रविवारीय: नामचीन मंदिर और वीआईपी दर्शन
– मनीश वर्मा ‘मनु’
आस्था का सैलाब!
जब भी मुझे भारत के किसी भी थोड़ा भी नामचीन मंदिर में दर्शनार्थ जाने का मौका मिला तो मेरी पहली कोशिश यह जानने की रहती थी कि यहां वीआईपी दर्शन की क्या व्यवस्था है। अमुमन हर बड़े और नामचीन मंदिरों में आपको वी आई पी दर्शन की सशुल्क व्यवस्था मिल ही जाती है। मंदिर प्रशासन खुद ऐसे इंतज़ाम करता है।
वीआईपी दर्शन के लिए टिकट कटाया, समय का एक स्लोट मिल गया और हो गए निश्चिंत। ख़ुद को थोड़े ही देर के लिए ही सही, ख़ास समझने लगे। अगर मंदिर प्रशासन की तरफ से ऐसी कोई व्यवस्था किसी कारण से नहीं है तो अपना जुगाड़ टेक्नोलॉजी तो काम करता ही है। बस थोड़े पैसे ही तो ख़र्च करने को होते हैं। कहीं कहीं पर तो अपने सरकारी अधिकारी होने का भी दंभ होता है। भूल जाते हैं हम कि हम भगवान के शरण में आए हुए हैं। सभी बराबर हैं यहां तो!
अब जब हो गए हम वीआईपी दर्शनार्थी तो मंदिर के बाहर की सर्पिलाकार लाईन को देखते ही हमें ऐसा लगता है कि अच्छा है हम लाइन में नहीं लगे हैं। यह तो हमारे लिए है ही नहीं। मुझे वो लोग गरीब गुरबे लाचार और थोड़े अंधभक्त नजर आते थे।
आम दर्शन और वीआईपी दर्शन करने के अंतरद्वंद्व के बीच हमारी अपनी तर्कशीलता थी। तर्क तो आपसे कहीं भी कुछ भी करवा लेता है। बस जब भी किसी बात को लेकर परेशान हों। आपके अंदर ही अंदर एक द्वंद्व की स्थिति हो तो छोड़ दें अपने आप को तर्क की लहरों पर। गारंटी के साथ आपकी डूबती नैया पार लग जाएगी। लोग कहते हैं आस्था और तर्क दो समानांतर लाइन हैं। मिलने की संभावना नहीं है। पर तर्क किसी न किसी प्रकार आपको रास्ता ढूंढ कर ला ही देगा।
जी हां ! अगर आपको वाकई में आस्था किस बला का नाम है, जानने की इच्छा हो तो भारत के किसी भी नामचीन तीर्थ स्थल का रूख़ करें। आपको पता चल जाएगा। किसी से कुछ भी पूछने और जानने की जरूरत नहीं है। बस, एक बात का ध्यान रखना है कि वह तीर्थ स्थल चाहे किसी भी धर्म का हो बस थोड़ा नामचीन होना चाहिए।
अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। एक मंदिर में जाने का मौका मिला। पहले भी उस मंदिर में जाते रहे हैं। कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि यहां अपने आप को वीआईपी दर्शनार्थी का दर्ज़ा लेकर या फ़िर जुगाड़ टेक्नोलॉजी से पहले दर्शन करना चाहिए। दरअसल वहां इतनी भीड़ अमुमन नहीं होती थी। उस दिन ऐसा कोई ख़ास दिन भी नहीं था। बस सप्ताहांत था और श्रावण का महीना चल रहा था। सामान्य तौर पर श्रावण का महीना भगवान बमबम भोलेनाथ के पास सबको लिए जाता है तो इस बात का भी सुकून था कि हम बाबा के दर्शनार्थ नहीं जा रहे हैं। बाहर एक छोटी सी लाइन थी हम सभी उसमें ही लग गए। थोड़ी भीड़ थी। मुझे लगा रविवार का दिन है इसलिए थोड़ी बहुत भीड़ है। आधे घंटे में निपट जाएंगे। अपने वी आई पी सिंड्रोम पर थोड़ा अंकुश लगाए। थोड़ा अपने आप को समझाए। क्यों ऐसा करना है? क्यों भला जुगाड़ टेक्नोलॉजी का सहारा लेना है? मौसम भी बढ़िया है। भगवान के दरबार में आए हैं। अबकी बार तो पंक्तिबद्ध होकर ही दर्शन करेंगे। पर मुझे आश्चर्य तब हुआ जब हम सभी बाहर से धीरे धीरे बढ़ते हुए मंदिर के प्रांगण में पहुंचे। वहां का नज़ारा देखकर मेरे तो होश ही उड़ गए। अंदर करीब दो हज़ार से अधिक की भीड़ सर्पिलाकार रास्ते से सरक सरक कर आगे बढ़ रही थी। अब मेरा धैर्य चुकने लगा था। अपने निर्णय पर थोड़ा पछताने भी लगे थे। धर्म और आस्था पर खरामा खरामा तर्क हावी हो रहा था। अपने आप को बहुत मुश्किल से समझाते हुए आगे बढ़ रहे थे। कई बार ऐसा मौका आया – लगा बस अब नहीं! तब तर्क थोड़ा पीछे हट जाता धर्मभीरुता सामने आ खड़ी होती। कईयों को मैंने लाइन तोड़कर आगे निकलते देखा। पर अपनी उम्र और संस्कार आगे आ गए। मन कहने लगा कि लाइन तोड़कर आगे निकलकर दर्शन करने से क्या भगवान के साक्षात दर्शन होंगे। मन इसी तरह के अंतरद्वंद्व में उलझकर मुझे आगे धकेलता गया। उस वक़्त अचानक से मुझे विचार आया कि जो लोग किसी भी तरह से पहले दर्शन कर लिए, वो हम सभी को लाइन में खड़े देखकर क्या सोच रहे होंगे। हम तो दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं इसी बात को लेकर हमेशा परेशान रहते हैं। सच्चाई है कि कोई किसी के बारे में कुछ नहीं सोच रहा होता। इस दौड़ती भागती हुई जिंदगी में किसे इतनी फुर्सत है। खामखां लोग अपने सोच को एक आयाम देते रहते हैं
ख़ैर! मैं भी वी आई पी दर्शन के उपरांत लाइन में खड़ी भीड़ को देखकर कुछ कुछ सोचता रहा। आखिर कैसे इतनी देर कोई लाइन में खड़े होकर दर्शन कर सकता है भला। जरूर कोई मजबूरी रही होगी। सब कुछ मन के अंदर ही अंदर चल रहा था। अचानक से क्या देखते हैं। अरे! हम तो अब मंदिर के गर्भ गृह में आ गए हैं। जल्दी से अपने आप को संभाला। संयत किए और भगवान को छू कर जितना भी वरदान मांग सकते थे मांगे और बाहर निकल आए।
वी आई पी दर्शन और जुगाड़ टेक्नोलॉजी से दर्शन नहीं कर पाने का थोड़ा अफसोस जरूर रहा। लगभग साढ़े तीन घंटे की लाइन ऐसा लगा मानो कहीं न कहीं हमने अपना बेशकीमती समय जाया कर दिया। पर, वहां से निकलने के बाद एक बात का सुकून था कि हम उन हजारों लाखों लोगों के बीच में से एक हैं जो आस्था, विश्वास और श्रद्धा के साथ भगवान की पूजा करते हैं। सच्चाई है कि वी आई पी दर्शन और जुगाड़ टेक्नोलॉजी से पहले दर्शन करना एक सुखद अनुभूति का अहसास कराता है।आप अपने आप को कुछ देर के लिए ही सही पर औरों से थोड़ा अलग पाते हैं। पर, कहीं न कहीं आप अपने को भूल जाते हैं। आस्था, विश्वास और श्रद्धा का संगम आपको एक अलग ही अनुभव देता है जब आप घंटों लाइन में खड़े होकर दर्शन करते हैं। लोगों को देखते हैं अपने अपने तरीके से भगवान को याद करते हुए। समाज के एक अलग ही आयाम का अनुभव आप करते हैं। आप तब और भावविह्वल हो जाते हैं जब अशक्त लाचारों को लाइन में खड़े देखते हैं। बुजुर्ग जो ढंग से खड़े नहीं रह पा रहे हैं । वो श्रद्धा पूर्वक लाइन में खड़े हैं। अपने आप को उन्होंने बिल्कुल ही समर्पित कर दिया है भगवान के श्री चरणों में।
यह सब एक तपस्या है और भगवान की आराधना एक तप ही तो है। आस्था विश्वास और श्रद्धा इसके सामने कोई तर्क नहीं।
Beautiful description.This is truth of our life.