-ज्ञानेन्द्र रावत*
कोरोना महामारी का संकट दिनों दिन सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है। लाखों की तादाद में रोजाना इसकी बढ़ोतरी इसका जीता जागता सबूत है। इस समय सबसे बड़ा सवाल कोरोना संक्रमितों को आक्सीजन मिलने का है जिसकी कमी से कोरोना पीड़ित मौत के मुंह में जाने को विवश हैं और सरकार, प्रशासन, अधिकारी, विधायक, सांसद, मंत्री और दूसरे जन प्रतिनिधि बेबस नजर आ रहे हैं।
दरअसल आज आक्सीजन की अहमियत सबको मालूम पड़ रही है। जबकि मुंह मांगी कीमत देने पर भी आक्सीजन का सिलेंडर नहीं मिल रहा है। यह सच है कि आक्सीजन की मांग और उपलब्धता में जमीन आसमान का अंतर है। हर जगह आक्सीजन के लिए हाहाकार का अहम कारण यही है। इस बाबत मध्य प्रदेश का मामला सामने आया है। जबकि सच्चाई यह है कि यह पूरे देश की हालत है और जहां कोरोना का प्रकोप भयंकर है, उन राज्यों में स्थिति बेहद गंभीर है।
असलियत तो यह है कि हमने आक्सीजन की कीमत कभी पहचानी ही नहीं। और जहां से हमें मुफ्त में आक्सीजन मिलती रही है और मिलती भी है, उन पेड़ों के अस्तित्व को नकार कर उन्हें हम विकास मार्ग के यज्ञ में समिधा बनाते रहे। यह एक, दस, हजार, लाख की बात नहीं है, करोड़ों पेड़ों को हर साल वह चाहे पर्यटन के नाम पर, आल वैदर रोड के नामपर, एक्सप्रैस वे के नामपर, फोर लेन, आठ लेन की सड़क बनाने या औद्यौगिक विकास के नाम पर काटते रहे हैं। आप देश के किसी नगर, महानगर चले जायें, सड़कों पर ट्रक, ट्रैक्टर पर कटे पेडो़ के लट्ठे लदे मिल जायेंगे। यह आम बात है। उस हालत में आक्सीजन हमें कहां मिलेगी? यह विकास के रथ पर सवार सरकारों और देश के भाग्य विधाताओं ने कभी सोचना गवारा नहीं किया कि इससे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र व जैव विविधता पर कितना दुष्प्रभाव पडे़गा। वन्य जीवन प्रभावित होगा सो अलग।
आज कोरोना महामारी के काल में हम आक्सीजन के लिए हाहाकार कर रहे हैं लेकिन क्या किसी ने पेड़ काटने पर कभी मुंह खोला। उस समय हम अपनी जाति, संप्रदाय या फिर धर्म के नारों के बीच अपनी कही जाने वाली सरकारों के आगे बौने बने रहे। हां गौरा देवी का विरोध और उससे उपजा चिपको आंदोलन की बात ही निराली है जिसने पेड़ों के अस्तित्व के लिए न केवल संघर्ष किया बल्कि उस समय की सरकारों को इस बाबत नीति बनाने पर विवश भी किया लेकिन उसके बाद फिर बनी वन नीति भी पेड़ों की रक्षा में नाकाम रहीं, वह बात दीगर है कि दावे हरित संपदा की वृद्धि के बहुत किये जाते रहे।
दुख है कि आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं है और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। सरकार दावे भले करती रहे कि हमारी वन संपदा में बढ़ोतरी हो रही है जबकि हकीकत में उसका दिनोंदिन क्षय ही हो रहा है। अब भी वक्त है अब भी संभल जाओ, हमारी जीवनदायी पेड़ रूपी इस संपदा को बचाओ, अन्यथा बहुत देर हो जायेगी और तब पछताने के सिवाय हमारे हाथ में कुछ नहीं होगा।
दरअसल बढ़ती आबादी, शहरीकरण और विकास की अंधी दौड़ ने हरित संपदा के खात्मे में अहम भूमिका निबाही है। आज से तीस पैंतीस साल पहले जब हम अपने घर जाया करते थे तो सड़क के दोनों ओर घने पेड़ और हर भरे खेत दिखाई देते थे। आज वहां यह सपना है और वहां अब कटे पेड़ों के ठूंठ और सड़क किनारे गगन चुम्बी अट्टालिकायें ही दिखाई देती हैं। अब घर के आंगन में पेड़, वह भी नीम के पेड़ का होना और उस पर चिडि़यों का चहचहाना एक सपना हो गया है। हाँ अपने अपने फ्लैट में बोनसाई सहित कुछ खास किस्म के सुंदर और दिखावटी पौधे लगाकर हम उसकी पूर्ति कर खुश हो लेते हैं। जबकि सच यह है कि यह तो अपने को धोखा देना है। दुनिया के वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग के खतरों के प्रति बरसों से चेता रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि हमारे देश में ही नहीं रूस, अफ्रीका और चीन, इंडोनेशिया आदि देशों से भी हरित संपदा का दिनबदिन ह्रास होता जा रहा है। यदि संयुक्त राष्ट्र संस्था की मानें तो हर साल एक फीसदी की दर से दुनिया में जंगल कट रहे हैं। ग्लोबल वाच के डर्क व्राइंट की मानें तो आने वाले बीस सालों में दुनिया से चालीस फीसदी जंगल साफ हो जायेंगे। इससे ऐसा लगता है कि जिस तेजी से हमारी हरित संपदा यानी जंगल कटते जा रहे हैं, उसी रफ्तार से जीव जंतुओं की हजारों प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगीं।
विडम्बना यह कि हम यह कभी नहीं सोचते कि कुदरत की इस अनमोल देन को जिस तेजी से खत्म करने पर तुले हैं, उसी रफ्तार से वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड बढ़ रही है और मिट्टी के कटाव में भी उसी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है जो बेहद खतरनाक संकेत है। ऐसी हालत में मानव अस्तित्व की रक्षा की उम्मीद बेमानी है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।