संस्मरण
-डॉ. राजेंद्र सिंह*
फिलिस्तीन को इज़राइली प्रौद्योगिकी ने बेपानी बनाया है
बहुत सीधे-सरल, बडे़ दिल वाले फिलिस्तीनी बहिन आइदा शिबली और साद दागेर मेरे अद्भुत दोस्त बन गए हैं । यहाँ मेवों से भरे-पूरे बड़ी-बड़ी जेबों वाले, बड़े – बूढ़े महिला-पुरुष गजब के है। बहुत ही सुन्दर पोशाकों से पुरानी रीति-रिवाजों को मानने वाले फिलिस्तीनी भाई-बहिनों ने मेरा मन मोह लिया। घर खाली, पर दिल भरा हुआ, रेगिस्तानी गाजा क्षेत्र के घर में जाकर उनकी बकरी, भेड़, ऊँट सभी की मिश्रित सुगन्ध मेरे जैसे किसानी करने वाले वैद्य को मोह लेती है। मेरी पढ़ाई के दिनों में भेषज कार्यशाला जैसी औषधि सुगंध से भरा घर है। मेरा विद्यार्थी जीवन का मुझे यहाँ स्मरण आ गया।
सादा आचार-विचार, सरल आहार-विहार अपनी ऊँट, बकरी सभी कुछ सीमित जल संकट से अब फिलिस्तीनी उजड़ कर बाहर जाने के लिए तरस रहे है। मिट्टी से जुड़े होने के बावजूद, जल नहीं होना, इन्हें अपनी जमीन और जमीर से अलग कर रहा है। अब ये किसी तरह फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, यू.के. आदि देशों के शहरों में जाते है, तो वहाँ भी जलवायु परिवर्तन शरणार्थी कहलाकर अपमानित होते ही रहते है।
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इन्हें लगभग एक सौ वर्षों में बहुत अपमानित होना पड़ा है। अपमान के कारण टूटने पर भी इनका दिल छोटा नहीं हुआ। अभी पुरानी खेती और बीज कुछ भी जल संकट के कारण बचा ही नहीं है। इनके पढ़े लिखे लोगों ने आद्युनिकता का रास्ता दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आद्युनिकता जहाँ सीखी वहाँ पर्याप्त जल था। फिलिस्तीन को उसी प्रौद्योगिकी आद्युनिकता ने बेपानी बनाकर उजाड़ने हेतु मजबूर कर दिया।
इन्हें अपना ही जल इज़राइल से बहुत महँगा खरीदकर जीना बहुत कठिन हुआ है। तभी यह शरणार्थी बनकर यूरोप में घुसे है। यूरोप भी मांसाहारी है। ये भी मांसाहारी है। यूरोप जाना इन्हें अच्छा नहीं लगा था। इनकी मजबूरी बना था। यूरोप जाना इनकी जीविका मजबूरी है।
यूरोप इन्हें अब बहुत बड़ा बोझमान रहा है। बोझ मानकर ही इनके साथ जी रहा है। फिलिस्तीन के साथ इज़राइल का अनैतिक व्यवहार होने से बहुत अपमान और अन्याय इस देश ने भुगता है। आखिर इस देश में कम्पनियों की व्यापारिक आधुनिक खेती ने ही इन्हें उजड़ने हेतु मजबूर किया है। क्योंकि इनके जल पर इज़राइल बहुत ही महंगे दामों पर इन्हें जल बेचता है। वह इनकी खेती से पूगता (मिलता) नही है।
इनकी पुरानी खेती तो कम जल में अधिक पोषक तत्व इन्हें प्रदान करती ही थी। किन्तु अब करार खेती ने इन्हें उजाड़ दिया है। मूल कारण इज़राइल की मंहगी प्रोद्यौगिकी से उपचारित जल-मूल्य आधारित खरीद है। इस देश में इज़राइल द्वारा की गई गोलाबारी, लड़ाई-झगड़े ही है। ऊपर से वहीं के बीज, खाद, दवाई, जल प्रौद्योगिकी, सभी में लूटकर ये लाचार-बेकार और बीमार बन गए है।
इज़राइल की अतिक्रमण नीति ने इसे सुरक्षा प्रौद्योगिकी वाला देश भी बना दिया। उससे भी फिलिस्तीन भयभीत है। क्योंकि इसकी सुरक्षा के नाम पर भी इस देश ने भारत की भी अब लूट शुरू की है। फिलिस्तीन तो अपने पड़ौसी की अनैतिकता और अन्याय से त्रस्त( दुखी ) है। भारत इज़राइल से दोस्ती का हाथ बढ़ाने हेतु उसकी सुरक्षा और जल प्रौद्योगिकी खरीद रहा है।
पड़ोसी का अन्याय अनैतिकता तो भय-अतिक्रमण शोषण करके उजाड़ती ही है। वही फिलिस्तीन के साथ हुआ है। यह शोषित राष्ट्र है। शोषणकर्ता पड़ौसी ही है। इज़राइल ने इसे जल, अन्न, दवाई, पढ़ाई, सभी की चोरी छिपे बेचकर लूट लिया और कंगाल बना दिया है। अब इसे पूर्णतः कब्जा करने वाली चाल चल रहा है।
पड़ौसी ने बेपानी बनाकर फिलिस्तीन को उजाड़ दिया है। अब यह विस्थापन का शिकार बन गया है। विस्थापन ही अब तीसरे विश्व युद्ध की आगाज है। मैं इस देश में इज़राइल के बाद गया। यहाँ मेरे साथियों ने अपना संकट सुनाया।
इज़राइल के सताये फिलिस्तीनियों में अब बहुत गुस्सा है। लाचारी-बेकारी-बीमारी इन्हें कुछ भी नहीं करने देती है। यह देश तीसरे विश्व युद्ध का शिकार होगा। इज़राइल की प्रौद्योगिकी अभी तो इनकी शिकारी है। इन्हें शिकार मानकर खा रही है। लेकिन इनका अंदर का गुस्सा कभी इज़राइल की प्रौद्योगिकी लूट को रोकने वाला बनेगा।
साथी साद दागेऱ यहाँ की पुरानी मूल की कम जल खर्च वाली खेती करता है। यही फिलिस्तीनियों को सिखा रहा है। यह मूल फिलिस्तीनियों को जोड़कर कम खर्च वाली खेती द्वारा इज़राइल की लूट कम करने में जुटा है। यह फिलिस्तीनी है। यह भी आधुनिक पढ़ाई का डॉक्ट्रेरेट है। लेकिन मूल फिलिस्तीनी संस्कृति पोषक होने के कारण जल व खेती बचानें के काम में लगा है।
फिलिस्तीनी भी अब इज़राइलियों जैसा ही बनना चाहते हैं। इसलिए इसके चमन में अब पुराना त्याग नहीं बचा है। जिसके बलबूते पर यह ऊपर उठा है, उसे भूल गया है। फिलिस्तीन ने अपने घर के दरवाजे जिनके लिए खोले थे; उन्हीं ‘‘इज़राइलियों‘‘ ने फिलिस्तीनियों के घर पर ही कब्जा कर लिया है, इन्हें बेघर बना दिया है। साद कहता है कि, मैं ऐसे घर में पैदा हुआ, जिसने दूसरों को खिलाकर खाया था। अब वही मार कर ,खाने वाला मालिक ही बन गया है। इसीलिए हम बेघर, बे-पानी हो गये हैं।
हमारी दूसरी साथी आइदा शिबली फिलिस्तीनी शरणार्थियों को शरण दिलाने का काम कर रही है। इसका सम्पूर्ण लक्ष्य शरणार्थी मुक्त दुनिया बनाना है। जब कोई भी अपना साध्य(लक्ष्य) बड़ा बनाता है, तब काम कम होता है। काम ज्यादा सेवा-राहत से शुरू होकर बड़े साध्य को सफलता दिला देता है। आइदा शिबली ने कहा कि, हम कौन हैं? हम कैसे एकता बना सकते हैं? हम कैसे एक हो सकते हैं? इस प्लेनैट पर बहुत लोग अलग-अलग प्रयोजन पर काम करते हैं।
मध्य एशिया और अफ्रीका से उजड़कर शरणार्थी यूरोप की तरफ जीवन और जीविका के लिए जा रहे है। इनके उजड़ने का मुख्य कारण लाचारी, बेकारी और बीमारी है। यूरोप के पानीदार देशों में जाना इनकी मजबूरी है। यूरोप के कुछ देशों ने इनके संकट को समझकर, कुछ सहारा देना शुरू किया है। अब राजनेताओं ने इनके प्रवेश पर रोक लगा दी है। वोट का लालच नेताओं को कुछ भी बोलने हेतु मजबूर कर देता है। नेता भी झूठ-सच बोलकर अपना स्वार्थ पूरा करने में लगे हुए हैं, इसीलिए दुनिया उजड़ रही है। अभी लोग उजड़ कर नई जगह ढूँढ़ रहे हैं। एक दिन ऐसा आयेगा, जब दुनिया में सहारा ढूँढना संभव नहीं होगा। आज का पलायन हमें यही बता रहा है। इससे बचने के लिए मानव और प्रकृति के रिश्तों को ठीक करना होगा। टूट-फूट रोकनी होगी तभी इस धरती पर फिर कोई शरणार्थी नहीं बनेगा। हमें शरणार्थी मुक्त दुनिया बनानी है।
युद्ध-मुक्त, अन्न, जल, वायु, सुरक्षा से शरणार्थी-मुक्त दुनिया बनेगी। ज्यादातर शरणार्थी जल संकट से बनते जा रहे हैं। दुनिया में जब रोजी-रोटी ,पानी, हवा की सुरक्षा मिलेगी तभी उजाड़ रुकेगा। उजाड़ना मानवीय लालच है। यही शरणार्थियों की संख्या बढ़ा रहा है। लालच मुक्त दुनिया ही शरणार्थी मुक्त होगी।
आइदा कहती है कि, जब हमारे यहाँ प्रौढ़ होते हैं, उनकी बड़ी जेब होती है। उनमें बच्चों के लिए खजूर, मक्का के दाने आदि रखते थे। मैं जिस संस्कृति में जन्मी वह खत्म हो चुकी है। मैं उसे बचाने के काम में लगी हुई हूँ। इसलिए संविदा में जी रही हूँ। मेरा डी.एन.ए. फिलिस्तीनी है और कल्चर पुर्तगाली है। मेरी कम्यूनिटी नहीं बची है। मैं अपने मूल स्थान पर नहीं जा पा रही हूँ। मुझे समझ नहीं आता और मैं कभी अंतिम बिन्दु पर पहुँच नहीं पाती हूँ। मेरी संवेदना, मुझे जीना स्मरण कराती रहती है। मैं अपनी स्मृतियों में ही जीती रही हूँं। मेरी स्मृतियांँ दर्द भी देती हैं और प्यार-दुलार व ऊर्जा भी देती हैं। इसीलिए मैं अपने अतीत को सदैव याद रखती हूँ। मेरी धरती पर तो अब कब्ज़े हो रहे हैं, वहाँ से लोग उजड़ रहे हैं। मेरे पास उन्हें लाने के पैसे नहीं हैं और लोग स्वयं सुरक्षित स्थानों पर पहुँच नहीं पा रहे हैं, लेकिन मैं पहुंँच गई हूँ।
फिलिस्तीनियों का दर्द कम करना उन्हें के स्थान पर बनाये रखने के काम में मेरे कई मित्र ग्रेविल मेयर भी लगे है। वे अपने गीतों से दुनिया को गाकर जोड़ने का काम कर रहे है और भी कई साथी पेलिस्तीनियों की मदद में लगे है।
मूल समाधान तो जल संरक्षण ही है। वह अभी यहाँ काम तेजी से करने की जरूरत है। यह काम हमारे इज़राइली साथियों को जाकर शुरू कराना होगा। साद भी इस काम में लगा है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।