दो टूक
-ज्ञानेन्द्र रावत*
पेड़ों के बिना पर्यावरण कैसे बचेगा?
देश में आजकल जंगल की कटाई का मसला चर्चा का विषय बना हुआ है। उत्तराखंड में बेधड़क हरे पेड़ों की कटाई जारी है। यह तांडव उत्तराखंड की किसी भी वन प्रक्षेत्र में जाकर देखा जा सकता है। इससे साबित होता है कि सरकारें दावे कुछ भी करें, उनकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर होता है। असलियत में सरकारें पर्यावरण संरक्षण का ढिंढोरा तो खूब पीटती हैं लेकिन वह वन माफिया के आगे नतमस्तक दिखती हैं। ऐसी हालत में पर्यावरण संरक्षण और हरित संपदा की रक्षा के दावों का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। उत्तराखंड के पर्यावरणविद सुरेश भाई, जिन्होंने पर्यावरण बचाने के लिए अपनी ज़िन्दगी समर्पित कर दी है, यदि उनकी मानें तो समूचे उत्तराखंड में बेधड़क पेड़ों की हजामत हो रही है। उत्तराखंड के किसी भी वन रेंज में महाविनाश का यह नजारा देखा जा सकता है। यहां वनों की व्यावसायिक कटाई बडे़ पैमाने पर जारी है। यह नजारा गढ़वाल और कुमांयूं के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जैसे अयांरखाल, हरूता, वयाली, भिलंग गंगा और यमुना के जलग्रहण क्षेत्रों में और इसके सभी सहायक नदियों के सिरहाने की बची खुची जैव विविधता को देखने जायेंगे तो हजारों कटे हरे पेड़ जमीन पर गिरे मिलेंगे। और तो और वहां जगह जगह लकड़ी के ढेर आपको दिखाई मिल जायेंगे। इनको ट्रकों पर लादकर हल्द्वानी भेजा भी गया है तो वहां आपको कटे पेड़ों के ठूंठ ही ठूंठ मिलेंगे। वन विभाग जब निगम को सूखे पेड़ों की कटाई व छंटाई का आदेश देता है तब इससे सम्बंधित कार्यवाहियों में पूरी पारदर्शिता दिखाई देती है लेकिन जमीनी हकीकत का वन विभाग जब मुआयना करता है, तब मालूम पड़ती है जब जनता की ओर से विरोध के स्वर उठने लगते हैं।
सरकारों के ऐसे रवैये के चलते स्वच्छ प्राण वायु की आशा करना आसमान से तारे तोड़ने के समान हैं। सरकारों के यही दोमुंहे रवैये का परिणाम है कि हमारी जीवनदायिनी नदियां प्रदूषित हैं, जल प्रदूषित है, वायु प्रदूषित है, जंगल विकास यज्ञ की समिधा बन रहे हैं, जब पेड़ ही नहीं रहेंगे तो मानव जीवन का अस्तित्व कहां सुरक्षित रह पायेगा। यही विचार का विषय है।
कैसी विडम्बना है कि जो पेड़ हमें पीपल सौ प्रतिशत, बरगद अस्सी प्रतिशत और नीम सत्तर प्रतिशत आक्सीजन देते हैं उनके सहित तकरीबन सवा दो लाख जामुन, अर्जुन, तेंदू, बहेड़ा जैसे औषधीय पेड़ों से घिरा छतरपुर का जंगल बकस्वाहा हीरा खदान के लिए एक निजी माइनिंग कंपनी को पचास साल के पट्टे पर दिया जा रहा है। इसके 62.64 हेक्टेयर क्षेत्र से हीरा निकाला जायेगा । इसके लिए यहां के यह 2,15,875 पेड़ काटे जायेंगे। इनमें चालीस हजार सागौन के भी पेड़ शामिल हैं। कहा यह जा रहा है कि यहां पर खुदाई में पन्ना से भी पन्द्रह गुणा ज्यादा हीरा निकलेगा। इसे क्या कहेंगे? इसे पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्ध सरकार का नायाब नमूना कहेंगे। जबकि हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी यह कहते नहीं थकते कि विकास प्रक्रिया में पर्यावरण का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। यह पर्यावरण संरक्षण का नमूना है या पर्यावरण विनाश का। इससे मोदी सरकार की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट हो जाता है। देश में कहीं भी सड़क मार्ग से चले जाइये, आपको सड़क के दोनों किनारे कटे पेडो़ं के ठूंठ ही ठूंठ अवश्य मिल जायेंगे। साथ ही यह भी कि जो सरकार विकास के नाम पर देश में वह चाहे आठ लेन हो या छह लेन की एक्सप्रेस वे हो, आल वैदर रोड हो, पर्यटन स्थलों हेतु, औद्योगिक संस्थानों हेतु पेड़ों के निर्बाध कटान को मंजूरी दे रही हो उससे देश की जनता की प्राणवायु प्रदान करने वाले पेड़ों की रक्षा की उम्मीद ही बेमानी है।
समझ नहीं आता कि सरकार जंगलों की सफाई पर क्यों तुली है जबकि यह जग जाहिर है कि जंगलों की सफाई या कटाई का दुष्परिणाम हमारे पर्यावरण पर तो पड़ता ही है, इससे पारिस्थितिकी संतुलन भी बिगड़ता है। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी होती है और प्रदूषण में बढ़ोतरी का स्तर हमारे स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। सबसे बड़ी बात यह कि जब हानिकारक गैसों और किरणों को रोकने के लिए धरती पर कोई पेड़ ही नहीं होगा तो धरती पर जीवित प्राणियों का अस्तित्व कैसे बचेगा?
इसमें दो राय नहीं कि जंगलों की कटाई से न केवल पेड़ों का खात्मा किया जा रहा है बल्कि वन्य जीवों के आवास को भी खत्म किया जा रहा है। विडम्बना तो यह कि एक ओर सरकार वनों के विनाश पर तुली है और वन्यजीवों के आवास को खत्म कर रही है, वहीं दूसरी और उन्हीं वन्य जीवों के आवास हेतु अभयारण्य बनाने पर जोर शोर से लगी है। हालात गवाही देते हैं कि सरकार हमारी वन संपदा के विनाश पर तुली हुई है। छतरपुर के समीप बकस्वाहा का जंगल सरकार की इसी साजिश का नतीजा है जिसे हीरा खनन के लिए पचास साल के पट्टे पर दे दिया गया है।
दुख की बात तो यह है कि सरकार और उसके कारकुरान यह भली भांति जानते हैं कि पेड़ों का हमारे जीवन में कितना महत्व है। पेड़ों के कटान से जहां हमारे प्राकृतिक परिवेश से हरियाली का खात्मा होता है, हवायुक्त छाया में कमी आती है, वहीं आंधी और बाढ़ जैसी आपदाओं में बढ़ोतरी होती है, साथ ही भूमिगत जलस्तर में भी कमी आती है जो पेयजल संकट का कारण बनता है सो अलग। पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, पर्यावरण में जहरीली गैसों का स्तर बढ़ता है और जैवविविधता की स्थिति और दिनोंदिन खराब होती जाती है। जल प्रदूषण बढ़ता है। गर्मी बढ़ती है और मानव स्वास्थ्य जैसे फेफड़ों और श्वसन समस्याओं से सम्बंधित बीमारियों के कारण बनते हैं। हमारे नीति नियंता यह कतई नहीं सोचते कि पेड़ अपनी जड़ों से मिट्टी को बांधे रखता है और मृदा का अपरिदमन नहीं होने देता। पेड़ जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में कितने सहायक होते हैं। साथ ही ऐसा कर हम मानव और पर्यावरण के पक्ष में जंगलों द्वारा की गयी सभी सकारात्मक गतिविधियों को अवरुद्ध कर रहे हैं जो मानव जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण है।
यही नहीं इस तरह हम मौसमी बदलाव, ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी, ग्लेशियरों के पिघलने, ओजोन परत को कमजोर करने, तूफान, चक्रवात, बाढ़, सूखा जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के जोखिमों को और बढ़ते जाने को आमंत्रण दे रहे हैं। जबकि भावी भविष्य में जीवन को बचाने हेतु पर्यावरण के प्राकृतिक चक्रों को बनाये रखने के लिए आज पेड़ों को बनाये रखना समय की मांग तो है ही, जरूरत भी है। कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा को कम करने के साथ-साथ ताजा और स्वस्थ आक्सीजन प्राप्त करने के लिए वनों का संरक्षण बेहद जरूरी है। हालात गवाह हैं कि अब यह समाज और पर्यावरण के लिए वैश्विक समस्या बन चुकी है जो धरती पर जीवन के विनाश का संकेत है जो बहुत बड़ी चुनौती है। उसके बावजूद देश में विकास के नशे में मस्त सरकारें जंगल के जंगल तबाह करने पर तुली हैं और जंगल कटाई का सिलसिला बेरोकटोक जारी है। वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में उत्तरोत्तर वृद्धि इसी का दुष्परिणाम है।
दरअसल बढ़ती आबादी, शहरीकरण और विकास की अंधी दौड़ ने हरित संपदा के खात्मे में अहम भूमिका निबाही है। आज से तीस पैंतीस साल पहले जब हम अपने घर जाया करते थे तो सड़क के दोनों ओर घने पेड़ और हर भरे खेत दिखाई देते थे। आज वहां यह सपना है और वहां अब कटे पेड़ों के ठूंठ और सड़क किनारे गगनचुम्बी अट्टालिकायें ही दिखाई देती हैं। अब घर के आंगन में पेड़, वह भी नीम के पेड़ का होना और उस पर चिड़ियों का चहचहाना एक सपना हो गया है। हां अपने अपने फ्लैट में बोनसाई सहित कुछ खास किस्म के सुंदर और दिखावटी पौधे लगाकर हम उसकी पूर्ति कर खुश हो लेते हैं। जबकि सच यह है कि यह तो अपने को धोखा देना है। दुनिया के वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग के खतरों के प्रति बरसों से चेता रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि हमारे देश में ही नहीं रूस, अफ्रीका और चीन, इंडोनेशिया आदि देशों से भी हरित संपदा का दिनबदिन ह्वास होता जा रहा है। यदि यूएनओ की मानें तो हर साल एक फीसदी की दर से दुनिया में जंगल कट रहे हैं। ग्लोबल वाच के डर्क व्राइंट की मानें तो आने वाले बीस सालों में दुनिया से चालीस फीसदी जंगल साफ हो जायेंगे। इससे ऐसा लगता है कि जिस तेजी से हमारी हरित संपदा यानी जंगल कटते जा रहे हैं, उसी रफ्तार से जीव जंतुओं की हजारों प्रजातियां विलुप्त हो जायेंगी।
विडम्बना यह कि हम यह कभी नहीं सोचते कि कुदरत की इस अनमोल देन को जिस तेजी से खत्म करने पर तुले हैं, उसी रफ्तार से वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड बढ़ रही है और मिट्टी के कटाव में भी उसी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है जो बेहद खतरनाक संकेत है। ऐसी हालत में मानव अस्तित्व की रक्षा की उम्मीद बेमानी है।
असलियत तो यह है कि हमने आक्सीजन की कीमत कभी पहचानी ही नहीं। और जहां से हमें मुफ्त में आक्सीजन मिलती रही है और मिलती भी है, उन पेड़ों के अस्तित्व को नकार कर उन्हें हम विकास मार्ग के यज्ञ में समिधा बनाते रहे। यह एक, दस, हजार, लाख की बात नहीं है , करोड़ों पेड़ों को हर साल वह चाहे पर्यटन के नाम पर, आल वैदर रोड के नाम पर, एक्सप्रेस वे के नाम पर, फोर लेन, आठ लेन की सड़क बनाने या औद्यौगिक विकास के नामपर काटते रहे हैं। आप देश के किसी नगर, महानगर चले जायें, सड़कों पर ट्रक, ट्रैक्टर पर कटे पेड़ों के लट्ठे लदे मिल जायेंगे। यह आम बात है। उस हालत में आक्सीजन हमें कहां मिलेगी। यह विकास के रथ पर सवार सरकारों और देश के भाग्य विधाताओं ने कभी सोचना गवारा नहीं किया कि इससे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र व जैव विविधता पर कितना दुष्प्रभाव पडे़गा। वन्य जीवन प्रभावित होगा सो अलग। आज कोरोना महामारी के काल में हम आक्सीजन के लिए हाहाकार कर रहे हैं लेकिन क्या किसी ने पेड़ काटने पर कभी मुँह खोला। उस समय हम अपनी जाति, संप्रदाय या फिर धर्म के नारों के बीच अपनी कही जाने वाली सरकारों के आगे बौने बने रहे। हाँ गौरा देवी का विरोध और उससे उपजा चिपको आंदोलन की बात ही निराली है जिसने पेड़ों के अस्तित्व के लिए न केवल संघर्ष किया बल्कि उस समय की सरकारों को इस बाबत नीति बनाने पर विवश भी किया लेकिन उसके बाद फिर बनी वन नीति भी पेड़ों की रक्षा में नाकाम रहीं, वह बात दीगर है कि दावे हरित संपदा की वृद्धि के बहुत किये जाते रहे। दुख है कि आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं है और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।
सरकार दावे भले करती रहे कि हमारी वन संपदा में बढ़ोतरी हो रही है जबकि हकीकत में उसका दिनोंदिन क्षय ही हो रहा है। अब भी वक्त है अब भी संभल जाओ, हमारी जीवनदायी पेड़ रूपी इस संपदा को बचाओ, अन्यथा बहुत देर हो जायेगी और तब पछताने के सिवाय हमारे हाथ में कुछ नहीं होगा।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
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