बापू के जीवन संदेश
– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
बापू की यात्रा सीख श्रमनिष्ठ बनाती है
मैंने बापू की सीख से यात्राएं चलाना आरम्भ किया था। स्थानीय लोगों में चेतना जगाकर ग्राम सभा व नदी संसद द्वारा लोगों को अपना काम करने के लिए श्रमनिष्ठ बनाना आरम्भ हुआ। श्रमनिष्ठा से काम करने का अहसास व आभास लोगों को हुआ तो, उन्होंने अपनी नदी संसद बनाकर, वर्षा के साथ अपना फसलचक्र जोड़ना आरम्भ कर दिया था। अरवरी नदी संसद द्वारा जो नियम बना, वह गाँव की ग्राम के दस्तूर से ही बना था। इसलिए लोगों को अपना दस्तूर पुनः समाज ने स्मरण कराके उसका पालन आरम्भ किया था।
बापू के जीवन संदेश ( यह प्रकृति सबकी जरूरत पूरी कर सकती है लेकिन लालच किसी एक का भी पूरा नहीं कर सकती) प्रकृति से प्रेम करना सिखाया है। प्रेम से चेतना और समझ बड़ी, उसी से शिक्षण हुआ। शिक्षण के बाद रचना आरम्भ कर दी। उसके बाद जो भी बाधक बने, उससे बिना विरोध अपनेपन के साथ ह्दय परिवर्तन द्वारा केवल सत्य का आग्रह “सत्याग्रह” विधि से ही हम यमुना-गंगा व देश की सभी नदियों को बचाने में लगे रहे।
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मेरा बचपन और तरुणाई बापू, विनोबा, जयप्रकाश के प्रकाश में ही बीता था। युवा काल चिकित्सा-शिक्षा और सरकारी सेवा में बीता। सम्पूर्ण युवा जीवन में बापू की सीख-जीवन का संदेश बन गई। मन में बस एक ही संकल्प हुआ, स्वयं काम किए बिना नहीं बोलेंगे। हमने पहले समझा, सहेजा, फिर रचना और सत्याग्रह करने का काम किया। यही मेरे जीवन के चार कदम बन गये। इन कदमों से हमारा प्रेम, विश्वास ही, विश्व सत्य सिद्धांत बन गया था। इसमें जो भी बाधक बना, उससे पहले संवाद से बीच का रास्ता निकालने का प्रयास किया। फिर अपना सत्य पकड़ा और उसी पर अड़ गये। उसमें सिद्धी पाने तक उसे छोड़ा नहीं। सदैव सिद्धी मिली। खनन रोकना हो या गंगा की अविरलता-निर्मलता का गंगा सत्याग्रह हो; इसमें कदम दर कदम हम आगे बढ़ रहे हैं। प्रकृति और मानवता के लिए शुभ कार्य करने वालों को दुनियाभर में ढूँढ़-ढूँढ़ कर उन्हें सम्मानित व उनके कार्यों को प्रतिष्ठित करने में जुटे रहे हैं।
बा-बापू के 150 वर्ष में हमने दुनिया के 150 व्यक्तियों को खोजकर पर्यावरण संरक्षक सम्मान से सम्मानित किया है। इसमें बापू की सीख- “जो प्रकृति को प्यार और सम्मान करेगा, वही मानवता का सम्मान भी करता है।” हमने ऐसे ही व्यक्ति खोजे, जो प्रकृति को भगवान् मानकर उसी से प्रेम, विश्वास, आस्था, श्रद्धा, इष्ट व भक्ति-भाव से सभी धर्मों का बराबर सम्मान करने वाले हों। वही ‘पर्यावरण संरक्षक सम्मान’ पाने का हकदार है।
आज दुनिया के सभी धर्मां के सम्मान में ‘सर्व धर्म समभाव मन्दिर’ तरुण आश्रम में बनाया है। ‘‘जल हमारी भाषा और नदी संस्कृति है।’’ इसलिए तरुण आश्रम जल तीर्थ बन गया है। इस तीर्थ के प्रकाश स्तम्भ गांधी, विनोबा व जयप्रकाश ही रहे हैं। बापू में ये दोनों समाहित हैं। इसलिए जब मैं बापू बोलता हूँ। मैंने जिन्हें प्रत्यक्ष देखा-सीखा वे तो विनोबा व जयप्रकाश ही हैं। ये दोनों ही बापू में शामिल हैं। इसलिए हर समय मैं इन्हें अलग-अलग सीख के लिए सम्बोधन नहीं करता हूँ।
बापू आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक क्रांति को विज्ञान के साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं। तकनीकी इंजीनियरिंग के खतरे बताकर हमें सचेत करते रहे हैं। आज भी जरूरत पड़ने पर हिन्द स्वराज्य और मंगल प्रभात अनेकों बार पढ़ना ही पड़ता है। बापू का सम्पूर्ण जीवन दर्शन मेरे लिए संदेश रहा है। जो कुछ भी किया, वह बापू से सीख कर किया है। सबसे अधिक सिखाने वाले लोक नायक जयप्रकाश, श्री विनोबा, श्री एस. एन. सुब्बाराव, श्री आचार्य राममूर्ति, श्री सिद्धराज ढढ्ढा, गोकुल भाई भट्ट, ठाकुर दास बंग, अमरनाथ भाई, लोकेन्द्र भाई, रमेश भाई व हरी भाई जैसे लोग हैं, जिनकी लम्बी सूची है। जिन्होंने 1974 से ही बापू से सीखने वाला मन-मस्तिष्क व ह्दय-आत्मा का निर्माण किया है। इन्होंने ही दुनियादारी का बहुत कुछ सिखाया है।
अंतिम व्यक्ति माँगू मीणा तथा नाथी बलाई हैं, जिन्होंने मेरे पूरे जीवन को ही बापू के काम को पूरा करने में लगा दिया है। अब अंतिम व्यक्ति से सीखकर जीवन पूरा करने का मेरा संकल्प है। इसे पूरा करने में श्री रमेश शर्मा, श्री अनुपम मिश्र, अरुण तिवारी और सैकड़ों हजारों नाम उल्लेखित करने चाहिए, लेकिन सभी नाम प्रो0 जी.डी. अग्रवाल, प्रो0 रासिद हयात सिद्धकी में समाहित हो जाते हैं।
आज कल मौलिक, मनीष जैन, गोपाल, छोटेलाल, सुरेश, राहुल, अंकिता, नलिनी, पूजा, मेरी पत्नी मीना जी, पारस प्रताप, भरत, संजय सिंह, इंदिरा खुराना, नरेंद्र चुग, विनोद वोधनकर , जगदीश चौधरी, सत्यनाराण बुल्लशेट्टी, दीपक पर्वतियार आदि जो मुझे बापू के कामों को पूरा करने में रात-दिन सहयोग करते हैं। इनके बिना मेरा स्वावलम्बन का संकल्प पूरा नहीं होता है। यहाँ भी हजारों नाम लिखने चाहिएँ, लेकिन कुछ ही नामों में सबका नाम सम्मलित मान लेता हूँ।
बापू का सत्य मेरा भगवान् है। इसके साथ अहिंसामय रास्ता ही जोड़ा जा सकता है। इसी विश्वास को बापू ने पैदा किया था। मैंने उसी विश्वास में अब श्रद्धा और आस्था पैदा कर ली है। यही विचार मेरा इष्ट बन गया है। यही सत्याग्रह की शक्ति मुझे सदैव ऊर्जा प्रदान करती है। अभी बापू की सीख से मैं यहीं तक पहुँचा हूँ। आगे भी भक्ति भाव शेष है,आने वाले समय में बापू मुझे वहाँ भी पहुँचाएँगे। इस पर कोई प्रश्न और उलझन मेरे मन में नहीं है। बापू से सीखकर काम शुरू किया था। वह अंतिम दिन तक मेरा इष्ट बना रहेगा। इस सत्य तक मेरा इष्ट बापू ही मुझे पहुँचाएगा।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।