– रमेश चंद शर्मा*
जल संरक्षण-संवर्द्धन हमारी आवश्यकता है
प्रकृति एवं मानव सभ्यता के विकास में जल की अहम् भूमिका है। प्रकृति में जल का अपार भंडार होते हुए भी मानव उपयोग के लिए जल सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी पर उपलब्ध जल का केवल 2.5% हिस्सा ही सीधे उपयोग में लाने लायक है। जबकि इसका भी दो-तिहाई हिस्सा बर्फ के रूप में सोया हुआ है। जल के बिना जीव संसार की कल्पना ही संभव नहीं की जा सकती है। जल है तो जीवन है। जल से ही सब प्रकार के प्राणी, जीव, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, जीव-जंतु जीवन पाते है। जल का अपना जीवन, संस्कार, इतिहास है।
दुनिया में जल विभिन्न रूपों में विद्यमान है। कहीं नमकीन, खारा जल समुद्र, सागर में लहलहा रहा है। कहीं जल हिमखंड में सोया हुआ है। कहीं जल तालाब, जोहड़, पोखर, झील में शांत, गंभीर बैठा है। कहीं जल कुएं, बावड़ी, धरती के पेट में छुपा हुआ है। कहीं जल झरने, नदी, नाले में गतिमान होकर, उछल कूद कर, छलांगें लगा कर खेलता हुआ गति ही जीवन है का संदेश दे रहा है।
जल समृद्धि, सुख, सम्मान, संतोष का प्रतीक रहा है। जल से खेती, पशुपालन, वनस्पति, बाग-बगीचे, प्लेज, बागवानी, रोजगार, स्वास्थ्य, यातायात, प्रशिक्षण, सुरक्षा व्यवस्था होती थी। हमारे तीर्थ, तपस्या स्थल, यात्रा, उत्सव, मेले, आश्रम, शिक्षा एवंं स्वास्थ्य केंद्र, खेलकूद, दौड़-भाग, प्रदर्शनी, अखाड़े, तैराक संघ सभी का निर्माण- विकास जल के आसपास हुआ। जल के आसपास ही जीवन का आनंद, सुख, विस्तार, फैलाव रहा है। जल केन्द्र बिन्दु रहा है।
जल का भारतीय संस्कृति, जीवन, साहित्य में विशेष स्थान रहा है। हमारा समाज, देश पानीदार रहा है। पानी की समाज की एक अद्भुत अपनी समझ रही है। तालाब, जोहड़, कुंड, कुएं, बावड़ी, नौले, नाले, धौरे, झरनें, नदियां जैसे जलस्रोत सहित जल की समझ, पकड़ ने भारत को हरा-भरा, खुशहाल बनाकर रखा। विविधता से भरा हमारा देश, समाज प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी भूमिका में रहा। प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक स्थिति, मौसम, जलवायु, ऋतुएं, रहन-सहन, खान-पान, सोच-समझ, भेष-भूषा, बोलचाल, बोलियां, भाषा, काम-धंधे, कृषि, पशुपालन सब विविधता से भरपूर रहा। हमारी बस्तियां जल के आसपास बनती गई, विशेषकर नदियों के किनारे। मानव जीवन क्रम जल के आसपास विकसित होते हुए, आगे बढ़ा। जल के परिणामस्वरूप ही वनस्पति, पशु-पक्षी, कीड़े- मकोड़े, जीव-जंतु, जंगल-पहाड़, नदी-नालों से भरा प्रकृति का निराला स्वरुप साफ, खुशहाल नजर आता है।
जल का महत्व इससे और स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज ने नदियों को मां का दर्जा दिया है। गंगा मैया, यमुना मैया, नर्मदा मैया, कावेरी मैया के नाम से नदियों को पुकारा जाता रहा है। नदी को लोकमाता का सम्मान दिया गया।जल के बिना जीवन संभव नहीं है। प्यास हो, भोजन हो, खेलना हो, तैरना हो, आना जाना हो, मृत्यु हो, तर्पण हो, पूजा पाठ हो, खेत हो, बागवानी हो, उद्योग हो, निर्माण कार्य हो सबमें जल चाहिए। अगर संकल्प या शपथ ग्रहण हो तब भी विश्वास जाहिर करने के लिए जल का उपयोग किया जाता। जल देवता – आपो देवता को परमात्मा की शक्ति, सामर्थ्य माना गया। धरती, पाताल, आकाश तीनों लोकों को जल पवित्र, निर्मल, शुद्ध, जीवंत बनाता है। प्रकृति, सृष्टि की रचना सृजनशीलता पंचतत्वों से हुई है। जल की इसमें सबसे अहम् भूमिका है। मानव भी पंचतत्वों से ही मिलकर बना है। सृष्टि की तरह मानव में भी दो-तिहाई भाग जल का है।
वृहद संहिता में जल के बारे में विस्तार से भारतीय ज्ञान, विज्ञान, परम्परा का विवरण मिलता है। जल के महत्व को समझाते, दर्शाते हुए भगवान ने गीता के श्लोक में स्पष्ट किया है कि –
पत्रं पुष्पं फलं तोयं तो ये भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।।
(गीता- 9वां अध्याय, 26वां श्लोक)
अर्पण करे जो फूल फल जल पत्र मुझको भक्ति से।
लेता प्रयत-चित भक्त की वह भेंट मैं अनुरक्ति से।।
यही श्लोक महाभारत में भीष्म पर्व, 31वां अध्याय, 26वां श्लोक। भागवत में 10वां स्कन्ध द्वारिका लीला 81 वां अध्याय, चतुर्थ श्लोक और सुदामा चरित में भी आता है। कोई भी भक्त एक पत्ता, फूल, फल या जल (तोयं का अर्थ आंसू भी है) मुझे अर्पण करता है तो मैं उसे हाथ पसारकर प्राप्त कर लेता हूं। इस तरह जल का महत्त्व अनेक धर्मों में, विभिन्न ग्रंथों में भी दर्शाया गया है। जल अर्पण से भी परमात्मा, प्रभु बहुत खुश होते हैं। कोई भी व्यक्ति श्रद्धा, प्रेम,आस्था, भक्तिभाव, समर्पण भाव से मुझे जल अर्पित करता है तो मैं पूरे विश्वास, प्रेम, आग्रह से उसे स्वीकार कर प्रसन्न होता हूं।जल एवं आंसू से प्रभु प्रसन्न हो जाते है।
पूजा पाठ, सफाई, स्नानादि में भी जल का प्रयोग किया जाता है। जल की महिमा के कारण ही जल के प्रति अपनी श्रद्धा, भक्ति, समर्पण, सम्मान, आभार, कृतज्ञता व्यक्त करते थे। उस समय तक जल जल ही रहा निर्मल, स्वच्छ, सहज सुलभ, साफ सुथरा, पवित्र। जल से जीवन उत्पन्न हुआ, जल से पला, पोसा और जीवन जिया। जल से ही विसर्जित हुआ और जल से ही मुक्ति के द्वार खुले। यह परम्परा जीवन-पर्यन्त जुड़ी रहती है। इन्हें निभाने में समाज को आनंद, खुशी, उत्साह, सुख समृद्धि, प्रकृतिमय, भावानात्मक, वैचारिक दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त होता है। भारत जल परम्परा की जीवन शैली अपनाने वाला रहा है। समाज का जल से विशेष रिश्ता रहा है। जल-अन्नदान सर्वोत्तम, सर्वोच्च माना गया है। इसलिए स्मृति में कुएं, जोहड़, पोखर, तालाब, बावड़ी, धर्मशाला, तिबारा, छतरी, प्याऊ बनाते थे। जो सबके लिए सुलभ होती थी।
जल संजोना, संवारना, संभालना, संरक्षण-संवर्द्धन, खुशहाल बनाना मनुष्य का धर्म है। जल में पवित्र, निर्मल करने की क्षमता है। ‘बहता जल निर्मला’ बहता जल अपने को शुद्ध-साफ कर लेता है, पापनाशक है।जल पवित्रता का प्रतीक है।
जल क्षेत्र की पहचान, रक्षण, सुरक्षा व्यवस्था के लिए विभिन्न विशेष तरह के आकर्षक, सुंदर कलात्मक स्तम्भ प्रतीक, चिन्ह, निशान बनाए जाते थे। जिससे सभी को जल क्षेत्र की सूचना मिल जाए और वह साफ- सुथरा, स्वच्छ, निर्मल, सुंदर, पवित्र रह सके। इनकी खूबसूरती, सुंदरता, कलात्मक बनावट देखकर समाज के सौंदर्य बोध का ज्ञान होता है। जल को साफ करने, रखने के लिए अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग वस्तुओं, साधनों, माध्यमों का प्रयोग किया जाता रहा। कहीं गदिया या चीला, निर्मली, कुमुदुनी (कुमुदिनी) या चाक्षुस, चूना, फिटकरी आदि के साथ लौंग, जीरा, अजवाइन आदि का प्रयोग कर जल की सफाई सुनिश्चित की जाती। कहीं तांबे के बर्तन प्रयोग में लाए जाते।
बचपन में सुनी एक कहानी याद आ रही है। जो जल के महत्व पर प्रकाश डालती है। पैगम्बर मौहम्मद साहब ने एक जिज्ञासु से कहा कि जब ईश्वर ने धरती बनाई तो यह हिलती कांपती थी, इसे रोकने के लिए मजबूत, शक्तिशाली पर्वत बनाए। जिज्ञासु ने पूछा पर्वत से मजबूत क्या है? लोहा पर्वत से मजबूत है, वह पर्वत को काट देता है मगर लोहे से मजबूत अग्नि है, वह लोहे को तपाकर गला देती है। अग्नि से मजबूत जल है जो अग्नि को ठण्डा कर, बुझा देता है। जल से मजबूत हवा है, जो उसे चलाती है। हवा से मजबूत दान है। जब दांए हाथ से दिया दान बांए हाथ को भी नहीं मालूम हो तो उसे सच्चा, बड़ा दान माना जाएगा कि उसने हवा पर भी अधिकार पा लिया। इस पर जिज्ञासु ने पूछा कि दान क्या है? प्रत्येक सद्गुण दान है। हंसमुख रहना, सदाचरण का पालन, अंधे व्यक्ति की सहायता, मार्ग से कांटे हटाना दान है। प्यासे को जल देना दान है, बड़ा दान है। “जलदान” सबसे जरूरी, उपयोगी, सार्थक एवं अच्छा है।
जल एवं जीवन के रिश्ते को समझने के लिए बाबा संत विनोबा भावे ने बताया है कि भोजन देने से पहले मेरी मां मुझसे पूछती थी विन्या तूने तुलसी को जल दिया क्या? भोजन से पहले तुलसी को जल देना। भोजन में गाय, पक्षी, कुत्ते के लिए निकालना। जीवन में इन सबका हिस्सा, हिस्सेदारी सुनिश्चित करता है। यह प्रक्रिया पर्यावरण सुरक्षा की ओर भी बढ़ाती है। यह भारतीयता का अंग है जिसमें-
“ईशावास्यम् इदम् सर्वम् यत् किं च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मां गृध: कस्यस्विद् धनम्।।”
उपरोक्त बात कही, अपनाई गई है- सृष्टि (प्रकृति) ईश्वरमय है। मनुष्य को त्याग वृत्ति से जीवन जीना है। दूसरे की भोग वृत्ति से ना प्रतियोगिता, ना ईर्ष्या करनी है। इस मंत्र से हमें यह त्रिविध संदेश मिलता है। यह हमारी अमूल्य विरासत है। प्रकृति तथा मानव जीवन की तरफ देखने-समझने की यह स्वस्थ, अनोखी दृष्टि, दिशा है।
नदियों के जल को “शिवतम रस” यानि अत्यंत शिव-कल्याण कारी, परोपकारी कहा जाता है। स्वच्छ जल को “प्रसन्न जलम्” कहते है। संस्कृत में प्रसन्न का अर्थ निर्मल, शुद्ध, साफ है। स्वच्छ जल की पवित्रता, शुद्धता, निर्मलता के लिए अनेक परम्पराएं, नियम बनाए गए थे। इनमें से आज एक का भी अमल नहीं हो रहा है। प्रकृति का पंच महाभूतों से गहरा रिश्ता है, आपस में भी पंचभूतों का गहरा रिश्ता है। सूर्य (अग्नि), समुद्र (जल) से भांप बनाता है, वायु (हवा) उसे ऊपर नभ (आकाश) में मेघ के रूप में ले जाती है और फिर मेघ (बादल) वर्षा की बौछार से जमीन (भूमि) पर आशीर्वाद के रूप में जल की बूंदें प्रदान करते हैं। वर्षा सृष्टि, परमात्मा का आशीर्वाद है।
भारतीय समाज में कहा जाता है कि जो जहां से आया है वहीं वापिस जाता है, जाना है। सागर से बादल बनकर उठते हैं और फिर सागर में ही आकर जल मिल जाता है।
संत तुकड़ोजी महाराज ने गीत में स्पष्ट किया है :
“हर देश में तू, हर भेष में तू,
तेरे नाम अनेक तू एक ही है।
तेरी रंगभूमि यह विश्व भरा,
सब खेल में, मेल में तू ही तो है।।
सागर से उठा बादल बनकर,
बादल से फूटा जल होकर के।
फिर नहर बना, नदियां गहरी,
तेरे भिन्न प्रकार, तू एक ही है।।”
प्रकृति की अद्भुत क्षमता, शक्ति, व्यापकता एवं निराली छटा है। प्रकृति शक्तिशाली है तथा अपने ही नियम से संचालित है जिसके सहारे प्राणी,जीव, मानव जीवन चल रहा है। प्रकृति का अपना ही संचालन है तथा वह समय-काल-परिस्थिति-स्थान के अनुसार स्वयं को संचालित करती रहती है।
रचना और विनाश, जीवन और मौत, लाभ और हानि, यश और अपयश, सुख और दुःख, उजाला और अंधेरा इसी पद्धति, प्रणाली, नियम के अंग है। गर्मी, वर्षा, शिशिर (शरद), सर्दी, पतझड़, हेमंत (बसंत) आदि ऋतु इसी प्रक्रिया के अंश है। नदी, पर्वत, जंगल, पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, झाड़ियां, घांस-फूस, वनस्पति कीड़े-मकोड़े, जीव-जंतु, काई, मानव आदि सब प्रकृति की लीला है, रचना है।
जल हाथ में लेकर असत्य नहीं बोला जा सकता, यह विश्वास अब टूटा है। लाखों विशेषकर हजारों वर्षों से चली आ रही यह प्राकृतिक व्यवस्था पिछले कुछ वर्षों में बुरी तरह से टूटी, तोडी गई है। कारण सत्ता, संसाधनों का केन्द्रीयकरण बना। औद्योगिक क्रांति, तकनीकी की गति, पूंजी की महत्ता, संग्रह ने इसको बल प्रदान किया। समाज को किनारे कर दिया गया। समाज कर्त्तव्य हीन बन गया। बस्तियां बेतरतीब महानगर में तब्दील होने लगी। ग्रामोद्योग, कुटीर उद्योग, लघु उद्योग की जगह बड़े पैमाने पर विशाल केन्द्रीत उद्योगों का जाल फैला। एकदम आश्चर्यजनक ढंग से कारपोरेट घरानों में भंयकर बढ़ोतरी हुई। विकास के नाम पर सत्ता, संपत्ति के मकड़जाल पहाड़ की तरह खड़े होने लगे। प्रदूषण मुक्त लघु उद्योग, हस्तकला, लघु कार्यों का विनाश हुआ। सत्ता और बड़े उद्योगों के गठबंधन ने प्रकृत्ति और इंसान को भी एक संसाधन मानकर मनमानी अंधी लूट की। एक तरफ संपत्ति के पहाड़, किले, अटारिया जगमगाने लगे और दूसरी ओर भंयकर, घातक गहरे गड्ढे फैलने लगे। असमानता की खाई महासागर की तरह फैलने लगी। समाज केवल नाम के लिए रह गया। आश्चर्य की बात है कि इस व्यवस्था को फैलाने, बढ़ाने, संरक्षित, संवर्द्धन करने के लिए कानून का डंडा, दबाव भी जोर से चला। बूंद, जल की जीवंत जीवन कहानी को समझना, जानना है तो इस मकड़जाल, स्थिति को सामने रखना होगा।
प्रकृति ने जल के विभिन्न भंडार, स्रोत, साधन बनाए। मनुष्य ने जल तथा जल भंडारों को अपने कब्जे में लेकर उपयोग, प्रयोग, उपभोग, व्यापार, दोहन, शोषण प्रारंभ किया। इसके लिए नए नए रास्ते खोजे, बनाए। आज इस प्रक्रिया को तीव्र गति से बढ़ाने की होड़ लगी हुई है।
पानी जो सबको सर्वसुलभ था उसे स्वार्थ पूर्ति के लिए मंहगा एवं दुर्लभ बनाया जा रहा है। कुछ स्थानों पर दूध से भी मंहगा पानी बेचा जा रहा है। जनहित के नाम एवं आड़ में अपना उल्लू सीधा किया जा रहा है। जल के साथ भारी, भंयकर छेड़छाड़ जारी है। सत्ता, तकनीकी का सहारा लेकर इसमें गति लाई गई है। स्थानीय शक्तियों के साथ साथ अब तो इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियां, शक्तियां, व्यापारी, राजनेता, वैज्ञानिक, उद्योगपति, नेता, ठेकेदार, अधिकारी जल के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। जल प्यास बुझाने, जीवन चलाने के बजाय व्यापार, लाभ, लोभ, लालच, दोहन, शोषण का माध्यम बनाया गया है।
जल के प्रति श्रद्धा, आस्था, चेतना, प्रेम, सम्मान, समृद्धि का भाव जब तक बना रहा व्यक्ति, समाज को जल साफ सुथरा, स्वच्छ, स्वस्थ, शुद्ध, निर्मला, सहजता, सरलता से उपलब्ध रहा। व्यक्ति और समाज पानीदार बना रहा।
जल के दान को सबसे ऊपर, सर्वोत्तम स्थान पर माना जाता था; जल प्याऊ, कुएं, बावड़ी, जोहड़, पोखर, तालाब बनाए जाते थे; यादगार, स्मृति, पुण्य, दान, सेवा, नाम के लिए भक्ति भाव से जल साधन खड़ा करना साधना का काम माना जाता था; सबके लिए, सर्वजन हिताय।
पर आज दशा, दिशा दोनों ही बदल गई हैं। जल पर किसी भी तरह कब्जा करने की होड़ लगी है।
जब मनुष्य इससे मनमर्जी, मनमाने, असंयमित, अप्राकृतिक ढंग से, लोभ, लालच के लिए छेड़छाड़ करता है तो विनाश की राह में तेजी आती है। यह सब मनुष्य जनहित, विकास, ज्ञान, विज्ञान, सभ्यता, आधुनिकता के नाम पर करता है और अपने को सबसे बड़ा मानता है। अपने ही पांव में कुल्हाड़ी मारकर, अपनी विरासत के साथ खिलवाड़ कर आने वाली पीढ़ियों को तथा प्रकृति को खतरे में डालकर विनाश के द्वार खोल रहा है। इसके बजाय हमें प्रकृति के साथ सहयोग, सहकार करते हुए प्राकृतिक दृष्टि के साथ प्रकृति प्रेमी बनकर सतत टिकाऊ, सहज- सरल, अपनी सीमाओं में रहते हुए विकास की सही उपयोगितावादी राह पकड़नी चाहिए।
कर्त्तव्य, धर्म, मान्यता, परम्परा, सुरक्षा के साथ-साथ हमारा जीवन चक्र है। इसके लिए हमें त्याग भावना से, साधना सादगी से जल का उपयोग करना होगा, सीखना होगा।अब भी देर हो गई है फिर भी भी आज भी चेत जाएं तो कोई राह बन सकती है। जब से जगो रे भैया, तब से सवेरा जानो। हमें जागरूक बनकर खुद भी स्वयं चेतना है और लोगों को भी जागरूक बनाने, चेताने के लिए प्रयास करने होंगे। हमें उपभोग, उपभोक्तावाद से भिन्न उपयोगितावाद को अपनाना है। जहां सत्य, अहिंसा, त्याग, साधना, संयम, सादगी, सरलता, स्पष्टता, सहजता, समझदारी, सेवा, परमार्थ को मान्यता है तथा यह जीवन के अंग है। उस प्राकृतिक जीवन शैली रहन-सहन, खान-पान, भेष-भूषा, शिक्षा-शिक्षण की ओर लौटना होगा।
गांधी जी ने स्पष्ट कहा है कि :
प्रकृति सबकी आवश्यकताएं तो पूरी कर सकती है मगर लालच किसी एक का भी पूरा करना कठिन है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
श्री दीपक भाई, सादर जय जगत।
आभार धन्यवाद शुक्रिया।
रमेश चंद शर्मा