– साक्षी पटवाल
झांसी: जहां लोग इस महामारी के समय घर से बाहर निकल ने में कतरा रहे हैं, वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अपने बारे में ना सोचते हुए दूसरों की मदद करने आगे आ रहे हैं। उन्हीं में से हैं 45 वर्षीय संजय सिंह। संजय के परिवार में किसी को उनका बाहर जाना पसंद नहीं था क्योंकि इससे उनके जीवन को खतरा था। इस पर संजय ने कहा कि “सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते और अपनी सुरक्षा ना देखते हुए, संकट में आए लोगों की मदद करना मेरा कर्तव्य है”। उनके परिवार में उनकी पत्नी और एक बेटी है। संजय ने बताया कि उनके पास कोई बड़ा घर भी नहीं है, जिस कारण वह अपने परिवार से दूरी बना सकें।परन्तु कहावत हैं ना कि जो दूसरों की मदद करते हैं , भगवान खुद उनकी मदद करते हैं !
कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए हुए लॉक डाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की बुंदेलखंड में घर वापसी और फिर उनकी देखभाल सरकार के लिए भी एक बहुत बड़ी चुनौती थी। ऐसे में संजय की संस्था ने सरकार की मदद से कुछ राशन की दुकानों को खुलवाया और साथ ही सरकार ने संस्था वालों को राशन उपलब्ध कराएं।
संजय ‘ परमार्थ समाज सेवा संस्था’ जो झांसी में स्थित है और बुंदेलखंड प्रान्त के 10 जिलों में कार्य करती है , वहां के वह फाउंडर सेक्रेटरी हैं। सरकार ने संजय को ग्रीन पास की उपलब्धता कराई जिससे वह लोगों के बीच जाकर खाना बाँट सके। परमार्थ संस्था के इस काम में सहयोग करने के लिए हिंदुस्तान युनिलीवर और दिल्ली, मुंबई, गुजरात, कोलकाता इत्यादि शहरों से लोगों ने उन्हें आर्थिक सहायता दी। संजय बताते हैं कि “रोज कहीं ना कहीं से लोग मदद करने पहुंच रहे थे, संख्या बताना मुश्किल है”।
लॉकडाउन के समय कई लोगों ने संस्था के दफ्तर आकर या फिर सामाजिक मीडिया के जरिए संस्था वालों से संपर्क कर अपना योगदान दिया था। इसी के साथ कई लोग तो उनके बैंक खातों में पैसे भेज देते या फिर कुछ लोग ग्रीन पास के जरिए दफ्तर आकर कार्यभार संभाल लेते थे।
इस वजह से संजय सिंह की संस्था ने मोटरसाइकिल और गाड़ियों में खाना ले जाकर तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात और मुंबई जैसे शहरों से झांसी और बुंदेलखंड के लौट रहे प्रवासी मज़दूरों को खाना उपलब्ध कराया । इसी तरह उन्होंने 20 हजार संकटग्रस्त लोगों के लिए खाना और पानी की व्यवस्था की अपने स्वयंसेवकों और अन्य मददगार लोगों के सहयोग से।
लॉकडाउन के समय में आई परेशानियों की बात करते हुए संजय ने बताया कि कितनी ही बार उनका राशन और खाना कम पड़ जाता था। उन्होंने कहा कि ” एक बार उनकी संस्था के लोग, लोगों में खाना बांट रहे थे। 1000 लोगों के खाने की व्यवस्था थी लेकिन 2500 लोगों के आ जाने की वजह से खाना कम पड़ गया और सारे लोगों को खाना नहीं खिला पाए, जिस वजह से उनकी संस्था वालों को बहुत बुरा लगा और वह सभी रो पड़े”।
जो संजय कर रहे थे वह आसान काम नहीं था। एक तरफ महामारी का डर और दूसरी तरफ लॉक डाउन की वजह से किल्लत। परन्तु कहते हैं ना कि जहां चाह वहाँ राह। संजय और उनके सहयोगियों का जोश देखते ही बनता था। लेकिन जोश के साथ वे होश से भी काम करते रहे । संजय के ऊपर तो संस्था के सचिव होने के कारण सारी जिम्मेदारी थी। कहीं उनके लोग ही संक्रमित ना हो जाएँ यह एक बड़ी चुनौती थी। वह कोरोना महामारी पर दिए गए सरकार द्वारा दिशा-निर्देश का पूरा पालन करते। साथ ही लॉकडाउन के समय में वह अपने सभी कार्यकर्ताओं को मास्क और दस्ताने पहले रहने को भी कहते। संजय अपने कार्यकर्ताओं को लोगों से 2 गज की दूरी बनाने को भी कहते। परंतु फिर भी संक्रमित लोगों के सेंटर में खाना बांटने से उनके कुछ स्वयंसेवकों को क्वारंटाइन में रखा गया था।
पर संजय ने हिम्मत नहीं हारी। वे सदा प्रयासरत रहे और अपनी हिम्मत के बल पर अपने समाज सेवा के पथ को प्रशस्त करते रहे। उन्होंने प्रवासी मजदूरों के लिए तीन गांव (पंचमपुरा, कौड़िया और मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में जतारा ब्लॉक के जगत नगर) में दो महीने के लिए कम्युनिटी किचन खोला। जिसमें उनके स्वयंसेवकों और काम करने वाले कर्मचारी भोजन बनाने से पहले अपने हाथों को सेनीटाइज करते, फिर मास्क और दस्ताने पहनकर ही भोजन बनाते।
यह किचन दिन में दो बार लोगों को साथ बिठाकर लेकिन 2 गज की दूरी पर बिठाकर ही खाना खिलाती थी। साथ ही सरकार द्वारा दिए गए कोरोना के दिशा-निर्देशक का भी पूरा पालन करती। परमार्थ संस्था के स्वयंसेवकों ने लखनऊ, कानपुर, बुंदेलखंड के नगर में जालौन, हमीरपुर, ललितपुर और इसी के साथ मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जैसे अलग-अलग शहरों में ट्रक के द्वारा 8 हजार लोगों को राशन पहुंचाया था और कुछ लोगों के लिए उन्होंने सड़क के किनारे बने एक ढाबे को किराए पर लेकर वहां से भी राशन बांट करते थे।
संजय सिंह ने अपने बारे में बताते हुए कहा कि “मेरा सपना था कि मैं ऐसा इंस्टिट्यूशन बनाऊं जिसमें में लोगों की मदद कर सकूं और संकटग्रस्त लोगों के काम आ सकूं। मेरा दुर्भाग्य ऐसा था कि मैं इन चीजों में रहा हूं और इन चीजों को काफी नजदीक से जिया हूं”। संजय सिंह 1995 में ही अपने विद्यार्थी जीवन के बाद से ही अपने सपनों के पीछे चल दिए थे। विद्यार्थी जीवन में होने की वजह से उन्हें काफी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पढ़ा था। उन्होंने बताया कि कितने ही दिन भरपेट खाना भी नहीं खाते थे और कभी कभार तो उन्हें खाना ही नहीं मिलता था। काफी संघर्षों के बाद उन्होंने झांसी में परमार्थ नाम की संस्था का निर्माण किया। उनकी यह संस्था आज बुंदेलखंड में समाज सेवा के बल पर अपना परचम लहरा रही है।