-ज्ञानेन्द्र रावत*
कोरोना संक्रमण देश में अब भयावहता की सीमा पार कर चुका है और संक्रमितों का आंकड़ा तेरह लाख इक्यावन हजार को भी पार कर गया है। जबकि बीते छह महीनों में सबसे ज्यादा पिछले चौबीस घंटों में तकरीबन सात सौ चौरानवे से भी ज्यादा लोग मौत के मुंह में जा चुके हैं। हालत इतनी खराब है कि अस्पतालों में बैड तक नहीं हैं और पीड़ित रोगी दर-दर भटकने को मजबूर हैं। इन हालातों ने कोरोना से निपटने के सरकारी दावों की पोल खोल कर रख दी है। फिर टीकाकरण भी बदहाली के दौर से गुजर रहा है। देश के सुदूर अंचलों की बात तो दीगर है राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक में टीकाकरण केन्द्रों पर वैक्सीन खत्म होने और टीका लगवाने को आये लोगों द्वारा शोर-शराबा किये जाने की खबरें आ रही हैं। राजस्थान में तो लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा टीकाकरण केन्द्रों को बंद करना पड़ा है। ऐसी खबरें कमोबेश अधिकांश राज्यों से मिल रही हैं।
असलियत यह है कि देश में वैक्सीन की कमी का संकट है। इसके बावजूद कि अब टीकाकरण की दूसरी डोज का समय बढ़ाकर अट्ठाइस से पेंतालीस दिन कर दिया गया है। दुर्भाग्य तो यह है कि इतने प्रयास और प्रचार के बावजूद वैक्सीनेट का आंकडा़ बीस फीसदी के करीब भी नहीं पहुंच पाया है।
जहां तक कोरोना के भय से लोगों द्वारा वापस गांव अपने घर लौटने का सवाल है, मुंबई, दिल्ली और पंजाब से पचास हजार से ज्यादा लोग ट्रेन से लखनऊ पहुंच चुके हैं। यह सिलसिला जारी है। जबकि हर औद्यौगिक शहर से पिछले साल की तरह लोगों का घर वापसी का दौर शुरू हो चुका है। हालात की भयंकरता का सबूत इससे पता लग रहा है कि कहीं तो अस्पतालों में कहीं बैड बढ़ाये जा रहे हैं तो कहीं अस्पताल बढ़ाये जा रहे हैं। कहीं किसी राज्य में सोलह, कहीं आठ तो कहीं छह जिलों में रात का कर्फ्यू लगा दिया गया है और अब दिन में कर्फ्यू या लाकडाउन लगाने पर विचार किया जा रहा है। इसका उद्योगपति पुरजोर विरोध करेंगे क्योंकि जैसे-तैसे फिर पटरी पर गाड़ी आयी है और यदि अब लाकडाउन लगा तो उद्योग जगत की तो कमर ही टूट जायेगी, बेकारी-बेरोजगारी सुरसा के मुंह की तरह बढे़गी सो अलग। साथ ही अपराधों में बढ़ोतरी होगी। इससे सबसे ज्यादा आतंकित उद्योगपति, छोटे कारखाने दार, दुकानदार हैं जो पिछले लाकडाउन से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। श्रमिकों की वापिसी ने उनके हाथ-पांव फुला दिये हैं। सबसे ज्यादा मार प्रायवेट कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों पर पड़ने वाली है जिनकी अब फिर नौकरी जाने के डर से रातों की नींद हराम हो गयी है। उनके सामने रोजी रोटी का संकट मुंह बाये खडा़ है।
सबसे दुखदायी बात यह है कि लोग हैल्थ प्रोटोकोल का सही ढंग से पालन नहीं कर रहे हैं। मास्क लगाना और दो गज की दूरी रखना तो वह अपना अपमान समझते हैं। यदि कोई मास्क पहने दिखा तो उसकी हंसी उड़ाते हैं और कहते हैं कि इन्हीं को ज्यादा कोरोना का डर सता रहा है।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने तो दो टीके लगवा लिए हैं पर बिना मास्क पहने चुनावी रैलियों में उनका जाना और भाषण देना लोगों को क्या सन्देश दे रहा है? वे पांच राज्यों के चुनाव में रैलियों में बिना मास्क भाषण दे रहे हैं। सबसे दुखदायी बात यह कि उसी रैली में हजारों-लाखों समर्थक बिना मास्क पहने उनका मंत्रमुग्ध हो बिना दो गज की दूरी का पालन किये एक दूसरे से सटकर बैठे प्रधानमंत्री जी का भाषण सुन रहे हैं। कहीं कोई सोशल दूरी नहीं रखी जा रही है। यह हालत कमोबेश सभी दलों और उनके छोटे-बडे़ नेताओं की है जो रैलियां और रोड शो कर रहे हैं। गौरतलब तो यह कि नेताओं द्वारा चुनावी मंचों तक पर भी नियमों की सरेआम धज्जियां उड़ाई जाती रही हैं।लगता है प्रधानमंत्री भी कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। उन्हें कोरोना से लोगों के मरने की नहीं बल्कि वहां चुनाव जीतने की अधिक चिंता है।
बहुत शोर-शराबे के बाद चुनाव आयोग ने अब चुप्पी तोड़ते हुए चुनावों में प्रचार के दौरान कोरोना से बचाव के दिशा-निर्देशों का गंभीरता से पालन किये जाने हेतु राजनीतिक दलों को पत्र लिखा है। दुख तो इस बात का है कि अभीतक क्या चुनाव आयोग सो रहा था। जबकि यह कटु सत्य है कि इन रैलियों-जन सभाओं में मौजूद अनियंत्रित भीड़ का कोरोना के विस्तार में अहम योगदान है। ऐसे हालात में कोरोना पर अंकुश की बात बेमानी है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।