भारत के लोकतंत्र के 75 वर्ष पूरे होने के बावजूद सामाजिक न्याय एक अधूरी लड़ाई बना हुआ है। देश की 70% आबादी — अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और अन्य पिछड़ा वर्ग — को लोकसभा की 543 में से 412 सामान्य सीटों पर नाममात्र की हिस्सेदारी मिलती है, जबकि 30% सामान्य वर्ग 250 से अधिक सीटों पर कब्जा जमाए हुए है। यह असमानता न केवल लोकतंत्र की आत्मा को झकझोरती है, बल्कि संविधान के मूल सिद्धांतों पर सवाल उठाती है। क्या बहुजनों से सिर्फ वोट चाहिए और सत्ता की कुर्सी किसी और के लिए आरक्षित है? प्रशासन, न्यायपालिका, शिक्षा, और मीडिया में भी वंचित समुदायों की अनुपस्थिति सामाजिक न्याय को एक खोखला नारा बनाती है।
लोकसभा में 131 सीटें — यानी 24.13% —अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। यह व्यवस्था वंचित समुदायों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास है, लेकिन बाकी 412 सामान्य सीटों पर सामाजिक न्याय की कोई झलक नहीं दिखती। अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, और अनुसूचित जनजाति, जो देश की जनसंख्या का लगभग 70% हिस्सा हैं, इन सीटों पर नगण्य प्रतिनिधित्व पाते हैं। इसके विपरीत, सामान्य वर्ग, जो जनसंख्या का 30% है, संसद में आधे से अधिक सीटों पर हावी है। यह आंकड़ा न केवल चौंकाने वाला है, बल्कि यह सवाल उठाता है कि क्या भारत का लोकतंत्र सिर्फ गिनती का खेल है, या यह हिस्सेदारी का अधिकार सुनिश्चित करता है?
यह असमानता केवल संसद तक सीमित नहीं है। सामाजिक न्याय का दावा करने वाली सरकारें भी इस मोर्चे पर विफल रही हैं। भले ही कोई अन्य पिछड़ा वर्ग मुख्यमंत्री बन जाए, मंत्रिमंडल में सवर्णों का वर्चस्व बना रहता है। विश्वविद्यालयों के कुलपति, न्यायपालिका के न्यायाधीश, और मीडिया के संपादक — सभी क्षेत्रों में सवर्ण समुदाय का दबदबा कायम है। बहुजन समाज को चुनावी पोस्टरों तक सीमित कर दिया गया है, जबकि नीतिगत फैसलों और निर्णायक पदों से उन्हें जानबूझकर दूर रखा जाता है। यह प्रतीकात्मक राजनीति का नग्न रूप है, जहां चेहरों को बदलकर जनता को भ्रमित किया जाता है, लेकिन सत्ता की सोच वही पुरानी रहती है।
यह स्थिति संविधान की आत्मा के साथ विश्वासघात है। जब तक नीति निर्माण, योजना आयोग, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, और न्यायपालिका में बहुजनों की पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं होगी, सामाजिक न्याय एक चुनावी जुमला ही रहेगा। संविधान ने प्रत्येक नागरिक को समानता और प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया है, लेकिन वास्तविकता में यह अधिकार केवल कागजों तक सीमित है। बहुजन समाज को सिर्फ वोटर के रूप में देखा जाता है, न कि सत्ता के हिस्सेदार के रूप में।
सामाजिक न्याय को वास्तविकता में बदलने के लिए ठोस कदमों की आवश्यकता है। राजनीतिक दलों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में टिकट देना चाहिए। 412 सामान्य सीटों पर भी सामाजिक संतुलन लागू करने की जरूरत है, ताकि संसद वास्तव में देश की विविधता को प्रतिबिंबित करे। इसके अलावा, जातिगत जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, और उसी आधार पर नीतियां बननी चाहिए। प्रशासन, न्यायपालिका, शिक्षा, और मीडिया में वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना भी अनिवार्य है।
वर्तमान में, भारत का लोकतंत्र एक ऐसी दौड़ बन गया है, जिसमें वंचित समुदाय सबसे पीछे खड़े हैं। यह वही समुदाय हैं, जिन्होंने अपने संघर्षों से इस लोकतंत्र की नींव को मजबूत किया। फिर भी, सत्ता के गलियारों में उनकी आवाज गूंजने के बजाय दबा दी जाती है। यह केवल धोखा नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों के साथ गद्दारी है।
अब समय है कि बहुजन समाज प्रतीकों की जगह वास्तविक प्रतिनिधि बनें। हर बस्ती, गांव, और शहर से ऐसा नेतृत्व उभरे, जो संविधान को समझे, समाज की नब्ज पहचाने, और जनता के लिए लड़े। नारेबाजी और खोखले वादों का दौर खत्म होना चाहिए। सामाजिक न्याय तब तक अधूरा रहेगा, जब तक प्रत्येक नागरिक को सत्ता में हिस्सेदारी का हक नहीं मिलता। यह देश अब प्रतीकों से नहीं, बल्कि संविधान की ताकत और वास्तविक प्रतिनिधियों से बदलेगा।
*संस्थापक – मानवाधिकार संघ। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
