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बीच बहस
कृषि अध्यादेश: खतरे में किसानों का वजूद
– धर्मेंद्र मलिक*
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हाल ही में, हरियाणा में किसानों के एक आंदोलन पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज किया गया है। वे किसान सरकार द्वारा पारित तीन नए अध्यादेशों या कानून का विरोध कर रहे थे। किसानों से जुड़े तीनों नए कानून देखने में भले प्रगतिशील लगें बल्कि असल में, वे प्रतिगामी सोच के साथ ड्राफ्ट किये गए हैं और धीरे-धीरे किसानों को, जमाखोर व्यापारियों और कॉरपोरेट, मल्टी नेशनल कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़, अंततः किसान विरोधी ही साबित होंगे।
एक पुराना वादा है सरकार का कि 2022 तक किसानों की आय दुगुनी कर दी जाएगी। 2014 का एक और बहुत मशहूर वादा है, जो सरकार के संकल्प पत्र, यानी चुनावी घोषणापत्र में, दर्ज है, न्यूनतम समर्थन मूल्य( एमएसपी), स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा के अनुसार कर दिया जाएगा। पर 6 साल में से 6 महीने कोरोना के घटा दीजिए, तो भी, इस वादे पर सरकार ने कोई काम नहीं किया।
यह नए अध्यादेश धीरे-धीरे एमएसपी की प्रथा को खत्म कर देंगे, कांट्रेक्ट फार्मिंग के रूप में एक नए प्रकार के ज़मींदारवाद को जन्म देंगे और आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन के साथ जमाखोरों की एक नयी जमात पैदा कर देंगे, और किसान, प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यास के पात्र सरीखे बन कर रह जायेंगे। मंडियां अप्रासंगिक हो जाएंगी। धीरे-धीरे, किसान, आढ़तिया और जमाखोर व्यापारियों के रहमोकरम पर निर्भर हो जाएंगे। यह सेठ साहूकार के घृणित संजाल में फंसने जैसा होगा।
कॉरपोरेट अगर इस क्षेत्र में घुसा तो, खेती ही नहीं, किसानों की अपनी अस्मिता का स्वरूप ही बदल जायेगा। यह अध्यादेश किसानों के हित में नहीं है। इसका विरोध उचित है। सरकार को किसानों की शंकाओं का समाधान करना चाहिए। आप सब से अनुरोध है कि नए कानून पढें और उनका विश्लेषण करें। इन्हीं नए कानूनों को लेकर किसानों में जबरदस्त आक्रोश है और इसकी अभिव्यक्ति भले ही अभी हरियाणा और पंजाब में दिख रही हो, पर विरोध की सुगबुगाहट हर जगह है।
यह आक्रोश जब सड़कों पर उतरेगा तो इसका समाधान, केवल पुलिस के बल पर ही सम्भव नहीं है और बल प्रयोग हर असंतोष, प्रतिरोध, विरोध और आंदोलनों का समाधान होता भी नहीं है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जिसमें, एक तरफ सरकार व अनेक अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि कोरोना काल में सिर्फ कृषि क्षेत्र ही देश की आर्थिकी को ज़िंदा रखे हुए है, दूसरी तरफ केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद बन्द कर के किसानों का शोषण करने का आधार तय कर रही है। आज भी किसानों को उनकी फसलों का उचित एमएसपी नहीं मिल पा रहा है। यदि सरकार ने एमएसपी पर किसानों की उपज खरीदना बंद कर दिया तो खेती-किसानी के साथ-साथ देश की खाद्यान्न सुरक्षा भी बड़े संकट में फंस जाएगी।
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कृषि अर्थशास्त्र के जानकर और किसानों की समस्याओं का नियमित अध्ययन करने वालों का यह मानना है कि इन अध्यादेशों के द्वारा भविष्य में सरकार एमएसपी की प्रथा को ही धीरे-धीरे खत्म कर देगी। हालांकि, केंद्र सरकार यह दावा कर रही है कि इन अध्यादेशों से किसानों का हित होगा, लेकिन यह कैसे होगा, यह, बता नहीं पता चल रही है। इन कानूनों के आलोचकों का मानना है कि, इससे कॉरपोरेट और बड़ी कम्पनियों को ही लाभ पहुंचेगा।
एमएसपी के खिलाफ, पूंजीवादी लॉबी शुरू से ही पड़ी है और वह लॉबी देश के कृषि का स्वरूप बदलना चाहती है। यह तो जगजाहिर है कि सरकार चाहे यूपीए की हो, या एनडीए की, दोनों ही सरकारों का आर्थिक दर्शन और सोच उद्योगों के प्रति झुका हुआ है और खेती की उपेक्षा दोनों ही सरकारों के समय की गयी है। केंद्र सरकार के ऊपर विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ का दबाव निरन्तर पड़ता रहता है कि किसानों को मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य और हर प्रकार की सब्सिडी केंद्र सरकार समाप्त करे। इन सब्सिडी और सुविधाओं को जानबूझकर एक फिजूलखर्ची के रूप में पूंजीवादी लॉबी प्रचारित करती रही है।
पहले भी यूपीए और एनडीए की सरकारों ने एमएसपी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाने की असफल कोशिश की थी, लेकिन किसानों के दबाव के सामने उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े। अब सरकार ने कोरोना आपदा में एक अवसर की तलाश कर लिया है और लॉकडाउन का अनैतिक तरीके से लाभ उठाकर उसने यह तीनों अध्यादेश जारी कर दिए। सरकार को यह उम्मीद थी कि इस लॉकडाउन काल में इन कानूनों का विरोध नहीं होगा, पर सरकार का यह अनुमान गलत साबित हुआ और हरियाणा में जबरदस्त विरोध हुआ। किसानों के संघ के एक पदाधिकारी, के अनुसार, “किसानों के विरोध को भांपने के लिए अब की बार मक्के और मूंग का एक भी दाना एमएसपी पर नहीं खरीदा गया, आगे आने वाले समय में केंद्र सरकार गेहूं और धान की एमएसपी पर खरीद भी बन्द करने की दिशा में बढ़ रही है।”
अब उन तीन कृषि अध्यादेशों की एक संक्षिप्त चर्चा करते हैं।
पहला अध्यादेश है फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स ( प्रोमोशन एंड फेसिलिटेशन ) ऑर्डिनेंस:
- इस कानून के अंतर्गत ‘एक देश, एक कृषि मार्केट’ बनाने की बात कही गयी है और कोई भी पैन कार्ड धारक व्यक्ति, कम्पनी, सुपर मार्केट, किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकता है। कृषि माल की बिक्री कृषि मंडी समिति में ही होने की अनिवार्य शर्त के हटा ली गयी है।
- कृषि माल की जो खरीद कृषि मंडी मार्केट से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स या शुल्क नहीं लगेगा। एपीएमसी मार्केट व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी क्योंकि इस व्यवस्था में टैक्स व अन्य शुल्क लगते रहेंगे।
- किसानों का माल खरीद सकने वाले लोग, तीन दिन के अंदर किसानों को भुगतान करेंगे।
- सामान खरीदने वाले व्यक्ति या कम्पनी और किसान के बीच विवाद होने पर इसका समाधान एसडीएम करेंगे।
- एसडीएम, द्वारा सम्बन्धित किसान एवं माल खरीदने वाली कम्पनी के अधिकारी की एक कमेटी बना के आपसी बातचीत के जरिये समाधान के लिए 30 दिन का समय दिया जाएगा।
- अगर बातचीत से समाधान नहीं हुआ तो एसडीएम द्वारा मामले की सुनवाई की जाएगी।
- एसडीएम के आदेश से सहमत न होने पर जिला अधिकारी के पास अपील का प्रावधान है। एसडीएम और जिला अधिकारी को 30 दिन में समाधान करना होगा।
- किसान व कम्पनी के बीच विवाद होने की स्थिति में इस कानून के अंतर्गत अदालत में कोई बाद दाखिल नहीं किया जा सकेगा।
अब इस कानून से किसानों के समक्ष क्या समस्याएं आ सकती हैं, उसका भी विवरण पढ़ें:
- आपसी विवाद होने की स्थिति में, न्यायालय का कोई विकल्प नहीं रखा गया है।
- प्रशासनिक अधिकारी अक्सर सरकार के दबाव में रह सकते हैं और यदि, सरकार का झुकाव व्यापारियों व कम्पनियों की तरफ होता है तो न्यायोचित समाधान की संभावना कम हो सकती है।
- न्यायालय सरकार के अधीन नहीं होते हैं और न्याय के लिए अदालत में जाने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। जिसका ध्यान इस कानून में नहीं रखा गया है।
- सरकार ने इस बात की कोई गारंटी नहीं दी है कि प्राइवेट पैन कार्ड धारक व्यक्ति, कम्पनी या सुपर मार्केट द्वारा किसानों के माल की खरीद एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर ही होगी।
- इस अध्यादेश से सबसे बड़ा खतरा यह है कि जब फसलें तैयार होंगी, उस समय बड़ी-बड़ी कम्पनियां जान बूझ कर किसानों के माल का दाम गिरा देंगी और उसे बड़ी मात्रा में स्टोर कर लेंगी जिसे वे बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगी।
मंडियों में किसानों की फसलों की एमएसपी पर खरीद सुनिश्चित करने के लिए और व्यापारियों पर लगाम लगाने के लिए एपीएमसी एक्ट अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा बनाया गया था। कानून के अनुसार मंडियों का कंट्रोल किसानों के पास होना चाहिए लेकिन वहां भी व्यापारियों ने गिरोह बना के किसानों को लूटना शुरू कर दिया। एपीएमसी एक्ट में हालांकि सुधार की जरूरत है, दूसरी तरफ इसका एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसके तहत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि किसानों के माल की खरीद एमएसपी पर हो। अब नए अध्यादेश के जरिये सरकार किसानों के माल की एमएसपी पर खरीद की अपनी ज़िम्मेदारी व जवाबदेही से बचना चाहती है।
जब किसानों के उत्पाद की खरीद निश्चित स्थानों पर नहीं होगी तो सरकार इस बात को रेगुलेट नहीं कर पायेगी कि किसानों के माल की खरीद एमएसपी पर हो रही है या नहीं। माल खरीदने की इस नई व्यवस्था से किसानों का शोषण बढ़ेगा।
किसान नेताओं ने इस आशंका के संदर्भ में, एक उदाहरण भी दिया है कि 2006 में बिहार सरकार ने एपीएमसी एक्ट खत्म कर के किसानों के उत्पादों की एमएसपी पर खरीद खत्म कर दी। उसके बाद किसानों का माल एमएसपी पर बिकना बन्द हो गया और प्राइवेट कम्पनियाँ किसानों का सामान एमएसपी से बहुत कम दाम पर खरीदने लगीं जिस से वहां किसानों की हालत खराब होती चली गयी।
दूसरे अध्यादेश को सरकार ने 1955 के आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन के रूप में लागू लागू किया है। 1955 का ईसी एक्ट, अवैध भंडारण करने और कालाबाज़ारी रोकने के लिए बनाया गया था जिसके तहत व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों की एक सीमा से अधिक भंडारण पर रोक लगा दी गयी थी। ज्ञातव्य है व्यापार मंडल के गठन का उद्देश्य ही ईसी एक्ट के खिलाफ हुआ था और भाजपा शुरू से ही इस एक्ट के खिलाफ रही है। अब इस नए कानून के अनुसार, कृषि उत्पादों के भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है।
भारत मे 85% छोटे किसान हैं, जिनके पास अपने उत्पाद के भंडारण की क्षमता कम है। फिर छोटी जोत होने के कारण, किसान अपने उत्पाद का लम्बे समय तक भंडारण कर भी नहीं सकते हैं। पहले आढ़तियों की जमाखोरी रोकने के लिये जो कानूनी रोक थी वह सिर्फ बड़ी कंपनियों और व्यापारियों के भंडारण करने पर थी, और इस संशोधन में उसे ही हटा दिया गया है तो यह कैसा किसान हितैषी फैसला हुआ ? यह तो सिर्फ बड़े सेठों को जमाखोरी कर के, काला बाजारी करने का पूरा अवसर देना है। स्पष्ट है, इस अध्यादेश से कृषि उत्पादों की कालाबाज़ारी बढ़ेगी।
कम्पनियाँ और सुपर मार्केट अपने बड़े-बड़े गोदामों में कृषि उत्पादों का भंडारण करेंगे और बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगे। इससे किसान तो बुरी तरह प्रभावित होगा ही पर देश का आम उपभोक्ता भी बार-बार महंगाई का शिकार होगा। इसका एक और दुष्परिणाम यह होगा कि, इस एकाधिकार से, बड़े व्यापारी बाजार का मूल्य खुद ही नियंत्रित करने लगेंगे। किसान किसी भी बारगेन की स्थिति में नहीं रहेगा, बल्कि बड़े व्यापारियों के सिंडिकेट, जो बड़ी आसानी से ऐसे अवसरों पर बन जाते हैं, के सामने कुछ कर भी नहीं पाएंगे और जैसा बाजार तय कर देगा, वैसे ही अपना अनाज बेचने को वे मजबूर हो जाएंगे। यह तो उनकी मजबूरी का शोषण करना हुआ।
अमेरिका में 1970 से ओपन मार्केट कमोडिटी एक्ट है, जिसकी नकल हम आज करने जा रहे हैं। यूएस में, वॉलमार्ट, नेक्सेस जैसी बड़ी कंपनियां किसान की फसल को खरीद कर ऐसे ही भण्डारण कर लेती हैं। जिसका परिणाम आज यह है कि अमेरिका में 2018 के एक अध्ययन में 91% किसान कर्जदार थे। जिन पर 425 बिलियन डॉलर का कर्ज है और 87% अमेरिकी किसान आज खेती छोड़ना चाहते हैं। लेकिन वहां के किसान आज सिर्फ सरकारी मदद से टिके हुए हैं। आज अमेरिका में किसान को 242 बिलियन डॉलर यानी लगभग 7 लाख करोड़ रुपया की सरकारी सब्सिडी मिलती है। तो इससे यह साफ होता है कि जो मॉडल अमेरिका में फेल हो चुका है उसे वर्तमान सरकार यहां लागू करना चाहती है।
तीसरा अध्यादेश सरकार द्वारा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के विषय पर लागू किया गया है जिसका नाम है द फार्मर्स एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एग्रीमेंट। इस कानून के अंतर्गत, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जाएगा जिसमें बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ खेती करेंगी और किसान उसमें सिर्फ मजदूरी करेंगे। इस नए अध्यादेश के तहत किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बन के रह जायेगा। ज़मीन किसान की रहेगी, श्रम किसान का होगा, क्या, कैसे, कितना बोना और बेचना है यह कम्पनियां तय करेंगी। यह एक नए प्रकार का बिना ज़मीन के मालिकाना हक़ का नवज़मींदारवाद होगा।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग खरीदार और किसानों के बीच एक ऐसा समझौता है, जिसके अनुसार, किसान किसी विशेष कृषि उत्पाद की उपयुक्त मात्रा खरीदारों को देने के लिये सहमति व्यक्त करते हैं और खरीदार उस उत्पाद को खरीदने के लिये अपनी स्वीकृति देता है। इस कानून के पीछे यह तर्क है कि:
- पर्याप्त खरीदार न मिलने पर किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है और किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिल सके और उनके उत्पाद के लिये तयशुदा बाज़ार तैयार हो।
- कृषि के क्षेत्र में पूंजीनिवेश को बढ़ावा देना ।
- कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के अंतर्गत किसानों को बीज, ऋण, उर्वरक, मशीनरी और तकनीकी सलाह सुलभ कराना, ताकि उनकी उपज कंपनियों की आवश्यकताओं के अनुरूप हो सके।
- इसमें कोई भी बिचौलिया शामिल नहीं होगा और किसानों को कंपनियों की ओर से पूर्व निर्धारित बिक्री मूल्य मिलेंगे।
- इस तरह के अनुबंध से किसानों के लिये बाजार में उनकी उपज की मांग एवं इसके मूल्यों में उतार-चढ़ाव का जोखिम कम हो जाता है और इसी तरह कंपनियों के लिये कच्चे माल की अनुपलब्धता का जोखिम घट जाता है।
संविदा पर खेती के संदर्भ में, किसान नेताओं का कहना है कि इस अध्यादेश के जरिये केंद्र सरकार कृषि का पश्चिमी मॉडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है लेकिन सरकार यह बात भूल जाती है कि हमारे किसानों की तुलना विदेशी किसानों से नहीं हो सकती क्योंकि हमारे यहां भूमि-जनसंख्या अनुपात पश्चिमी देशों से अलग है और हमारे यहां खेती-किसानी जीवनयापन करने का साधन है वहीं पश्चिमी देशों में यह व्यवसाय है।
राष्ट्रीय किसान महासंघ के अभिमन्यु कोहाड का कहना है कि अनुभव बताते हैं कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों का शोषण होता है। पिछले साल गुजरात में पेप्सिको कम्पनी ने किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा किया था जिसे बाद में किसान संगठनों के विरोध के चलते कम्पनी ने वापस ले लिया था।”
प्रतीकात्मक तस्वीर
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के नियमों के अंतर्गत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां किसानों का अनाज एक संविदा के अंतर्गत तय मूल्य पर खरीदने का वादा करती हैं । क्या उपजाना है यह भी उस कांट्रेक्ट में तय होता है। उपज, बाजार की ज़रूरत और मांग के अनुसार तय की जाती है। ज़ाहिर है किसान इन कम्पनियों के सामने हर तरह से कमज़ोर ही होंगे तो, यह कांट्रेक्ट बराबरी का नहीं बल्कि मजबूरी का ही होगा। बाद में जब किसान की फसल तैयार हो जाती है तो कम्पनियां किसानों को कुछ समय इंतजार करने के लिए कहती हैं और बाद में किसानों के उत्पाद को खराब बता कर रिजेक्ट भी कर दिया जा सकता है।
सरकार का मानना है कि इन तीन कृषि अध्यादेशों से किसानों के लिए मुक्त बाजार की व्यवस्था बनाई जाएगी जिससे किसानों को लाभ होगा लेकिन यहां यह उल्लेखनीय है कि अमेरिका व यूरोप में फ्री मार्केट यानी बाजार आधारित नीति लागू होने से पहले 1970 में रिटेल कीमत की 40% राशि किसानों को मिलती थी, अब फ्री मार्केट नीति लागू होने के बाद किसानों को रिटेल कीमत की मात्र 15% राशि मिलती है यानी फ्री मार्केट से कम्पनियों व सुपर मार्केट को फायदा हुआ है। फ्री मार्केट नीति होने के बावजूद किसानों को जीवित रखने के लिए यूरोप में किसानों को हर साल लगभग सात लाख करोड़ रुपये की सरकारी मदद मिलती है। अमेरिका व यूरोप का अनुभव बताता है कि फ्री मार्केट नीतियों से किसानों को नुकसान होता है।
सरकार को, बजाय इन अध्यादेशों के एपीएमसी एक्ट में बेहतर संशोधन करना चाहिए और 1999 में तमिलनाडु सरकार द्वारा लागू की गई ‘उझावर संथाई’ योजना पूरे देश में लागू करनी चाहिए। इस योजना के अंतर्गत, तमिलनाडु में ‘उझावर संथाई’ मार्केट स्थापित की गई जहां पर किसान सीधे आकर अपना उत्पाद बेचते हैं और वहां पर ग्राहक सीधे किसानों से उत्पाद खरीदते हैं। इस योजना पर टिप्पणी करते हुए अभिमन्यु कोहाड़ के लेख में लिखा गया है कि इस योजना से खुले मार्केट के मुकाबले किसानों को 20% ज्यादा कीमत मिलती है और ग्राहकों को 15% कम कीमत पर सामान मिलता है। इन बाजारों के कड़े नियमों के अनुसार सिर्फ किसान ही अपना माल बेच सकता है और किसी व्यापारी को इन बाजारों में घुसने की अनुमति नहीं होती है। सम्पूर्ण दस्तावेज चेक करने के बाद ही किसान इस मार्केट में अपना सामान बेच सकते हैं। इन बाजारों में किसानों से दुकान का कोई किराया नहीं लिया जाता और किसानों को अपना माल स्टोर करने के लिए राज्य सरकार द्वारा फ्री में कोल्ड स्टोरेज व्यवस्था दी जाती है। इसके साथ ‘उझावर संथाई’ मार्केट से जुड़े किसानों को अपना माल लाने ले जाने के लिए सरकारी ट्रांसपोर्ट सुविधा भी मिलती है।
किसान नेताओं की इन कानूनों के संदर्भ में, निम्न मुख्य आशंकाएं हैं:
- यह तीनों अध्यादेश किसानों के अस्तित्व के लिए खतरा हैं क्योंकि सरकार इनके माध्यम से आने वाले समय में किसानों की फसलों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बन्द करने की तैयारी कर रही है।
- यह अध्यादेश असंवैधानिक हैं। कृषि राज्य सरकारों का विषय है इसलिए केंद्र सरकार को कृषि के विषय में हस्तक्षेप करने का कोई संविधानिक अधिकार नहीं है।
- यह तीनों अध्यादेश अलोकतांत्रिक हैं क्योंकि जब पूरा देश कोरोना वायरस महामारी से लड़ रहा है और संसद भी बन्द है, उस समय ये तीनों अध्यादेश सरकार लेकर आई है। इन अध्यादेशों को लाने से पहले सरकार ने किसी भी किसान संगठन से विचार-विमर्श भी नहीं किया।
प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री डॉ देवेंदर शर्मा के एक लेख का अंश मैं यहां उद्धृत कर रहा हूँ:
“किसानों और पढ़े लिखे प्रबुद्ध जनों को भी एक बात समझ लेनी चाहिए कि, हमारे यहां दो तरह के मापदंडों पर कानून बनाये जाते हैं। एक किसानों के लिये और दूसरे इसके बिल्कुल विपरीत, उद्योगों के लिये। इसे ऐसे समझिए, पंजाब की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये गठित मोंटेक सिंह आहलूवालिया कमेटी ने किसानों को दी जा रही बिजली की सब्सिडी को तार्किक बनाने यानी कम करने की बात की। उन्होंने कहा पंजाब के 56 % किसान बिजली सब्सिडी पाते हैं, अगर यह हटा ली जाती है तो सरकार का 3,407 करोड़ रुपया बचेगा। लेकिन जब उद्योगों की बात आयी तो, इसी कमेटी ने, उनके बिजली सब्सिडी को सभी उद्योगों के लिये समान रूप से 5 रुपया प्रति यूनिट की दर से लागू करने की बात की। बिजली सब्सिडी का 78% रुपया उद्योगों के ऊपर व्यय होता है। यहीं यह सवाल उठता है कि, किसानों की बिजली सब्सिडी खत्म या कम करने और उद्योगों की सब्सिडी जारी या उसका दायरा बढ़ाने की बात क्यों की जा रही है ?”
कमोबेश ऐसा इंडस्ट्री फ्रेंडली दृष्टिकोण सभी सरकारों और अधिकतर नौकरशाहों का है ।
गन्ने की कौनसी मंडी होती है? किसान आज़ाद है कोल्हू पर बेचे या क्रेशर पर लेकिन बेहतर भाव मिलता है चीनी मिल पर क्योंकि भाव तय होता है। बाज़ार नहीं सरकार भाव तय करती फिर भी भुगतान महीनों तक नहीं होता क्योंकि लेट भुगतान पर ब्याज नहीं लगता। इसलिए किसानों को दाम की गारंटी चाहिए। ब्याज सहित भुगतान चाहिए। एमएसपी का कानूनी अधिकार चाहिए।
कृषि अध्यादेशों से जिसकी लाठी उसकी भैंस राज की पुन: स्थापना होगी, क्योंकि कृषि विपणन कानूनी राज से मुक्त होगा :-
- राज्य सरकारों का कोई कानून कृषि अध्यादेशों की विपणन व्यवस्था पर लागू नही होगा
- विवाद होने पर किसान को अदालत जाने की अनुमति नहीं (धारा-15) किसान उपज उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य(संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020
- कोई भी पैनकार्ड धारी, बिना किसी सरकारी व्यापारिक लाइसेंस / अनुमति और बिना लिखित समझौते किये, कृषि उपज खरीदने, बेचने, विपणन, भंडारण, व्यापार, आयात, निर्यात आदि कर सकता हैं (धारा 4(1), किसान उपज उत्पाद , व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020).
विवाद होने और दोषी पाये जाने पर, जेल नही होगी परंतु ज्यादा से ज्यादा 5 लाख का जुर्माना हो सकता हैं यानी करोड़ों का किसानों से घपला करो और 5 लाख देकर बरी हो जाओ (एक ऐसा ही घपला 12 सितम्बर 2020 के बुरहानपुर दैनिक भास्कर मे छपा है) । - बनेगा कृषि उपज मंडियों का काल क्योंकि कृषि विपणन बिना कृषि उपज मंडी, बिना मंडी फीस, सेस, लेवी, बिना मंडी कानुन के होगा(धारा-6 किसान उपज उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020 )
- बनेगा फसल न्यूनतम समर्थन मुल्य का काल : क्योंकि कृषि अध्यादेशो की विपणन व्यवस्था समर्थन मुल्य से मुक्त है
- किसान को बनायेगा कोरपोरेट का बन्धुआ मजदुर : बिना फसल के दाम दिये कम्पनी खेती राज स्थापित करेगा ज़िसमें खेत और मजदुरी किसान की , लेकिन फसल कम्पनी की होगी, किसान को केवल मजदुरी के पैसे मिलेंगे (धारा 2(ह ) iii, मुल्य आश्वासन पर किसान(सशक्तिकरण और संरक्षण) सेवा समझौता अध्यादेश 2020।
- अदालत नहीं, डीएम /एसडीएम करेंगे विवादो का फैंसला जो हमेशा राजनीतिक दबाव मे काम करते हैं ज़िन पर हर रोज तबादले की तलवार लटकी रहती है।
किसान विरोधी तीन कृषि अध्यादेश पर सरकार से सवाल
प्रश्न : 1. आवश्यक वस्तु अधिनियम(सुधार) अध्यादेश 2020, में दी गई कृषि उपज भंडारण छूट से किसान को क्या लाभ होगा ?
किसानों का आरोप : किसानो को अपने कृषि उत्पाद के भंडारण की छूट पहले से ही थी, अब पूंजीपति व्यापारी और कम्पनियां भ्रष्ट गठजोड़ बना कर किसान से समर्थन मूल्य से कम पर सस्ता कृषि उत्पाद खरीद कर जमाखोरी और काला बाजारी करेंगे और कृत्रिम अभाव बना कर उपभोक्ताओं को भी खुलम खुला लूटेंगे। उदाहरण के तौर पर देश में उत्पादित मुंग फसल की वार्षिक पूरी उपज (लगभग 2 करोड़ किवंटल) आज के भाव 4000 रूपए /- किवंटल पर मात्र 8000 करोड़ रूपए में खरीद कर 6 महीने में 20,000 करोड़ रूपए में बेची जा सकती है।
प्रश्न-2 : किसान उपज उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020 मे, कोई भी व्यक्ति को (जिसके पास आयकर विभाग का पैन नंबर है), बिना किसी व्यापारिक और दूसरे ऐसे जरूरी लाईसेंस के करोड़ों रूपए की कृषि उपज खरीदने, बेचने, भंडारण, निर्यात की अनुमति देना किसान हितैषी कैसे? सरकार का ये किसान विरोधी कदम कृषि क्षेत्र में करोड़ों विवादों को जन्म देगा।
क्योंकि किसान उपज उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020 : की धारा 4(1) के अनुसार कोई भी व्यक्ति/ व्यापारी जिसके पास आयकर विभाग का पैन नंबर है (बेशक जीएसटी /एक्साइज /ट्रेडिंग लाईसेंस आदि नहीं है) किसान की उपज, मण्डी के बाहर कहीं भी किसी भाव कितनी भी मात्रा में खरीद सकता है आगे धारा 4(3) कहती है कि भुगतान उसी दिन या फिर रसीद देकर तीन दिन के अंदर करना है . धारा 15 आगे कहती है कि किसी भी तरह का विवाद होने पर किसान को अदालत जाने की अनुमति नहीं होगी।
प्रश्न-3 : ऐसे किसी विवाद होने पर, धारा 15 में किसान को अदालत जाने से वंचित करना, क्या किसान के मौलिक अधिकारों (आर्टिकल 32) का खुला उलंघन नहीं है ?
प्रश्न-4 : धारा 6 में दी गई मार्केट कमेटी की फीस, सेस, लेवी, आदि में दी गई छूट किसान हितेषी कैसे ?
ये सब पूंजीपतियों और कम्पनियों को भ्रष्ट लाभ देकर कृषि उपज मण्डी यो को ख़तम करने और राज्य सरकारों के कृषि वाणिज्य करो में कमी की साज़िश है ! जब कृषि उपज मण्डी के बाहर बिना मार्केट कमेटी फीस, बिना सरकारी नियंत्रण, बिना समर्थन मूल्य पर दाम दिए खरीद की अनुमति मिल गई तो पूंजीपति और कम्पनियां मण्डी में खरीद क्यों करेंगे? तब कृषि उपज मण्डी सिर्फ सरकारी खरीद के लिए बचेगी को कुल कृषि उत्पादन का मात्र 6% होता है जिसके प्रभाव से कम व्यापार मिलने से कृषि मंडिया आपने आप निष्प्रभाव हो जाएंगी तब किसान उपज बेचने के लिए मारा -2 फिरेगा और कम्पनियां आधे भाव में कृषि उपज खरीदेंगी जैसा बिहार में वर्ष 2006 से चल रहा है।
प्रश्न-5 : देश के 82% छोटे और सीमांत किसान (2 हेक्टर जोत से कम वाले) , अपने कम साधनों के साथ, दूसरे प्रदेशों में कृषि उपज बेचने का लाभ कैसे उठा सकते है ! जबकि पूंजीपति और कम्पनियां भ्रष्ट गठजोड़ करके फसल उपज आने के समय दाम गिरा देती है जैसा प्याज, टमाटर, आलू, दलहन, तिलहन , फलो आदि फसलों में हमेशा देखा गया है ! जिससे किसान उपज को खेतो और सड़कों पर फेंकने को मजबुर होते है !
प्रश्न-6 : मूल्य आश्वाशन और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) सेवा समझौता अध्यादेश 2020 की धारा 2(H) iii कृषि सेवाएं समझौता क्या किसान को कम्पनियों का बन्धुआ मजदूर नहीं बनायेगा? जहाँ खेती कम्पनियों की मर्जी से होगी और कृषि उत्पाद बिना दाम दिए कम्पनियों की मलकियत होगी और किसान को सिर्फ उसकी मजदूरी, सेवाएं और भूमि का किराया मिलेगा !
यह धारा याद दिलाती है गुलामी दौर के भारत की ! जब ईस्ट इंडिया कम्पनी , देश के सबसे उपजाऊ कृषि क्षेत्र बंगाल ( आज के बंगला देश, पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा आदि) में उद्योगों के लिए नील की खेती करवाती थी और किसान खाने का अनाज चावल आदि बाजार से खरीदते थे जब 1943-44 में अकाल पड़ा और अनाज नहीं मिलने के वजह से 30-40 लाख किसान और ग्रामीण भूख से तड़प कर मर गए थे ! बंगाल अकाल कमिशन रिपोर्ट 1945 में बंगाल अकाल का मुख्य कारण, कम्पनी द्वारा अनाज की जमाखोरी और काला बाजारी को बताया था तब क्या इकिस्वी सदी का भारत कृषि में कम्पनी राज बुला कर बंगाल अकाल जैसा खतरा नहीं ले रहा है !
प्रश्न-7: क्या कृषि में कम्पनी राज कभी देश और किसान हितेषी कहा जा सकता है ?
प्रश्न-8 :क्या देश के 82% छोटे- सीमांत और ज्यादातर कम पढ़े किसान बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनके शातिर बिचौलिए द्वारा तैयार कृषि अनुबन्धों को समझ कर अपने हितों की रक्षा कर सकेंगे? शायद कभी नहीं, जैसा कि पेप्सी कम्पनी द्वारा दायर गुजरात के आलू किसानों पर मुकदमे से प्रमाणित भी हो गया !
लेखक उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित कृषक समृद्धि आयोग के सदस्य तथा भारतीय किसान यूनियन के महासचिव एवं मीडिया प्रभारी हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
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