परियोजनाओं के नाम पर ऊर्जा प्रदेश की कल्पना से हिमालय नहीं बच पा रहा है। जबकि बिजली मौजूदा सिंचाई नहरों व अन्य से भी बन सकती है।
मौजूदा समय में हिमालय से आ रही गंगा की निर्मलता के लिए 20 हजार करोड़ से अधिक खर्च कर दिये है। इसका प्रभाव हिमालय से लेकर गंगासागर तक दिखाई देना चाहिए था, वह बहुत दूर तक भटक गई है। ग्लेशियरों के आसपास पर्यटकों द्वारा जमा किए जा रहे हजारों कुंतल कूड़ा-कचरा हटाने के लिये बाहर से ही कई बार लोग पहुंच जाते हैं और कूड़ा एकत्रित करके वे गंगा के किनारे या हिमालय की गोद में ही फेंक कर चले जाते हैं। वर्ष 2022 का आंकड़ा है कि चार धाम में पहुंचे 30 लाख से अधिक पर्यटकों ने प्रतिदिन 10,000 किलोग्राम कचरा छोड़कर चले गए हैं। यदि इस कूड़े के निस्तारण के लिए एक सुनियोजित व्यवस्था बनायी जाती तो नौजवानों को रोजगार भी मिलता और कूड़ा भी नदियों में डालने से रोका जा सकता था।
2013 में केदारनाथ आपदा और 2021 में चमोली आपदा के समय का दृश्य कभी भुलाया नहीं जा सकता, जिसने लोगों की जिंदगी और उसके तामझाम नष्ट करने में कुछ ही मिनट लगाये हैं। अगर यह जल प्रलय रात को होता तो सैकड़ों गांव से लेकर अनेकों शहरों तक लाखों लोग मर गये होते। यह विचित्र रुप में हिमालय ने सबको गवाह बनाकर दिखा दिया कि मानवजनित विकास के नाम पर पहाड़ों की गोद को अंधाधुंध छीलना कितना महंगा पड़ सकता है। दूसरी ओर इस आपदा में देशी-विदेशी हजारों पर्यटक, श्रद्धालुओं को यह संकेत मिल गया है कि हिमालय के पवित्र धामों में आना है, तो संयमित होकर आइये। 2017 और अभी 2022 की आपदा ने भी यही सचेत किया है कि मौजूदा विकास का ढांचा हिमालय के अनुकूल नहीं है।
सन 2014 मे भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में हिमालय के विषय पर भी लिखा था और देश की संसद में भी एक बहस हरिद्वार के सांसद डॉ रमेश पोखरियाल निशंक ने करवायी है। लेकिन हिमालय विकास का पृथक मॉडल अभी तक नहीं बना है। यद्यपि इस पर बयानबाजी बहुत होती है, लेकिन इस दिशा में अग्रसर नहीं हो रहे हैं।
राजा भगीरथ के प्रयास से हिमालय रुपी स्वर्ग से गंगा धरती पर आयी है। गंगा के पवित्र जल को स्पर्श मात्र से ही करोड़ों लोग अपने को धन्य मानते हैं। यह जरुरी है कि हिमालय संरक्षण हेतु गंगा सागर तक प्राकृतिक संसाधनों का सुनियोजित विकास करने वाले समाज को रोजगार देना प्राथमिकता बननी चाहिये। इसमें यह तो होना चाहिए कि इस नाम पर जो भी खर्च होता है, वह समाज के साथ करते तो समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी सुनिश्चित जा सकती है। इसलिए 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद केंद्र सरकार ने पुनर्निर्माण के लिए करोड़ों खर्च किये। इसी दौरान नमामि गंगे के लिए भी बजट प्रस्तावित किए गए थे। यदि इस आपदा पुनर्निर्माण के काम को गंगा की अविरल और निर्मलता के साथ जोड़कर किया जाता तो हिमालय से ही गंगा में बह कर आ रही गंदगी को रोका जा सकता था। अतः यह नहीं भूलना चाहिये कि हिमालय के बिना गंगा का अस्तित्व संभव नहीं है।
*लेखक जाने माने पर्यावरणविद,प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता व हिमालयी अध्ययन विकास संस्थान के अध्यक्ष हैं।