रविवारीय
– कैप्टेन एस एन अहमद
फौजी अफसर बन कर देश सेवा की पारिवारिक परंपरा को जारी रखते हुए, कैप्टेन अहमद ने अपने कंधे पे सितारे लगाए मगर उनके लिखने की इच्छा इतनी प्रबल थी की अपना समय पूरा करते ही इन्होने कलम को अपना हथियार बना लिया। आज ये अपनी कविताएं लिखते हैं मगर वृद्धावस्था पर उनकी एक अलग ही मुहिम जारी है। मां-बाप अपने बच्चों को ताज़िन्दगी पाल पास कर बड़ा करते हैं की एक दिन वो अपना एक नया आसमान बनायेगे मगर जब वही बच्चे अपने रोज़गार के लिए चले जाते हैं तो एक समय आता है जब सिर्फ अकेलपन रह जाता है. अकेलेपन का एहसास वो अपने बच्चों को नहीं होने देते. और कई बार, जब तक बच्चों को पता चलता है बहुत देर हो चुकी होती है.
अहमद अपनी कविताओं के माध्यम से हर दिल को छूना चाहते हैं जिनके घरों में शायद वृद्ध माता पिता हों. शायद आपको भी उनके ख्यालों की कतरनें पसंद आएं.
अकेलापन
अकेलापन अब अकेला सा नहीं लगता
मैं उसमे कुछ घुल मिल सा गया हूँ
ज़लज़लों के हादसे भी अब मुझे हिला नहीं पाते
क्योंकि शायद मैं, अंदर से ही हिल गया हूँ
मानना नहीं चाहता की अब उम्र हो चली है
मगर सच कहूँ तो ए दोस्त, हकीकत तो बस यही है
शहर बसने लगे हैं गाँव वीरान हो चले हैं
घर छोड़ कर अपने सब गैरों के हो चुके हैं
मैं आज भी उसी दहलीज़ पर खड़ा हूँ
एक उम्मीद लिए अपने ही दर पे पड़ा हूँ
दुनिया के शोर ओ गुल अब ब्याकुल नहीं करते मुझे
मगर मेरी साँसों का शोर क्या सुनाई नहीं देता तुझे?
सुनाना भी नहीं चाहता कि तू परेशान ना हो कहीं
हो सके तो आ जाना थोड़ी ही देर को सही
नहीं रही कोई भी ख़्वाहिश अब किसी के भी आने की
आती हैं जाने क्यों साँसे , घड़ियाँ जब हैं जाने की
अकेलापन अब वाकई अकेला सा नहीं लगता
मैं उसमे पूरी तरह जज़्ब हो चूका हूँ
होशी बेहोशी की हकीकत से परे
मैं इस दुनिया में शायद खर्च हो चुका हूँ
यह भी पढ़ें : दो कवितायेँ