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शुक्रवार विशेष
– रमेश चंद शर्मा*
गांव में कुछ समय के अंतराल पर कुछ ऐसी बे-सिर-पैर की बातें फैलती जिनका प्रचार-प्रसार मन की गति से भी तेज होता। कानों कान यह बातें बहुत जल्दी इधर से उधर पहुंचती। बिना रेडियो, बिना अखबार, बिना फोन, डिजिटल साधन तो उस समय था ही नहीं। आकाशवाणी की बातें जरूर सुनने को मिलती थी।
कभी बात फैलती भूकंप आने वाला है, प्रलय हो जाएगी, सब-कुछ खत्म हो जाएगा, कुछ नहीं बचेगा, तिथि, दिन भी घोषित हो जाता। कभी किसी देवी-देवता के नाम से कोई किस्सा, कहानी बनती। कभी कोई जानवर गाय, भैंस, गधा, ऊंट, घोड़ा, बकरी छप्पर, कोठे पर चढ़कर बोलती। तो कभी किसी सुहागिन के, किसी कन्या के नाम से बातें उजागर की जाती और उनके पहनावे, शक्ल सूरत का भी बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया जाता। यह यह करो नहीं तो यह यह नुकसान होगा, पाप लगेगा, संतान मर जाएगी, रोग, बीमारी, महामारी फैलने का भय, भ्रम फैलाया जाता। बात का बतंगड़ बन जाता।
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हर सुहागिन को विशेष रंग की चूड़ियां पहनकर व्रत करना है। किसी विशेष रंग के कपड़े पहनकर कोई अमूक काम करना है। घर के चारों ओर गाय के गोबर की रेखा खींचनी है। दरवाजे पर गोबर और रोली के पंजे के थापे लगाने है। पांच कन्या जिमानी है, भोजन करवाना है। विशेष तरह का भोजन बनाकर, चौराहे पर पूजा करनी है। किन्हीं विशेष वस्तुओं का दान, पुण्य करवाना। जैसी अनेक बेतूकी बातें फैलाई जाती। इसके पीछे कुछ स्वार्थ अवश्य छूपे रहते। जो कभी सामाजिक, राजनीतिक, व्यापारिक, धार्मिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए फैलाया जाता।
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एक बार अफवाह फैली की अमूक तिथि को बहुत ही भंयकर भूकंप आने वाला है। धरती पाताल एक हो जाएगा। सभी लोगों में दहशत फैल गई। बच्चों, जवानों में मिली जुली प्रतिक्रिया थी। कोई कुछ कहता तो, कोई कुछ। आखिर वो दिन आ गया। दिन तो बीत गया मगर रात का क्या होगा। इसकी जबरदस्त चिंता बुजुर्गों के चेहरे पर साफ झलक रही थी। हमारे कुनबे के बुजुर्ग बाबा श्री महारामजी ने हवेली के सभी बच्चों, जवानों का नौहरे, गवाड़े में रात को रहने का इंतजाम किया। खाना खाने के बाद सभी वहां चले आए। किसी के मन में डर तो, किसी के मन में जिज्ञासा की क्या होगा, कैसे होगा। मौहल्ले के सभी बच्चे, जवान घर से बाहर थे।
सभी बच्चे, जवान ऐसे समय पर भी खेल कूद, कहानी किस्से में लग गए। डर के कारण नींद भी उड़ गई। रात गहराने लगी, घबराहट बढ़ने लगी। अचानक हल्की फुल्की कुछ आवाज हुई। बुजुर्ग चौकन्ने होकर सबको कहने लगे कि खुले में आ जाओ। अंधेरे में सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर घबराहट में बाहर आकर राम राम जपने लगे, भगवान से बचाने की गुहार में लग गए। सबकी सिट्टी पिट्टी गुम। धीरे धीरे आवाज तेज होने लगी। ज्यों ज्यों आवाज तेज होती जा रही थी, सबका दम फूलने लगा, घबराहट बढ गई, किसी को कुछ सूझ नहीं रहा। कुछ के मुंह से निकला कि हलचल हो रही है, जबकि धरती स्थिर थी। कुछ समय तक तेज आवाज आने के बावजूद जब लगा कि धरती तो हिल ही नहीं रही। यह क्या माजरा है। तब आवाज पर गौर करना शुरू हुआ। और पाया गया कि चाचा मुन्नी दत्त की शरारत है। पशु आहार दलने के लिए जो चक्की रखी थी, उसमें कंकर पत्थर डालकर चला रहे हैं। बाबा लाठी लेकर दौड़े मगर पहले से सतर्क चाचा बच निकले। और जितनी घबराहट थी उससे ज्यादा हंसी के फव्वारे छूटने लगे।
आस-पड़ोस, मौहल्ले के लोग, और धीरे धीरे जहां तक आवाज पहुंच गई थी। वे भी तेज आवाज की ओर जिज्ञासा वश बढ़े कि जहां से आवाज आई उधर क्या नुकसान हुआ है, देखें क्या स्थिति है। जब उन्हें यहां हंसते, मजाक करते लोग नजर आए, तो उन्हें आश्चर्य हुआ। पूरा किस्सा सुनकर वे लोग भी हंसी ठठ्ठे में शामिल हो गए। यह बात भी सुबह तक फैल गई।
भूत का भय बचपन में बार बार दिखाया जाता। और यह किसने, कब शुरू किया मालूम नहीं, मगर विकास, विज्ञान, शिक्षा के बावजूद आजतक धड़ल्ले से यह चल रहा है। घर घर में, लगभग हर व्यक्ति, इसका खुलकर प्रयोग जाने अनजाने में करता रहता है। यह कर ले, यह खा ले, जल्दी सो जा, कहना मान ले नहीं तो भूत आ जाएगा। वो भूत आज तक किसी के सामने साक्षात प्रकट नहीं हुआ, मगर उसका भय कोई भाग्यशाली ही होगा जिसको नहीं लगा हो। कितने ही काम बिना इच्छा के भी करने पड़ते, किए होंगे। यह भंयकर सिलसिला आज भी जारी है, कब तक चलेगा मालूम नहीं। इसका भय, अहसास, भाव मन पर स्थाई बनकर बैठ जाता। नहीं मानते हुए भी जब संकट भाव में सामने कोई ऐसी बात आती तो भूत का भय मन में उभरकर प्रकट हो ही जाता है।
मुझे एक घटना याद आती है गर्मी में अपन अपने गुवाड़े, नोहरे में सोते थे। सुबह सवेरे, मुंह अँधेरे में परिवार, मोहल्ले की महिलाएं जंगल जाती शौच के लिए तो अपने गोदी के बच्चे को हम जो सोते हुए रहते, उनमें से किसी की बगल में लिटा जाती। वापसी पर अपने बच्चे को ले जाती, कभी अपन को मालूम पड़ता और कभी नहीं। एक दिन रात के समय ऐसा हुआ कि सोते समय अपन ने करवट बदली। हाथ पर कुछ लगा, सोचा कोई बच्चा है। अपन ने उस पर हाथ रखा तो बाल छुए, सर समझकर लेटे रहा। तभी कुछ देर में मेरे शरीर पर बाल छुए तो अटपटा लगा। हाथ फेरा तो सारे शरीर में बाल ही बाल, लम्बाई भी ज्यादा लगी। अब शक हुआ की दाल में कुछ काला है। घबराहट बढ़ी, चिंता शुरू हुई और मन भूत से ज्यादा झरख की ओर मुड गया। सुनते थे की झरख आता है और कुछ कुछ बनकर आदमी को ठगता है। मालूम नहीं कितनी देर यह खेल चला।जब तक कानों में यह आवाज आई कि ऐसे भी क्या सोना। जब यह भी ना पता चले की बगल में कौन सोया पड़ा है, तो हिम्मत बंधी। आँख खोलकर देखा तो बड़ा गुस्सा आया। एक कुत्ता अपनी बगल में सोया हुआ है। लाठी लेकर पीछे दौड़ा। अब क्या होगा, जो होना था, वह तो हो गया था। आसपास जो सोए हुए थे वे खूब खुलकर हंसे और अपन खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की स्थिति में खड़े थे। सावधानी सतर्कता भी क्या बरतें, कभी जरा सी आहट पर आंखें खुल जाती, और कभी बहुत शोर शराबे के बाद। यह अपने हाथ में तो था नहीं।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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