संस्मरण
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
म्यांमार: यहाँ भी जल का निजीकरण कम्पनियों ने करवा लिया है
हिन्दुकुश राष्ट्रों की सूची में म्यांमार एक समृद्ध राष्ट्र था। इसका ज्ञान, संस्कार और व्यवहार भी प्रकृति प्रिय था। लेकिन यहाँ की सरकारों व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साँठ-गाँठ से अब यह राष्ट्र लुट-पिटकर गरीबतम की सूची में आ गया। यहाँ के जल का कुप्रबंधन भी एक मिसाल बन गया है। यहाँ की नदियाँ बहुत प्रदूषित और शोषित होकर मर गई है। समाज और राज दोनों ही साझे भविष्य को बेहतर बनाने के लिए चिंतनशील दिखाई नहीं देते। इस राष्ट्र की समृद्धि के पुराने सैकड़ों आधार के जल-जंगल-जमीन व खनिज सब कुछ बहुत ही समृद्ध था। उनके साथ जिस बेरहमी से व्यापार किया गया, उसने इस देश को लाचार, बेकार और बीमार बना दिया।
म्यांमार के लोग देखनें में बहुत सीधे-सरल और सच्चे होते है, लेकिन अन्याय, अत्याचार का प्रतिकार करने की तीव्रता और तत्परता इनमें दिखाई नहीं देती। इसीलिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और सरकारों की साँठ-गाँठ इन्हें लूटने में सफल रही है। यहाँ भारत जैसे किसान आंदोलन, स्वतंत्रता आंदोलन और सम्पूर्ण क्रांति जैसे सत्याग्रही व अहिंसक आंदोलन इस देश में देखनें को नहीं मिले है। उनके बारे में सुनने व पढ़ने को नहीं मिला, इसलिए बेहतर भविष्य बनाने के बीज भी कम ही नजर आये। हाँ, इस देश का भूगोल, इतिहास, संस्कृति और सामाजिक ढाँचा तो कमजोर नहीं कहा जा सकता लेकिन बिगाड़ को रोककर, भविष्य को बेहतर बनाने की जिगीषा, तीव्रता और तत्परा में कमी दिखती है।
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म्यांमार अथवा ब्रह्मदेश दक्षिण एशिया का एक देश है। इसके उत्तर में चीन, पश्चिम में भारत, बांग्लादेश एवं हिन्द महासागर तथा दक्षिण एवं पूर्व में थाईलैंड एवं लाओस देश स्थित है। इसकी राजधानी नाएप्यीडॉ है। इस देश का क्षेत्रफल 676578 वर्ग किमी है। इसकी उत्तर-पूर्व सीमाएं भारत के मिजोरम, नागालैंड़, मणिपुर, अरूणाचल प्रदेश और बांग्लादेश के चिटगॉव प्रांत को मिलती है। म्यांमार की तट रेखा देश की कुल सीमा का एक तिहाई है। बंगाल की खाड़ी और अड़मान सागर देश के दक्षिण-पश्चिम और दक्षिण में क्रमशः पड़ते है। उत्तर में हेंगडुआन शान पर्वत चीन के साथ सीमा बनाते है।
म्यांमार में तीन पर्वत श्रृंखलाएं है- रखिने योमा, बागो योमा और शान पठार। यह श्रृंखला म्यांमार को तीन नदी तंत्र -ऐयारवाडी, सालवीन और सीतांग में बांटती है। ऐयारवाडी इस देश की सबसे लंबी नदी है। जिसकी लम्बाई 2170 किलोमीटर है। मरतबन की खाड़ी में गिरने से पहले यह नदी म्यांमार के सबसे उपजाऊ भूमि से होकर गुजरती है। यहाँ की अधिकतर जनसंख्या इसी नदी के किनारे निवास करती है। जो कि रखिन योमा और शान पठार के बीच स्थित है। यहाँ की जलवायु उष्णकटिबंधीय है। सालाना यहाँ के तटीय क्षेत्रों में 5000 मिलीमीटर, डेल्टा भाग में लगभग 2500 मिली मीटर और मध्य म्यान्मार के शुष्क क्षेत्रों में 1000 मिलीमीटर वर्षा होती है।
इस देश का इतिहास बहुत पुराना और जटिल है। म्यांमार का क्रमबद्ध इतिहास सन् 1044 ई. में मध्य बर्मा के ’मियन वंश’ के अनावराहता के शासनकाल से प्रारंभ होता है, जो मार्को पोलो के यात्रा संस्मरण में भी उल्लिखित है। सन् 1754 ई. में अलोंगपाया (अलोंपरा) ने शान एवं मॉन साम्राज्यों को जीतकर ’बर्मी वंश’ की स्थापना की जो 19वीं शताब्दी तक रहा।
1937 से पहले ब्रिटिश ने बर्मा को भारत का राज्य घोषित किया था। आंग सन जो यहाँ के राष्ट्रपिता कहलाते है, उनकी सहयोगी यू नू की अगुआई में 4 जनवरी, 1948 में बर्मा को ब्रिटिश राज से आजादी मिली। 2 मार्च, 1962 को जनरल ने विन के नेतृत्व में सेना ने तख्ता-पलट करते हुए सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया और यह कब्ज़ा तब से आजतक चला आ रहा है। एक आंदोलन के बाद बर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया।
सबसे बड़ा चावल-निर्यातक होने के साथ शाल (टीक) सहित कई तरह की लकड़ियों का भी बड़ा उत्पादक था। वहाँ के खदानों से टिन, चांदी, टंगस्टन, सीसा, तेल आदि प्रचुर मात्रा में निकाले जाते है। इसके बाद 30 मार्च 2011 को नया संविधान निर्मित हुआ।
यहाँ ऊर्जा उद्योग से प्रदूषण में ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2010 का आंकड़ा बताता है कि, 70 फीसदी जंगल में से 48 फीसदी भाग ही बचा है। बाकी पेड़ काट दिए गए है। समुद्र स्तर भी बढ़ रहा है, इस स्थिति में खाद्य पदार्थों की एक नई चुनौती आ गई है।
म्यांमार के लोग अपने हालात बदलने के लिए चिंतित तो है, पर अब उन्हें चिंता मुक्त करके, सर्जन शक्ति प्रदान करने वाला प्रेरक नेतृत्व नजर नहीं आया। यह देश की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के चंगुल में फँसता जा रहा है। यहाँ भी जल का निजीकरण कम्पनियों ने करवा लिया है। कम्पनियाँ अपने लाभ के लिए सभी कुछ करने को तैयार रहती है। भारत की तरह उस देश में जल के निजीकरण के विरूद्ध आवाजें नहीं है। इस देश की सरकारों ने कर्ज लेकर ही पाने का अपने समाज से भी संस्कार पैदा कर दिया है। इसलिए कर्ज देने वालों का वर्चस्व यहाँ बहुत बड़ा हुआ है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।