विशेष आलेख
-डॉ. राजेन्द्र सिंह*
आज की प्रचलित प्रौद्योगिकी ने विकास के नाम पर विस्थापन, बिगाड़ और विनाश किया है। प्राचीन काल में संवेदनशील अहिंसक विज्ञान से ही भारत आगे बढ़ा था। प्रौद्योगिक और अभियांत्रिकी को जब संवेदनशील विज्ञान के साथ समग्रता से जोड़कर रचना और निर्माण होता है, वही विस्थापन, विकृति और विनाशमुक्त, स्थाई विकास होता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में सदैव नित्य-नूतन-निर्माण होने से ही ‘सनातन विकास’ बनता है। इसे ही हम नई स्थाई तकनीक कह सकते है व विनाश मुक्ति को ही नई अहिंसक प्रौद्योगिकी कह सकते हैं । उसी से आधुनिक वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संकट से मुक्ति मिल सकती है। ऐसी प्रौद्योगिकी एवं अभियांत्रिकी का आधार भारतीय ज्ञानतंत्र ही हो सकता है। आज के जलवायु परिवर्तन अनुकूलन व उन्मूलन करने वाली विधि से किए कामों के स्थाई प्रभाव दिखने पर ही उस काम के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की समग्रता मान सकते हैं। ये जब भी अलग -अलग होकर काम करते रहते हैं, तभी से विनाश प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जब इन्हें जोड़कर काम में लेते हैं, तभी अहिंसात्मक प्रक्रिया आरंभ होकर सनातन समृद्धि का रास्ता बना देती है।
भारतीय वैज्ञानिक-आध्यात्मिक-यौगिक आस्था में पुनर्जीवन की मान्यता है। यह अब केवल मान्यता या आस्था ही नहीं रही है, बल्कि समय सिद्ध ‘सत्य’ मान लिया है। यही मानवीय सत्य ‘प्रकृति’, जिस सम्पूर्ण जीवन को कहते है, उसकी पंचमहाभूतों से निर्मिती है, मानव सम्पूर्ण जीवन में छठी आत्मा है। यह आत्मा मानव के साथ-साथ अन्य जीवों में भी होती है।
भारतियों का भगवान ‘भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, अ-अग्नि और न-नीर। नीर-नारी-नदी को नारायण मानते है। यही भारतीय आस्था और पर्यावरण है। पर्यावरण विज्ञान संवेदनशील अहिंसक विज्ञान ही है। इसे आध्यात्मिक विज्ञान भी कह सकते है। आधुनिक विज्ञान तो केवल गणनाओं और समीकरणों के फेर में फंसकर ही संवेदना रहित विज्ञान की निर्मित होती जा रही है।
भारतीय ज्ञानतंत्र का ज्ञान-विज्ञान अनुभूति में आते-आते संवेदनशील अहिंसक बन जाता है। इसी से भारतीय आस्था बनती है। आस्था के विज्ञान से ही भारतीय पर्यावरण संरक्षण अभी तक होता रहा है। जब से हमारे विज्ञान की नई शोध से संवेदना और आस्था गायब हुई तभी से हमारी जलवायु परिवर्तन का संकट और उससे जन्मी हिमालय की आपदाओं का चक्र भी बढ़ गया है। गंगा का प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी द्वारा आस्था, गंगत्व, ‘‘बॉयोफॉज’’ भी नष्ट हो गया है। कोविड़-19 जैसी नई बीमारी हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमताओं को मारने में सफल होने लगी है। पहले गंगाजल की विलक्षण प्रदूषण नाशिनी शक्ति भारत के लोगों में आरोग्य रक्षण एवं प्रतिरोधक शक्ति निर्माण करती थी।
क्रमबद्ध ‘सत्य’ की खोज ही विज्ञान होता है। आवश्यकता आविष्कार की जननी तब बनती है, जब खोज करने वाले की संवेदनाएँ अपने परिवेश और मानवता के सम्बंधों को सम्मान देकर उनमें समृद्धि लाने हेतु कोई खोज करती है।
समृद्धि केवल मानव हेतु होगी तो प्रकृति और मानवीय रिश्तों में दूरी पैदा करेगी। ऐसी स्थिति में खोज कर्त्ता एटम बम बनायेगा और तीसरा विश्वयुद्ध करायेगा। जब तक मानवीय संवेदना कायम रहती है, तभी वह शोध करके आरोग्य रक्षक आयुर्वेद का चरक बनेगा; जो जीवन को प्राकृतिक औषधियों से स्वस्थ रहने और ज्यादा जीने और प्राकृतिक संरक्षण के काम करके साझे भविष्य को भी समृद्ध करेगा। वह मानव के स्वास्थ्य में बिगाड़ नहीं करेगा। दोनों को स्वस्थ रखने की कामना और सद्भावना अपने शोध द्वारा करेगा।
हमारी उक्त समग्र दृष्टि थी। इसी दृष्टि के कारण, हम उतना ही बोलते थे-जितना हम अनुभव करते थे। इसलिए हमारे सभी वेद , उपनिषद् ऐसा संदेश देते है, जैसे कोई अनुभवी व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति कर रहा हो। यह अभिव्यक्ति जरूर उस समय के चन्द व्यक्तियों की रही होगी, ऋषि-महर्षि का अनुभव रहा होगा। लेकिन अनुभव से शास्त्र बनते, गढ़ते जाते थे। उनकी अगली पीढ़ी उन शास्त्रों का ही पालन करती थी। ये शास्त्र आज के विज्ञान से अलग नहीं थे। वही समय सिद्ध गहरे अनुभव थे।
आज के शास्त्र केवल कल्पना-गणना, क्रिया-प्रतिक्रिया से गढ़े जा रहे है। इनमें अनुभव तथा अनुभूति नहीं है। जिसके मन में जो कल्पना बनी, यह बोलने, करने लगता है। इसलिए जो कल जंगल काटकर खेती, को बढ़ावा देना क्रांतिकारी मान रहे थे, राजस्थान की बावड़ी तथा तालाब के जल को नारू रोग फैलाने वाला मानकर उन्हें पाटने की कोशिश में करोड़ों रूपये खर्च किया करते थे, आज वही संयुक्त राष्ट्र संघ संस्था इसे बैस्ट प्रैक्टिस (सर्वोत्तम अभ्यास कर्म) कह रही है। यदि बावड़ी-तालाब को पाटने से पहले केवल एक या दो शोध के बजाय वहाँ का इतिहास-भूगोल के साथ समाज की जरूरत, उसकी क्षमता को आंकने का लम्बा अनुभव होता तो, इस प्रकार की तथा-कथित वैज्ञानिक बिगाड़ की घटना नही घटती। यह अबकी प्रचालित चालू प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी जलवायु परिवर्तन जैसे संकट पैदा करती है। समाधान ढूँढने में असफल है।
बराबरी की प्राकृतिक कामना व सद्भावना का जन्म तो आत्मीय ऊर्जा की संवेदनाओं से होता है, लेकिन एटम बम का जन्म पावर (शक्ति) करती है। शक्ति की इच्छा हेतु शक्ति प्राप्त करने की ही खोज होती है और उसका उपयोग भी हम शक्ति पाने की चाह में ही करते हैं। शक्ति से युद्ध होता है। ऊर्जा से दुनिया में पुनर्जनन प्रक्रिया द्वारा शक्तिमय-शांतिमय समृद्धि बनती है।
भारत की प्रकृति समझ में ऊर्जा थी। वहीँ भारतीय ज्ञान दुनिया को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ कहकर एक करने वाली ऊर्जा से ओतप्रोत था। तभी तो हमारी ऊर्जा से हम जैसलमेर जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्र को पुराने जमाने में ही आज के वाशिंगटन डी.सी. से बड़ा शुभ व्यापार केन्द्र बना सके थे। लम्बे समय तक हम इस रास्ते काबुल, कंधार, कजाकिस्तान, म्यांमार आदि देशों में ऊंटों के द्वारा व्यापार करते रहे। वह ऊर्जा का प्रतीक था। ऊर्जा और शक्ति में आजकल हमने विभेद करना छोड़ दिया। शक्ति को ही ऊर्जा कहने लगे। शक्ति निजी लाभ के रास्ते पर चलती है। ऊर्जा शुभ के साथ रास्ता बनाती है। इसलिए शक्ति विनाश और ऊर्जा शुभ सुरक्षा और समृद्धि प्रदान करती है।
ऊर्जा प्राकृतिक समृद्धि का सातत्य कायम रखते हुए मानवता को उत्पादक सृजनशील बनाकर रखती है, लेकिन शक्ति तो नष्ट करने का आदेश भी देती है। जैसे कि आज दुनिया के सभी हवाई अड्डों पर हर समय घोषणा होती है कि लावारिस सामान को नष्ट कर दिया जायेगा, इसलिए कुछ भी लावारिस ना छोड़ें। लावारिस की परवरिश करने का भाव जब समाज से नष्ट होता है, तो समाज में स्थायी क्रमबद्ध विकास (सनातन विकास) नहीं होता। सदैव नित्य आवर्तन निर्माण न्यूतन नहीं रहता, नष्ट होता रहता है। सनातन तो कभी नष्ट नहीं होता, बल्कि सदैव नया आवर्तन करता रहता है।
संस्कृत सूत्रों की भाषा है। इसलिए इसमें भगवान को बहुत ही सरलता से परिभाषित किया था। वैदिक काल तक भगवान की परिभाषा भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, आ-अग्नि तथा न-नीर था। वैदिक काल के बाद व्यक्ति ही भगवान बनने लगा। व्यक्ति को अपनी शक्ति कायम रखने हेतु शास्त्रों का निर्माण करना पड़ा; उसी में व्यक्ति पूजा आरम्भ कराने वाले शास्त्र सृजन किये। शास्त्र और शक्ति सृजन एक जैसे ही होते हैं। जीवन शास्त्र तो जीवन को समानता की तरफ बढ़ाता है। हाथी और चींटी दोनों को समान हक देने वाला तो प्राकृतिक कानून है।
मानव व प्राकृतिक हक की समानता ही सत्य है, लेकिन मानवीय बुद्धि में जब अतिक्रमण करने वाली प्रबंधकीय शिक्षा का प्रभाव बढ़ता है, वही प्रकृति के हक पर कब्जा करता है। तब प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी का कौशल बढ़ता है। उसी से वह प्रकृति का शोषण शुरू कर देता है। यही धरती के अंदर से खनन करता है। नदियों की आजादी नष्ट करके उन्हीं का शोषण शुरू कर देता है। शोषण से प्रदूषण शुरू हो जाता है। यह सब जब मानवीय व्यवहार और संस्कार में प्रवेश होता है, तब केवल प्राकृतिक संसाधन धरती, नदी, जल-जंगल, जीवन सभी कुछ शोषण का शिकार होने लगता है। शोषण संस्कृति नहीं, सभ्यता बनकर काम करता है। मानव ही प्रकृति के ऊपर अतिक्रमण करने के तरीके खोजता है। जैसे आजकल नदी सौन्दर्यीकरण के नाम पर नदी का अतिक्रमण हो रहा है।
भू-जल भण्ड़ारों को उपयोगी बनाने के नाम पर भू-जल भण्ड़ारों पर प्रदूषण और अतिक्रमण हो रहा है। आज सुंदर शब्दों का ‘सृजन’ ही अतिक्रमण करने के काम आ रहा है। यह मानवीय शक्ति, प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी द्वारा ही बढ़ा कर किया जा रहा है। ऊर्जावान लोग अतिक्रमण नहीं करते, वे सदैव नित्य-नूतन आवर्तन निर्माण करते हैं। नित्य नूतन निर्माण में हिंसा नहीं होती है। यह सदैव शक्तिमय अहिंसक सृजन प्रक्रिया है।
आज सृजन प्रक्रिया को रोककर पूरे ब्रह्माण्ड में प्रदूषण बढ़ जाता है। केवल प्राकृतिक प्रदूषण बढ़ा है, ऐसा ही नहीं है; हमारी शिक्षा ने मानवीय सभ्यता और सांस्कृतिक प्रदूषण को भी बुरी तरह बढ़ा दिया है। अतिक्रमण, शोषण, प्रदूषण इन तीनों को हमारी आधुनिक शिक्षा ने ही बढ़ाया है। जब विखंडित शिक्षण होता है तभी आर्थिक लोभ-लालच बढ़कर हिंसक रूप धारण करता है। अतिक्रमण, प्रदूषण, शोषण हमारी हिंसक शिक्षा की ही देन है।
अतिक्रमण तो हमारी प्रबंधकीय शिक्षा की प्रमुख देन है। सभी प्रबंधकों को बाकायदा वही पढ़ाया जाता है। उनमें स्वयं के बुद्धि कौशल से सभी को प्रकृति और मानवता से संबंधित संसाधनों व नियंत्रण करने वाली क्षमता विकसित की जाती है। बुद्धि इसी तरह से काम करती है। वही विकसित कहलाती है जो मानवीय संसाधन, प्रबंधक, मानवीय शक्ति को बढ़ा कर उस पर नियंत्रण करती है। प्राकृतिक संसाधन प्रबंधक, प्राकृतिक संसाधनों पर अतिक्रमण कौशल को सभी को जोड़कर अतिक्रमण प्रक्रिया बना देते है। यही प्रक्रिया हिंसक शक्ति से शुरू होती है। इसलिए इसमें हिंसा और लूट-खसोट साथ-साथ ही रहती है।
नदियों की आजादी और उनके उपयोग के हक की चिंता किसी को नहीं रहती है। बस शक्तिशाली ही इसका शोषण करता है। सदुपयोग व पोषण मिट जाता है, उसकी जगह पर अतिशोषण का भाव आ जाता है। शोषण का यह भाव हमारे अंदर प्रौद्योगिकी एवं अभियांत्रिकी द्वारा निर्मित मशीनें पैदा करती हैं। अतः कहा जा सकता है, गणनाओं द्वारा होने वाली शोध, हमारी सामुदायिक जन-जरूरत से दूर, भावना-संवेदना रहित लाभ, वह भी सबका नहीं, एकमात्र कर्त्ता के स्वार्थ पूर्ति करती है। गणनाएं हिंसक शक्ति सृजन का विज्ञान निर्माण करती है। इस विज्ञान में प्रकृति और मानवता के साझा हित का विचार नहीं होता। इसलिए आज भौतिक रसायन सभी तरह का विज्ञान युद्ध अस्त्रों की तरफ जा रहा है। कभी-कभी संचार और व्यापार के लिए रेल, मोबाईल, चिकित्सा आदि सर्व हित के कुछ काम निकल आते हैं। ये भी किसी के लिए केवल लाभ का व्यापार बनकर उभरते हैं। धर्मार्थ-काममोक्ष, आयुर्वेद आरोग्य रक्षणम् अब नहीं है। चिकित्सा भी लोभ-लालच पूर्ति का व्यापार बन गयी है।
भागीरथी, गंगा जी सभी की खेती, जीवन, जीविका और जमीर के साथ आस्था व भक्ति भाव की मिसाल बनाने का काम आज प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी और विज्ञान नहीं कर रहा है। यह काम तो ऊर्जा सृजन से होता है। गंगा जल की विलक्षण प्रदूषण नाशिनी ऊर्जा गंगाजल में पैदा करके गंगाजल को ब्रहमसत्व बनाती थी। इसी ब्रहमसत्व ने गंगाजल को गंगामृत बनाया था। यह गंगाजल का विज्ञान समझने और समझाने वाले ऋषि आज बहुत कम हैं । ऋषि ही संवेदनाओं व आत्मशोधन से सत्य खोजता था। विज्ञान और वैज्ञानिक प्रक्रिया मनुष्य के अंदर ऋषित्व पैदा करके सत्य खोजती थी। वही अध्यात्मिक विज्ञान कहलाता था। ऐसे वैज्ञानिक अपनी खोज को साकार कराने हेतु अपना शरीर का त्याग भी कर देते है जैसे प्रो. जी. डी. अग्रवाल। उन्हें हम ‘ऋषि सानंद’ के नाम से जानने लगे हैं ।आध्यात्मिक विज्ञान, व्यवहार-संस्कार से जीवन की जरूरत पूरी करने वाला ही अहिंसक विकास के रास्ते पर मानवता और प्राकृतिक को बराबरी से आगे बढ़ाकर ‘अक्षय’ ‘सनातन विकास’ के रास्ते पर चलाता है। भारतीय इस पुनर्जनन प्रक्रिया को ही विकास कहते थे। इस सत्य को केवल संवेदनशील वैज्ञानिक ही जानते व समझते है। वही इस विज्ञान के विषय में बिना डरे बोलते हैं ।
संवेदनशील विज्ञान ही हमें आज भी आगे बढ़ा सकता है। इसी रास्ते हम पूरी दुनिया को कुछ नया सिखा सकते हैं । यही आधुनिक दुनिया के प्राकृतिक संकट का आधुनिक संकट जलवायु परिवर्तन का अनुकूलन व उन्मूलन द्वारा समाधान करने वाला विज्ञान, अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी आज भी साकार सिद्ध हो सकते हैं ।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।