आयुर्वेद और कोरोना -2
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
‘‘कोरोना‘‘ महामारी, बीमारी प्रकृति ने बनाई है या मानव के रावणीय लालच से बनी है? यह निर्णय कब तक होगा, पता नहीं। अभी इसे मानवीय लालच से ग्रस्त प्राकृतिक क्रोध माना जा सकता है। हम सभी का निर्माण महाविस्फोट से हुआ है। 13.8 अरब साल, पहले महाविस्फोट से ही वस्तुमान (मैटर), समय (टाइम) और अंतरिक्ष (स्पेस) का जन्म हुआ था। इसके पहले क्या था? इसे कोई नहीं जानता है।
कोरोना को कोई नहीं जानता। कोरोना प्रकृति का क्रोध है! खाद्य श्रृंखला से बहुत से जीवों का अंत होना है। कोरोना तथा दूसरे वायरसों के अंत की खोज करना कठिन होगा क्योंकि प्रकृति में कौन सा वायरस किसकी उपस्थिति से नष्ट होता है, यह कैसे अपने आपको बदलता है, कितना समय लेता है, वह संपूर्ण ज्ञान, अभी सम्पूर्ण मानवता को नहीं हुआ है। उसी की खोज से ही ‘कोरोना’ हार सकता है।
भारतीय ज्ञानतंत्र में मानवीय जीत का लालच पूरा करने हेतु इस वायरस की म्युटेशन की प्रक्रिया को जानना बहुत जरूरी है। इसे जाने बिना जो वैक्सीन बनेगी, वह भी इस वायरस की तरह आगे चलकर धोखा देगी। यह वायरस म्यूटेट नहीं करता तो इसकी वैक्सीन भी चेचक, पोलियो, हैजा की दूसरी वैक्सीन की तरह सफल हो जाती। अभी आन्ध्र, कर्नाटक,तेलंगाना में इसके कई बदले रूप सामने आये है। ये ज्यादा भयानक खतरनाक है।
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धरती पर हुए विस्फोटों के इतिहास से हम सीख सकते हैं। प्राकृतिक सृजन के लिए महाविस्फोट होते ही हैं। जब तक भौतिक शास्त्र के सिद्धांत नहीं थे, दूसरा महाविस्फोट तीन लाख वर्ष बाद हुआ। जब कुछ भौतिक शास्त्र के सिद्धांत बनने लगे तब वस्तुमान और ऊर्जा के परस्पर संबंधों से अणु निर्माण हुआ। अणु और परमाणु के सहसंबंधों को समझना ही रसायन शास्त्र है। इसी से जीवन और मृत्यु की औषधि निर्माण होती है। वही काल संसर्ग व्याधिकाल है। पूरी पृथ्वी वायरसों से भरी हुई है। यह भारतीय ज्ञानतंत्र की देन है। वायरस संसर्ग व्याधि को जन्म देता है। इसे छूत भी कहा जाता है।
कनाडा के डा. डान लो ने कोरोना-1 को कनाडा में ही घेर कर खत्म कर दिया, देश से बाहर नहीं निकलने दिया था। इसने सभी की भलाई व दुनिया को भयमुक्त बनाने के लिए चिकित्सा के उपाय खोजे। अपने इस आनंद को उसने दुनिया हेतु साझा किये थे। सभी की भलाई में डा. डान लो ने अपनी भलाई ढूंढी थी। भलाई करने के उसने सभी रास्ते खोजे थे। ऐसे लोगों के जीवन में प्राकृतिक सत्य है। इसी की सत्यता को ‘‘भगवान‘‘ मानना, उसी को प्रेम, सम्मान, श्रद्धा, निष्ठा और भक्ति में हम करने लग जाते हैं, तभी दुनिया की भलाई संभव होती है। यह सेहत, स्वावलंबन का रास्ता है। हमारे अंदर की रोगप्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाकर संसर्ग जैसी व्याधि से भी दुनिया को बचा सकते है।
पृथ्वी तो 4.5 अरब साल पहले ही अस्तित्व में आ गई थी। जब तक पृथ्वी जलते वायु का गोला थी, तब तक इस पर कोई कोरोना जैसा वायरस या जीव ही नहीं था। पृथ्वी पर हाइड्रोजन दो और एक ऑक्सीजन के अणु एक साथ आकर मिल गए और इसी से पृथ्वी पर जल की निर्मिती हो गई। उस काल में पृथ्वी काफी गर्म थी, इसलिए जीव संभव नहीं था। उसके बाद जल ने धरती को ठंडा किया।
तीसरा महाविस्फोट था 3.8 अरब साल पहले जब ‘‘पृथ्वी‘‘ पर कुछ अणु जुड़ गए, वह जीव कहलाने लगे। जल में एक सैल के अमीबा जैसे जीव ने जन्म लिया, फिर पानी की भाप बनकर, उससे बादल बने और वर्षा का सिलसिला लाखों साल तक चलता रहा। जब तक दुनिया चार प्रकार की गर्मी या ऊर्जा को जानने लगी थी।
पहली ऊर्जा सूरज से लाल गर्मी के रूप में हमें मिलती है। वह समुद्र का वाष्पीकरण करके H2O बादल निर्माण करती है। यह नीली गर्मी कहलाती है। यह सदैव हरी गर्मी की तरफ बढ़ती है। उससे मिलकर बरसने लगती है। यह ऊर्जा, वर्षा जल मिट्टी को पुनर्जीवित करने की गर्मी देता है। यह गर्मी ही उत्पादन करती है। इस पीली गर्मी कहते है। इस प्रक्रिया को इस काल का इंसान जानने लगा था।
3.4 अरब साल पहले समुद्र का जल काफी गर्म था, जिसमें असंख्य अणु- परमाणु बिखरे पड़े थे। यह प्रायमॉरडीयल हॉट सूप कहा जाता था। इसके ऊपर बिजलियां कड़कती थी। इस असाधारण वातावरण में साधारण रेणु और अणुओं ने ज्यादा जटिल संख्या का निर्माण किया। यही जीवन की शुरुआत थी।
जीवन अपने जैसे गुणधर्म के अन्य जीवों को जोड़कर अपनी एक और श्रृंखला को जन्म देने की क्षमता रखता है। इसलिए जीवन के साथ, जीवन की जरूरत पूरी करने हेतु एक समग्र खाद्य श्रृंखला भी बन गई। यह खाद्य श्रृंखला एक लंबे काल तक चली। इस खाद्य श्रृंखला का निर्माण होता है जब सूरज से आने वाली लाल ऊर्जा समुद्र से मिलकर जल (H2O) निर्माण कर, धरती की जैव विविधता से मिलकर जल को पृथ्वीके उपयोग के योग्य बना देती है। इससे पृथ्वी अपने आप को पीली ऊर्जा से उत्पादक बनाकर खाद्य श्रृंखला का निर्माण कर देती है।
महासागरों में जब जीव का जन्म हुआ तो उसी जीव से विविधतापूर्ण खाद्य श्रृंखला संपन्न सृष्टि का सृजन हुआ। चार्ल्स डार्विन ने कहा था, “प्रकृति चुनाव करती है, वह उन्हीं जीवों को चुनती है, जो अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करते हैं।” जीव बहुत होते हैं और संसाधन सीमित। सीमित संसाधनों की छाया में जो अपने को ढालकर टिकाये रखते हैं प्रकृति उन्हीं का चुनाव करती है, वही बचता है। सदैव ही प्रकृति के अनुकूल जीवों को ढलना पड़ता है, यह प्रक्रिया जैव विविधता का निर्माण होती है। इस प्रक्रिया को हिंदू शास्त्रों में सनातन कहते हैं। यह सनातन प्रक्रिया हिंदू शास्त्र के अनुसार कभी नष्ट नहीं होती परंतु उसमें भी महा विस्फोटों को प्रलय शब्द के साथ जोड़कर उपयोग किया जाता रहा है। एक गति के खत्म होने से श्रृंखला टूटती है। वह फिर बहुत सी नई वायरस को जन्म देता है।
चार्ल्स ने जो बात ढाई सौ साल पहले कही थी, वेदों-उपनिषदों में इसका मूल भाव ईसा से पांच शताब्दी पूर्व भारत में कह दिया गया था।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्
इसका अर्थ है- श्रम करके प्रकृति का उपयोग करें। बिना श्रम किये उपयोग करने वाले को चोर कहा था। श्रम निष्ठा उस काल का प्रकृति अनुकूलन ही था। तब तक मानव ने प्राकृतिक शोषण-अतिक्रमण-प्रदूषण करने वाले यंत्रों का निर्माण नहीं किया था। मनुष्य मिट्टी को अपने श्रम से पोषित करके फिर उससे प्राकृतिक उत्पादन खेती आदि से लेकर अपना जीवन चलाता था। बाद में इसमें प्रकृति पर अतिक्रमण-प्रदूषण-शोषणकारी यंत्र निर्माण करके जैवविविधता निर्माण प्रक्रिया को नष्ट कर दिया उसी का परिणाम आज का कोरोना वायरस है।
अभी कोरोना के बारे में महाविस्फोट कहना या प्रलय की घंटी बजाना, इसको माने या न माने थोड़ा कठिन है किंतु प्रकृति की प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला में बहुत सारे जीव और जातियों के विलुप्त होने को महा विस्फोट की तरह देखना जरूरी है। खाद्य श्रृंखला से किसी भी जीव या जातियों के समूह का विलुप्त होना महा विस्फोट है क्योंकि इस महा विस्फोट में कोरोना जैसे विनाशक वायरस जन्म लेते हैं।
मानव जाति इस वायरस पर तो नियंत्रण कर लेगी, लेकिन प्रकृति में जातियों व जीवों के विलुप्त होने से ऐसे और नए वायरस का म्यूटेट होकर जन्म होना या उसके पैदा होने को मानव कितना रोक पाएंगे, यह एक बहुत बड़ा सवाल है। इस बड़े सवाल का जवाब केवल चार्ल्स डार्विन का ही सिद्धांत है कि प्रकृति उन्हीं को चुनती है, जो अपने आप को प्रकृति के अनुकूल ढाल लेते हैं या बदल लेते हैं। जिस भी जीव या जाति में प्रकृति का अनुकूलन नहीं होता, वह नष्ट होगी ही, इसलिए अब मानवजाति के सामने कोरोना ने इस बात की घंटी बजाई है कि आप प्रकृति के अनुकूल जीना सीखें और प्रकृति पर अतिक्रमण, प्रदूषण व शोषण रोकें । मनुष्य जाति ने यदि इसे नहीं रोका तो प्रकृति स्वयं चुनाव करेगी कि वह भविष्य में किसे जीवित रखेगी और किसे लुप्त करेगी। लुप्त करने हेतु संसर्ग व्याधि बढ़ाने वाले वायरस पैदा करेगी या अन्य कुछ मालूम नही होगा क्या?
महाविस्फोटों की गति अब तेज हो रही है। पहले ऐसे महाविस्फोट अरबों-अरब सालों के बाद होते थे, फिर लाखों सालों के बाद शुरू हुए, फिर हजारों सालों के बाद होने लगे फिर सैकड़ों और दहाइयों में। अब तो हर साल ऐसे नये वायरस पैदा होने से इकाई में ही नये विस्फोट हो रहे हैं।
मनुष्य ने जब से प्रकृति के विपरीत अपना आचरण और आहार-विहार बदला है, आरोग्य रक्षण के स्थान पर स्वस्थ रहने के लिए सुख-सुविधाओं का सहारा लिया है, तब से प्रकृति का क्रोध बढ़ रहा है। यही क्रोध महाविस्फोटों को जन्म दे रहा है। महाविस्फोट हमारे वर्तमान और भविष्य का संकट है। इस संकट से बचने का समाधान पर्यावरणीय अनुकूलन ही है। अनुकूलन ने हमारे जीवन को अब तक संयम और प्रकृति के साथ लेने-देने में अनुशासित एवं संतुलित करके रखा था। लेकिन अब हमारा लालच दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस बढ़ते लालच से अब हमने मानवीय जीवन को संकट पहुंचाने वाले वायरस पैदा कर दिये हैं। यह वायरस दुनिया के अंदर परिवारों की आय का सबसे बड़ा साधन बन गया है।
अब ऐसे महाविस्फोटों की घटनाएं कितनी तेज होगी? यह बताना अभी उचित नहीं है। दुनिया को भय मुक्त रखने की जरूरत है। यह वायरस कोरोना-2, अपने को बदलकर नया संकट ला रहा है। अभी भी मानव जाति के लिए शुभ यही होगा कि कोरोना जैसा महाविस्फोट से हम सीख लें। वेद-उपनिषद् और चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत समझने की कोशिश करें। भारत के सैकड़ों ऋषि, महाऋषियों, उपनिषदों, वेदों ने मानव जीवन के लिए जो सबसे ज्यादा जरूरी है, वह समय-समय पर बताया था। आज हम इस कोरोना जैसी महामारी से बचने के लिए अपने भारतीय मूल ज्ञान से सीखने की कोशिश करें।
प्रकृति का प्रेम, सम्मान, श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति के साथ व्यवहार करें। अपने जीवन में आरोग्य रक्षण की परंपरा को निभायें। इस बुरे वक्त वर्ष 2021 में कोरोना की चेतावनी को समझदारी से स्वीकार करें, सावधानियां बरतें, लापरवाही किए बिना ज़रूरी देशज या आधुनिक चिकित्सा प्राप्त करें। कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए भावना के स्थान पर विश्वास और सावधानी रखने का काम करें। कोरोना को महाविस्फोट की तरह देखकर प्रकृति और मानवता का बराबर सम्मान करते हुए, प्रकृतिमय जीवन जीने की कला अपनाएं। यही हम सब के लिए शुभ है। इसी रास्ते हम प्राकृतिक अनुकूलन द्वारा कोरोना कष्ट और डर से मुक्ति पाकर आरोग्य रक्षित बन सकते है।
*लेखक पूर्व आयुर्वेदाचार्य हैं तथा जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।