छठ पर विशेष
– आशीष सिन्हा एवं प्रियरंजन भारती
प्राचीन ईरानी भाषा में मग का अर्थ था आग का गोला यानि सूर्य
वैदिक काल में गयासुर नामक एक असुर, मध्य भारत के कीकट प्रदेश में रहता था।वह भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त था। उसकी शारीरिक आकृति इतनी विशालकाय थी, कि जब वह भूमि पर लेटता था ,तो उसका सिर उत्तर भारत को और दोनों पैर आंध्र प्रदेश क्षेत्र को स्पर्श करते थे।सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि उसका वक्ष या हृदय स्थल बिहार के गया क्षेत्र में पड़ता था। उसके द्वारा भविष्य में होने वाले अनुमानित खतरों को लेकर देवता-गण भयाक्रांत थे। सभी देवता गण उसके भय से आक्रांत होकर सहायता हेतु भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे । परंतु भगवान ब्रह्मा ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए देवताओं को बताया की गयासुर भगवान विष्णु के महानतम भक्तों में से एक है। इसलिए हम उसका कुछ भी नही कर सकते।
तब सभी सशंकित देवता-गण, भगवान विष्णु के शरण में गए और उन्हें अपने आशंकाओं से अवगत कराया। प्रारंभ में भगवान विष्णु अपने परम प्रिय भक्त को मारने को लेकर थोड़ा हिचकिचाये।
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पुनः देवताओं ने भगवान विष्णु को एक सलाह दी कि वे उन्हें गयासुर के वक्षस्थल पर, यानि गया क्षेत्र में उन्हीं के नाम पर एक यज्ञ करने की अनुमति दे। भगवान विष्णु ने देवताओं के इस निवेदन को सहर्ष स्वीकार कर गयासुर से संपर्क किया। गयासूर जानता था कि यदि उसके वक्ष पर यज्ञ किया गया तो उसकी मृत्यु निश्चित है।परंतु वह भगवान विष्णु का अदम्य भक्त था, अतः उसने यथाशीघ्र भगवान की याचना को स्वीकृति दे दी।
गयासुर से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु ने उसे आशीर्वाद दिया कि आगामी समस्त कालों में लोग उसके नाम को सदैव याद रखेंगे। साथ ही भगवान ने गयासुर को एक और आशीर्वाद दिया कि चूँकि यज्ञ का आयोजन गयासुर के वक्ष पर किया जाएगा, अतः यह समग्र क्षेत्र ‘गया’ के नाम से प्रसिद्ध होगा और यह नगर आगामी समस्त कालों में हिंदुओं के पवित्रतम तीर्थ-स्थलों में से एक होगा। इस नगर में विश्व के सभी क्षेत्रों से लोग पितृपक्ष मास में अपने पितरों के आत्मा की शांति हेतु पिंडदान के लिये अवश्य आएंगे। आज भी लोग पिंडदान के लिये गया ही आते हैं।
भगवान विष्णु के अनुमति से उत्साहित देवता गण यज्ञ के लिए योग्य व सक्षम पुरोहित की खोज करने लगे, जो भगवान विष्णु के अदम्य भक्त हो तथा विष्णु नाम से होने वाले यज्ञ को कुशलता-पूर्वक प्रतिपादित करा सके। लेकिन उन्हें असफलता ही हाथ लगी। थक हार कर सभी देवता गण महर्षि नारद के पास पहुंचे।महर्षि नारद ने उन्हें सलाह दी कि ऐसे योग्य पुरोहित उन्हें (प्राचीन ईरान के) शाक्य-द्वीप नामक स्थान पर मिलेंगे।
शाक्य-द्वीप के पुरोहित भगवान सूर्य के बड़े उपासक थे और उन्हें मग ब्राह्मण के नाम से जाना जाता था।मग ब्राह्मण नाम का उल्लेख विष्णु पुराण में है। प्राचीन ईरानी भाषा में मग का अर्थ था-’आग का गोला’ या सुर्य। मग शब्द से ही मगध शब्द की उत्पत्ति हुई।
देवताओं द्वारा, गयासुर के वक्ष-स्थल पर होने वाले यज्ञ के लिये सात योग्य पुरोहितों को गया लाया गया।इन सातों पुरोहितों के वंशज आज भी मगध क्षेत्र में शाकद्वीपीय ब्राह्मण, शकलद्वीपीय ब्राह्मण अथवा मग ब्राह्मण ब्राह्मण के नाम से जाने जाते हैं।इसका उल्लेख भीष्म-पर्व, भविष्य पुराण, ब्राह्मण पुराण में मिलता है।
सभी सातों ब्राह्मण-गण समय के साथ धीरे-धीरे गया क्षेत्र तथा इसके निकटवर्ती जिलों में बस गए। जिसकी पुष्टि 1937-38 ई. के गया जिला के गोविंदपुर अभिलेख से होती है।
मग ब्राह्मणों की सूर्य-उपासना से प्रभावित होकर मगध क्षेत्र के मूल निवासियों ने भी सूर्य-आराधना व पूजा-पाठ शुरू कर दी। आदित्यनाथ सूर्य देव प्रत्यक्ष देवता हैं एवं सूर्य-षष्ठी (छठ) की आराधना का वैज्ञानिक महत्व है।आगामी कालों में सूर्य-उपासना की यह प्रचलित पद्धति ‘छठ महापर्व’ के नाम से हमारे सामने है।सूर्य-उपासना की पद्धति सरल है, व आम जन भी इसे सुलभता से कर सकते है। मगर व्रत अत्यंत कठिन होता है, और शुद्धता पर विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है। पूजा के विधान को संपादित कराने के लिये किसी पुरोहित की आवश्यकता नही होती।
आगामी कालों में सूर्य उपासना का यह महापर्व बिहार के समस्त क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया। जिसका मुख्य कारण है – छठ-व्रतियों को मिलने वाला दिव्य फल। जिसका लाभ छठव्रती के साथ उसके परिवार को भी मिलता है।
मगध क्षेत्र से शुरू होने वाला यह पर्व सम्पूर्ण बिहार का महापर्व बन गया। सभी सातो शकलदीप ब्राह्मणों ने सम्पूर्ण मगध क्षेत्र में सात विभिन्न स्थानों पर सूर्य मंदिरो का निर्माण कराया।- जिसमे ‘देव’, ‘उल्लार’, ‘अंगोरी’, ‘गया’ और ‘पंडारक’(पुण्यार्क) प्रसिद्ध हैं।
छठ की पूजा विशेष फलदायी होती है। पितृ-तीर्थ गया के पंडा समाज स्वयं को अग्निहोत्र ब्राह्मण भी कहते है। यहाँ भी अग्नि को इसके मुख्य स्रोत सूर्य से जोड़ कर देखा जा सकता है।
छठ महापर्व में ऊषा और प्रत्युषा की पूजा सूर्य उपासना में की जाती है। ऊषा का संबंध सूर्योदय की प्रथम रश्मि से है, वही प्रत्युषा का संबंध अस्ताचल सूर्य की अंतिम रश्मि से है। ऊषा एवं प्रत्युषा दोनों छठी मैया के नाम से जानी गई और पर्व का नाम सूर्य षष्ठी के अपभ्रंश छठी के कारण पड़ा। इसी से छठव्रती उगते व डूबते सूर्य की उपासना करते हैं।
कहा जाता है कि भगवान कृष्ण के पुत्र सम्ब और राजा प्रियव्रत मगध क्षेत्र में छठ व्रत करते थे।उन्हें इसका लाभ भी मिला।
ॐ सूर्य देवं नमस्ते स्तु गृहाणं करूणाकरं |
अर्घ्यं च फ़लं संयुक्त गन्ध माल्याक्षतैयुतम् ||
परमपिता श्री सूर्यदेव और परममाता श्री प्रत्यूषा एवं श्री ऊषा आपकी सभी मनोकामनायें पूरी करें! लोक आस्था के महापर्व छठ व्रत की मंगलकामनायें!
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद रजनीश राय द्वारा)
सौजन्य प्रणव साही/पीएमपी टीवी