ललित चिन्तन
डॉ. अमलदार नीहार*
मौन ही है जीवन का सार
हमारे राष्ट्रपिता हर सोमवार को मौन व्रत धारण करते थे। उस दिन यदि कहीं कोर्ट में हाजिर भी होना पड़ता तो लिखित वक्तव्य से काम चलाते थे। उस एक दिन के मौनव्रत से उन्हें पर्याप्त आत्मशक्ति मिलती थी। उनके भीतर एक ऊर्जा का एहसास होता था। देखा जाये तो यह ‘मौन’ शब्द वास्तव में ‘मुनि’ का बेटा है–उसकी ही औरस संतान। ‘मुनि’ वह है, जो मनन करे, चिन्तन करे और कोई मुनासिब राह निकाले, जीवन जीने का सुगम मार्ग बताये, ध्यान लगाये, तत्त्व-चिन्तन करे और निष्कर्ष निकाले। इसके लिए मौन रहना जरूरी है। मुनि मनन के लिए मौन धारण करता है और ऐसी सूझ हमें देता है कि हम उसे नमन करने लगते हैं। यह मनन और मौन बहुत ही मुफीद है कवि और साहित्यकार के लिए, मनीषी और चिंतक के लिए, राजनेता के लिए। बहुत बोलने से भी आदमी झन्ना हो जाता है, वह चाहे दिल हो या दिल्ली। अक्सर ज्ञानी भी बोलते-बोलते मौन हो जाता है और मूर्ख व्यक्ति जब मुँह खोलता है तो फटे बाँस का भौंपू हो जाता है। ज्ञानी के लिए मौन एकदम रसायन वटी है तो मूर्ख के लिए खूबसूरत ढक्कन, जो उसके सारे भेद छिपाये रहता है। यह च्यवनप्राश भी है, चटनी भी और कड़वी औषधि भी। यह अल्लाह की अलामत है तो क़हर का कुलक्षण भी। यह जीवनरक्षक अमृत भी है और हलाहल का प्याला भी। यह सुख-सन्तोष की पुड़िया भी है और दमघोंटू धुएँ की बेबसी भी।
मेरी सलाह है कि मनुष्य को कभी-कभी चुप भी रह लेना चाहिए, लेकिन कब चुप रहना चाहिए, कितना चुप रहना चाहिए, क्यों चुप रहना चाहिए, कब इस चुप्पी को तोड़ना चाहिए, यह ठीक से समझ पाना भी कोई मामूली काम नहीं है। चुप रहना बहुत महँगा सौदा है और सेंत की बचत भी। बहुत से लोग होते हैं जो बोलने के समय चुप हो जाते हैं और जब चुप रहना चाहिए, तब बहुत बोलते हैं। किसी-किसी को वक़्त चुप करा देता है। कुछ बहुत आधुनिक तेज-तर्रार बच्चे बूढ़े माँ-बाप को अपनी हरकतों से चुप करा देते हैं, कुछ अपनी बदज़बानी से, कुछ गहरी उपेक्षा से। किसी को मिलने वाला निरन्तर दुःख, अपमान और तिरस्कार, चुप करा देता है। गरीबी-दुर्बलता, भीति भी चुप्पी का कारण है तो लोभ, स्वार्थ और नपुंसकता के कारण भी आदमी चुप हो जाया करता है। कितने घरों में प्रताड़ना सहते-सहते औरत गूँगी गुड़िया बन जाती है तो कुछ गुलाम मानसिकता के नामर्द बीबी की उँगलियों पर नाचते-नाचते सारा जीवन ही बिता देते हैं। कहीं भयभीत आदमी और अधिक सताये जाने की सम्भावना से मौन है, तो कहीं चरणों में लोटते श्वान की तरह अदीब, आलोचक, पत्रकार, कार्टूनिस्ट, शिक्षक मौन है। अशिक्षा, अज्ञानता, भ्रम, अफवाह, धर्मान्धता, उन्माद के खेत में सत्ता की फसल काटने वाला राजनेता अक्सर समाज और देश की चीख, चीत्कार, पीड़ा, हाहाकार पर अविराम चुप्पी साधे रहता है।
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चुप्पी अमोघ मंत्र है शरारती बच्चे के लिए, जब बाप बहुत गुस्से में हो। चुप्पी अभिशाप है, जब शराबी पीट देता है निर्दोष पत्नी को, जिसकी रक्षा का उसने संकल्प लिया है। बहू-बेटियों की उच्छृंखलता पर समय रहते लगाम न लगाना और चुप रह जाना एक माँ और सास की ऐसी भूल है, जो उन पर ही भारी पड़ती है। बेटों की बदमाशियों पर सदैव चुप रहना माँ-बाप का बड़ा भारी दोष है। अत्याचार चुपचाप सहते रहना भी पाप है। द्रौपदी की कातर पुकार पर उस महान सभा में जो ज्ञानी और महावीर चुपचाप बैठे थे, उनके ऊपर थूकना मनुष्यता की पहचान है।
वक़्त-वक़्त की बात है, यह चुप्पी मरहम भी है हर घाव का, शाइस्तगी भी है कहीं पर, बड़प्पन है, समझदारी है, कायरता है, नपुंसकता भी है, भीरुता है, ऊर्जा और आत्मज्ञान प्राप्ति की साधना का मार्ग भी है। और भी बहुत कुछ है यह चुप्पी। यह चुप्पी हमारे रिश्ते को मजबूत भी करती है, बड़ों के सम्मुख चुप रहने से सभ्यता और शिष्टता का प्रकाशन होता है। चुप रह जाने से कोई बात बिगड़ने से बच जाती है। चुप रहने में भलाई भी है और कभी-कभी बुराई भी। चुप रहने की कला सबको नसीब नहीं, यह ख़ुदा की नेमत भी है और बरकत का दरवाजा भी। अरी बदबख़्त! ख़ुदा के लिए अब चुप भी हो जा। सही वक़्त पर जो नहीं कर पाते हैं अपनी मुहब्बत का इजहार, वे अपनी ज़िन्दगी से पीछे छूट जाते हैं। फिर तो गाते रहिए –“मैं कौन हूँ, मैं कहाँ हूँ, मुझे ये होश नहीं”।
यह मौन अथवा चुप्पी परमात्मा का अघोषित नाम है—यह निष्काम चेतना के मानसरोवर का प्रफुल्ल पुण्डरीक है तो घुटन, अन्तर्वेदना और संत्रास के पंकिल पोखर की काई भी। जब दुनिया का दिल बहुत तंग नज़र आता है, जब हर राह मुझे मुश्किल लगने लगती है, जब चारों और अँधेरा-सा छा जाता है, जब हर लम्हा मुझे बेसहारा अकेला छोड़ देता है, जब हर कोई मुझे मारना चाहता है, तब मैं खुद चुपचाप मौन की शरण में चला जाता हूँ। एक चुप्पी विषैले घूँट की तरह पी लेता हूँ और फिर ऐसा अनुभव, ऐसा आमोद और ऐसा अमृत मिलता है कि वह सुख अनिर्वचनीय ही होता है–
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं।
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयम्गनिः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।
[शब्दों की आलोक-यात्रा : अमलदार नीहार]
*(लेखक शिक्षाविद, चिंतक एवं श्री मुरली मनोहर टाउन स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय, बलिया में हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं।)