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– साक्षी पटवाल
फरीदाबाद : जहां इस लॉकडाउन में लोग अपना जीवन आराम से बिता रहे थे वहीं कुछ लोग ऐसे भी है जिनके लिए यह लॉकडाउन का एक एक पल एक विषम परिस्थिति खड़ा कर देता था। यही हाल फरीदाबाद की रहने वाली 30 वर्षीया काम वाली बाई गीता का था। पहले पांच घरों में काम करके वह अपना परिवार चला लेती थी। दो घरों से उसे 5000-5000 रुपए मिलते थे और बाकी के तीन घरों से 2000-2000 रुपए जिससे उसके परिवार का आसानी से गुजारा चल जाता था। अकेले उसी पर कमाने का बोझ था क्योंकि पति तो शराबी होने की वजह से वह पूरा दिन पीता ही रहता था। लॉकडाउन हो जाने के कारण उसे घर चलाने में और अपने तीन बच्चों को पालने में काफी दिक्कत आने लगी क्योंकि लॉकडाउन हो जाने के बाद पहले तो उसे दो घरों से निकाल दिया गया यह कहकर की “पता नहीं तू कहां से आती होगी, तो कहीं तेरी वजह से हमारी भी तबीयत खराब ना हो जाए”। जिनमें से एक घर ने तो आटा और चावल देकर भगा दिया साथ ही कहा कि “तू अभी इसी से काम चला ले और अब यहां वापस मत आ जाइयों”। दूसरे घर वालों ने सैलरी हर महीने देने का वादा करके उसे वहां से भगा दिया और उसे उसकी तनख्वाह दी भी नहीं। इसी तरह बाकी के तीन घरों से भी उसे यह कह कर निकाल दिया गया कि अब आने कि आवश्यकता नहीं।
लॉक डाउन ने तो उसे मानो सड़क पर ला कर पटक दिया था।
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यह एक बेहद विकट परिस्थिति थी। घर में खाने के लाले पड़ गए थे परन्तु अभी तो एक और परेशानी आने वाली थी जिसका उसे कोई अंदेशा ही नहीं था। पहले तो पति को शराब ना मिल पाने के कारण वह रोज घर में लड़ाई करने लगा। फिर एक दिन गीता के पति की अचानक तबीयत खराब होने लगी। गीता उसे डॉक्टर के पास ले गई तो डॉक्टर ने कहा कि शराब ना मिल पाने के कारण इसकी तबीयत ज्यादा खराब हो जाएगी।
पैसे के अभाव में वह तो अपने झोपड़पट्टी के किराया के 1500 भी नहीं भर पा रही थी और उसका मकान मालिक उसे घर से निकालने की धमकी देने लगा था। गीता के लाख मनाने के बाद मकान मालिक ने उसे कुछ दिन की मोहलत दे कर छोड़ दिया।
अपने घर की ऐसी परेशानियों को देखते हुए गीता का एक बच्चा जो बीमार था उसने सड़कों से कबाड़ा उठाना शुरू कर दिया, जिससे वह इसे बेचकर अपने पिता का इलाज करा सके। परंतु कबाड़ी की दुकान बंद होने की वजह से कबाड़े का सारा ढेर गीता के घर पर ही पड़ा हुआ है।
गीता ने बताया कि उसके पास उसकी थोड़ी जमा पूंजी पड़ी हुई थी लेकिन जब भी वह बैंक से अपने पैसे निकालने जाती थी तो बैंक वाले उसे ऐसे देखते थे जैसे पता नहीं कहां से आ गई हो, साथ ही उसे पैसे भी नहीं निकालने देते थे। राशन कार्ड ना होने के कारण और गांव के जनधन खाते में सरकार द्वारा पैसे भेजने के बावजूद भी वह सरकार द्वारा दी गई सुविधाओं का लाभ नहीं उठा सकी। लॉक डाउन के दरम्यान अप्रैल, मई और जून में सरकार द्वारा जारी किए गए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज के तहत राशि भी मात्र 500 रुपए प्रति माह थी और उसमे भी कटौती कर उसके बैंक खाते में सिर्फ 200 रुपए ही आ रहे थे। इतने में तो उसके 5 लोगों के परिवार का गुजारा तो होना ही नहीं थ। फिर भी जब उसने बैंक वालों से बकाया राशि के बारे में पूछा तो उसके पूछने के पर बैंक कर्मी ने उसे बताया कि बाकी की राशि तो सरकार द्वारा जारी किए गए सर्विस चार्ज में काट लिए गए थे ।
पैसे ना मिल पाने के कारण कितने ही दिन गीता का पूरा परिवार भूखा रहा जिस वजह से उसके बच्चे बीमार पड़ने लगे।
यह गीता के लिए एक कठिन परीक्षा का ही दौर तो था। साथ ही गीता ने यह भी बताया कि उसके घर के पास ही दो घरों में करोना संक्रमित मिले लेकिन फिर भी उसके यहां कोई भी दिन सैनिटाइजर छिड़काव वाले नहीं आए और उन घरों को बंद भी नहीं किया गया था। वह बिलकुल बेबस हो गयी थी। आगे उसे सिर्फ अँधेरा नज़र आने लगा था। परन्तु कहा जाता है कि सारे दिन एक सामान नहीं होते। भगवान के घर देर तो है पर अंधेर नहीं। गीता को इस बात का आभास तब हुआ जब एक दिन उसे एक बूढ़ी महिला ने अपने घर बुलाया। वह बूढ़ी महिला अकेले ही रहती थी जिस कारण वह घर का काम नहीं कर पाती थी। इसलिए उसने गीता को 2000 तनखा पर रख दिया। लॉकडाउन होने की वजह से सड़कों पर पुलिस की पेट्रोलिंग होने की वजह से वह काम के लिए बच-बचाके जाती थी।
लॉकडाउन खुल जाने के बाद से अब वह फिर से 4000 रुपए दो घरों से कमा ले रही है। धीरे धीरे उसकी ज़िन्दगी फिर से पटरी पर आने लगी है। साथ ही अब कोरोना के डर से उसे सफाई की भी आदत पड़ गयी है। गीता जिन घरों में काम करती है वह उसे घर में प्रवेश करने से पहले उसके हाथों को सेनीटाइज कराते हैं तथा वह अपनी तरफ से भी पूरे समय मास्क लगा कर रखती है और साथ ही 2 गज की दूरी भी बना कर भी रखती है। इतना झेलने के बाद अब वह कोरोना जैसी किसी और मुसीबत को गले नहीं लगाना चाहती । अंत में गीता ने यही कहा कि “भले ही उसे इतनी परेशानियां आई हो लेकिन उसने कभी हिम्मत नहीं हारी”।
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